पेशानी के बल....(लघुगीत)


कभी पिता के,
कन्धों का बल.
अम्मा की लुटिया,
का गंगाजल.

छुटके की किसी,
पतंग की कन्नी.
बीजगणित के,
मुश्किल हल.

खट्टे-मीठे,
जीवन तरु के.
झूमते-इठलाते,
किसलयदल.

रंग बदलते,
हैं ये पल-पल.
मेरी पेशानी,
के बल.

एक बरनी अचार...


अब तक तो शायद,
तैयार हो गई होंगी,
चने की हरी फलियाँ.
आलू-मटर रोज,
भूनते होंगे मामा,
अंगीठी अलाव पर.
मामी ने भी तो,
डाल दी होंगी बड़ियाँ.
और गईया ने दी होगी,
नई फिर एक बछिया.
तुम लगा चश्मा,
उसके दांत गिनती होगी.
सरसों के साग,
मामा की बिटिया,
अब भी जलाती है?
तुम भोर में ही,
नहाती हो अब भी,
सूरज के पहले?
यादें धुंधलाने लगी हैं,
मौसमी अचार की नानी,
एक बरनी भिजवा दो.


इतना आसान नहीं था माँगना,
पर तेरी दी सांसें ली नहीं जातीं.
कम से कम ये दुआ क़ुबूल कर खुदा,
दर्दनाक ही सही मुझे मौत दे दे.

युवा...


कल तक जो था,
सबसे सुन्दर जवान.
जीवन के पथरीले,
पथ को जिसने,
सिर्फ एक स्पर्श से,
पिघला डाला था.
समय का वेग,
आयु का उफान,
बेअसर थे सब,
जिसपर आज तक.

काली रातें, भीषण बाढ़,
शीतलहर-घनघोर अकाल.
ना खींच सके थे एक,
रोंया तक जिसका.
जिसकी परछाई भी,
अत्यंत शीतल थी,
अम्बर की भांति.
सुहासिनी पलकें और,
दिग्विजयी मुस्कान की,
जिसकी चल-अचल,
सौगंध उठाते थे.

जाने किस उन्माद आज,
संतान हुई उससे विमुख.
सूर्यमुखी का जैसे,
सूर्य खो गया.
वह सुघड़ अचानक,
वयोवृद्ध हो गया.

सौगंध सूर्य की,
मैं सूर्य तो नहीं.
पर आपको पिताजी,
रखूँगा चिर युवा.

क्षणिकाएं...(बीज..)


क्लेश....

आत्मा में तेरी,
या अंतर में मेरे.
संदेह का बीज,
कहीं भी पनपे.
फलित तो सिर्फ,
क्लेश ही होगा.



नजर....

तुम्हारी भीनी सी,
मुस्कराहट के बीज.
बोये थे कभी,
अपनी आँखों में.
फसल अब तक,
लहलहाती है.
मुझे सातवें दशक भी,
नंबर नहीं चढ़ा.




लवण...

पिता बहा पसीना,
ले आते हैं रोटी.
वरना माएं बिलख,
कर रो देती हैं.
दोनों ही सूरतों में,
बच्चों को मिल जाता है,
लवण..




फसल काट लो...

तुम्हारे दिए हुए,
शब्दों की फसल,
तैयार हो गयी है.
आओ काट लें,
प्रीत की फलियाँ.
पक गए तो,
बनेंगे नासूर.





याद....

तुम बेशक ना आओ,
इस बार भी.
हवा से भिजवा देना पर,
एहसास का एक बीज.
पनपें तो खिलें कम से कम,
गुलमोहर तुम्हारी यादों के.





भटकटेयाँ....

जाने कौन से,
पंछी लाते हैं.
बीज भटकटेयाँ के,
मिलते ही नहीं.
तुम भी कहाँ,
मिलते हो कभी.
याद तुम्हारी यूँ,
उगी हर ओर है.




स्वभाव...

उसे स्नेह सारे बीजों से,
अंतर से अनजान धरा है.
तेरा मेरा करके मरना,
अपनी ही बस परम्परा है.




कंटीली बाड़...

पिता की रोक-टोक,
जेनेरेशन गैप नहीं.
खेत किनारे कंटीली बाड़,
रखने वाला कृषक,
बीजों से बहुत,
प्रेम करता है.




माँ....

"इमली के बीज,
मत खा लेना.
पेट में वरना,
पेड़ निकल आएगा."
नहीं माँ, आत्मा ने,
आशीष के बीज खाए.
देखो ना श्रद्धा के,
कितने वृक्ष निकल आए.





उर्वरा...

डरना मत शम्भू,
अबकी रक्तबीज से.
हमने पूरी धरा,
निचोड़ ली है.
अब कोई बीज,
हरा नहीं होता.

लौ...(छोटी कविता..)


चिंगारी-मशाल,
या फटती पौ.
दीप-चाँद,
या तारे सौ.

भाषा तू,
वर्तनी मेरी.
अंगूठा-अनामिका,
तर्जनी मेरी.

बाण में और,
कटारों में.
बचपन के,
गलियारों में.

रक्त के हर,
एक धारे में.
आँख से बहते,
पारे में.

कर्ण का तू ही,
गुंजन है.
स्पर्श है तू ही,
स्पंदन है.

हार का बल,
तू जीत में है.
तू सुर में है,
संगीत में हैं.

साँसों की तू,
वर्तिका मेरी.
अम्मा सबमे,
तेरी लौ.


समंदर के अन्दर...

जाने कितने सीप-मोती,
छुपाये है अपने अन्दर.
नदियों से रोज छीन कर,
खारा साहूकार समंदर.



अन्दर का समंदर....

बहुत रोज से जमा था,
पूरे बदन के अन्दर.
आँखों से बहाता हूँ,
मैं आज ये समंदर.

मैं शब्दचोर हूँ....


ना तो मेरे पास ज्ञान है,
गूंथ-सहेज सकूँ भाव,
ना ही इतना इत्मीनान है.
शिल्प-चातुर्य तनिक नहीं,
इनसे कलम अनजान है.

रखता हूँ दो जेबों में,
छेनी पिता की-माँ की हथौड़ी.
फिरता यहाँ वहाँ हूँ जब,
मिलती है सहूलियत थोड़ी.

छुटके से उसकी पिचकारी,
गुडिया से उसकी किलकारी.
खीज-कुढ़न-थकान,
गोदौलिया-मैदागिन करते,
ऑटोचालकों से.

जलेबी से रस ज़रा,
समोसों से मिर्ची.
खट्टापन यूँ ही किसी,
चाट के ठेले से.

सज्जनों से दुआ,
अंगीठी से धुंआ.
सचिन के शतक का हर्ष,
केमिस्ट्री प्रैक्टिकल का शोक,
शहर के किशोरों से.

उत्सवों से संगीत,
तरुओं से कुछ बीज.
मिटटी थोड़ी खेतों से,
और परम पवित्रता,
महागंगा से.

कभी मांग लेता हूँ,
कभी लेता हूँ चुरा.
क्रिसमस का महीना है,
सोचा कन्फेशन कर लूँ.


1)

आज आसमान बदरंग है,
मैं गीत नहीं रंग सकता.
माँ को बर्दाश्त कैसे हो,
उसने दी है चुनर धानी....

2)

कहते रहे सब बार बार,
ब्याह दो बिटिया अब,
देखो ना बड़ी हो चली.
अम्मा कैसे मान लें,
अम्मा की वो मंजरी....

दो पहलू...


वो एक्यूपंचर में पारंगत,
मैं स्पर्श महसूस करने में अक्षम.
एक सिक्के के दो पहलू,
दोनों अद्भुत-दोनों विलक्षण.


सुनो!!!
क्या वाकई में तुम,
लौट आये हो,
बन कर दिग्विजयी?
क्या सच में,
किसी ने नहीं थामा,
तुम्हारा अश्वमेघ अभियान?
वाकई में चक्रवर्ती,
बन गए क्या तुम?
क्या वसुन्धरा की,
हर निधि तुम्हारी है?
किसी को भी तुम,
चारण बना सकते हो.
तुम्हारी आज्ञापालन,
धर्म बन गया है.
क्या तुम्हारी सेना,
विराट एवं अजेय है?
बाण तुम्हारे क्या,
वेगवान हैं पवन से?

यही हाँ!!!!
तो सुनो अभिमानी.

जलज-पंकज, पावक-नीर,
लता-पुष्प-परागकण,
किसलयदल तक,
नहीं अधीन तुम्हारे.
मजबूर और चाटुकारों,
की जाति हटा दो.
तो कोई जय तुम्हारे,
नाम की ना उचारे.
नंगे पाँव वट तक आओ,
तो सिखाऊं तुम्हे,
अश्वों की बोली.
तुम्हारे अश्व तक,
हँसते हैं हर प्रहर,
मिथ्या दंभ पर तुम्हारे.

किन्तु यदि तुम्हारा,
उत्तर ना है!!!

तो हे वीरवर!
अखंड तेजवान!
नत हूँ मैं इस,
भाल अरुण पर.
यकीन मानो,
तुम्हारा मौन और स्वर,
तय करते हैं वेग,
जल और अग्नि का.
नीरज-पराग-वल्लरी,
संकल्पित हैं मात्र,
एक मुस्कान पर तुम्हारी.
बैठ विनय की पालकी,
उठ चुके हो तुम,
राज्य देश के ऊपर.
हर सृष्टि कण तुम्हे,
युगान्धर कहता है................

बाँध....


पिघलती है कभी जब,
हर एक नस मेरी,
ख्याल से तुम्हारे.
भावनाओं की बाढ़ से,
ह्रदय में उफान आता है.
बहुत वक़्त हुआ अब,
पलकें रिसने लगी हैं.
या तो दिखा एक झलक,
ये बूंदें धुंआँ कर दो.
या छू लो भावहीन,
ठन्डे हाथों से मुझे.
जम जाए अन्दर ही,
अब हर जर्रा मेरे.
के ये पलकों का,
बाँध अब टूटने को है.

मोजुली...


तपन तो नहीं,
हाँ उमस बहुत थी उस रोज.
यूँ अमूमन जून में,
तपिश भी हुआ करती है.

पर मौसम का मिजाज़,
मुश्किल है समझना.
घर से कोई,
आठ सौ मील दूर.

वैसे भी वो सिर्फ,
पाँचवा दिन ही था,
अखमिया माहौल में मेरा.

कहते हैं आदत,
छूट जाती है,
वक़्त के साथ.
लत नहीं छूटती.

लत....अल्ल सवेरे ही,
निकल जाने की,
पैसेंजेर ट्रेनों में.
खरीद टिकट जो,
मिल जाएँ दे,
जेब के सारे चिल्लर.

बोंगाइगाँव,
शायद सबसे आसानी से,
यही कह सकता था मैं.

कोई १३० मील दूर,
गुवाहाटी से,
छोटा सा मनोरम कस्बा.

निर्जन सड़कों को,
अदद साथी क़ुबूल हो.
आवारा कदम भी,
कुलबुलाते हैं.

नजदीक ही है जोरहट,
यही रहते हैं,
सबसे मीठे असमी,
अनानास जो बहुत खाते हैं.

तभी ब्रम्हपुत्र फ़ैल गई,
यहीं बहुत शायद नेह से.

बरसात में नानी के,
घर के अलावा,
टापू यहीं देखा मैंने.

अनजान जगह संकेत,
कितने अपने होते हैं.
मोजुली जाकर समझी,
मैंने इसकी शिद्दत .

उसे चाय की पत्तियाँ,
चुनते देखना धीमे-धीमे,
आँखों के सुकून का,
सामान था.

डेढ़ साल हुए आज,
किसी ने पूछा,
"कहाँ है मोजुली?"
आज दिल्ली में,
उमस बहुत है ना??


बोंगाइगाँव एक छोटा कस्बा है असम का. वहाँ से कोई ५०-६० किलोमीटर दूर एक और कस्बा (आंचलिक है बहुत) है जोरहट.
वहाँ ब्रम्हपुत्र काफी चौड़ी हो जाती है और नदी में सबसे बड़ा द्वीप वहीँ है...........नाम है मोजुली.
वहाँ लड़कियों का बहुतायत में रखा जाने वाला नाम भी मोजुली ही है.....और असम के लोग असमिया नहीं बोलते...उनका उच्चारण होता है "अखमिया"


काश के होता गुमां,
'छीन लूंगा तुम्हे खुदा से'
करते वादा तुमसे.

के तुम मुझे,
खुदा बना खुद ही,
छोड़ जाओगे यूँ.

तो बजाये तुम्हारी,
बेखुदी से मोहब्बत करता.

ना होता तुम्हारी,
जुदाई का खलल.
ना मुझमे किसी,
खुदा का दखल होता.

कहाँ...


तुमने कितने ही रच डाले,
मीठे-कडवे सुगठित प्याले.
मेरी अनगढ़ सी मिटटी की,
सोंधी सी महक पर कहाँ गई?

अब मैना बहुत फुदकती है,
तोते को मंतर आते हैं.
लेकिन जो मैंने छोड़ी थी,
भोली सी चहक पर कहाँ गई?

पत्थर की चिकनी छाती पर,
कितने डनलप के गद्दे हैं.
लेकिन जो पहले मूज की थी,
वो मेरी खटिया कहाँ गई?

पैनकेक है ओवन में,
और ग्रिल पर गार्लिक पिज्जा है.
पर हरी वो लहसुन की बाती,
वो जली रोटियाँ कहाँ गई?

इस सर्दी को दो मास हुए,
गुड़ का न कोई ठिकाना है.
अब आँख दोपहर खुलती है,
'गुड़ मार्निंग' जाने कहाँ गई?

माँ के जंतर-रक्षा गंडे,
'रिप्लेस' हुए 'रिस्टबैंडों' से.
पर माँ को गले लगाने की,
अब मंशा तक भी कहाँ गई?

बस....


ईर्ष्या की गाथा सा कुछ,
जो तुमने है यूँ ही लिख डाला.
ना पश्चाताप करो उसका,
यूँ सलिल से उसे मिटाओ मत.

आक्रोश नहीं मुझे तुम पर,
मेरा धीर बड़ा अभिमानी है.
प्रलाप विलाप करो मत तुम,
ढोंग क्षमा का दिखाओ मत.

मुझको डुबो, सागर ना कहो.
यूँ ह्रदय जला, दिनकर ना कहो.
और पोत के अब कालिख सा कुछ,
मुझे अपना श्याम बताओ मत.

मन हुआ देख विभोर नहीं,
इस रात की हो अब भोर नहीं.
ये पिघले सीसे मत डालो,
कर्णों को मेरे भरमाओ मत.

अब बीत गए वो प्यार के दिन,
मीठे नखरे-मनुहार के दिन.
बंजर हूँ असर ही नहीं होता,
कोई बीज-कलम लगाओ मत.

आतप अब असर नहीं करती,
मुझे शीत का नाम पता ही नहीं.
मैं गर्म सा एक फफोला हूँ,
सावन की धार गिराओ मत.


मेरा अनुराग...

जो होती हो हिचक,
तो ना कहो बतियाँ.
जो आती हो नींद,
तो ना जागो रतियाँ.
संभव है प्रणय,
ना दे सको तुम.
मुझे भी पर अनुराग,
तुम्हारी स्वतन्त्रता से है.



संस्कार...

बारह के बाद सीधे,
थर्टीन फोर्टीन करने वाले,
रेयान ने नहीं खाया,
बैंगन का भर्ता कभी.
यों उसे हाईवे ग्रिल का,
रोस्टेड एगप्लांट पसंद है.



दूध का गिलास...

पूरे चार साल बाद,
तुम्हे हाथ में पकडे,
याद आये नखरे,
मनुहार, चिल्ल-पों.
और वो गमला,
दूध पीने वाला.
जो कसम से मेरा,
सबसे अच्छा साथी था.




सच...

माँ को तो सदा,
पसीजा ही देखा.
पर पापा तो कहते हैं,
धीरज है उसमे.
हाँ प्रपात भी तो,
निकलते हैं पर्वत से.
पापा सच ही,
कहते हैं हमेशा.




नागफनी...

या तो तुम बंद कर दो,
दिखावा याराने का.
या तो मैं ही फेंक दूं,
दोस्ती के लिहाज़ का लिहाफ.
बड़ा हुआ तुम्हारा बोया,
नागफनी बाहर आने को है.




पैबंद...

आज वक़्त का आखिरी,
पैबंद लगाया है मैंने,
जिंदगी के लिहाफ पर.
इसे अब ना फाड़ना.
सुना है कब्रिस्तान में भी,
बिना कफ़न जगह नहीं देते.




काई...

धूल ना जमे उन पर,
जब तक तुम नहीं आते.
मैंने यादों को तुम्हारी,
आँसुओं में नम रखा था.
बहुत वक़्त हो गया,
अब मत ही आना.
जम गई है मोटी सी अब,
अवसाद की काई वहाँ.





रिमिक्स....

'मिक्स' का दाल-चावल खाना,
नाश्ते में हर सुबह,
कॉर्नफ्लेक्स खाने वाले,
बच्चे को नहीं भाया.
चीथड़े में लिपटा कोई,
पांच घंटे बाद आया.
उठा कूड़े से, ज़रा पानी दाल,
'मिक्स' बड़े चाव से खाया.
जमाना 'रिमिक्स' का है.

अनुज...


बता के मुझे आदर्श,
महान सा भाई.
नायक न्याय का,
बेहद काबिल बेटा.

सर्वगुण संपन्न,
अत्यंत कुशाग्र.
चपल खिलाड़ी,
सुयोग्य,सुदृढ़ मनुज.

सुमेरु सा अटल,
विन्ध्य सा सुशील.
वशिष्ठ सा ज्ञानी,
दधिची सा पुनीत.

सत्य सारथी,
तर्क युगांधर.
चिर गोस्वामी,
'कैरिकेचर' राम का.

यदा कदा मुझे,
यूँ ही कह जाते हो.
मैं नहीं बन पाता भाई,
तुम बिन कुछ कहे,
भरत-लक्ष्मण बन जाते हो.

तेरा ना होना....


दिखता नहीं मैं रक्तिम,
या शायद समर्थ नहीं तुम,
लाल रंग पहचानने में.

अथवा दोषी मुस्कान है,
जिसे अतीव अनुराग है,
मेरे अधरों से शायद.

जो भी हो वाकई,
दर्द नहीं होता मुझे,
या दर्द खुश हैं शायद.

विषम स्थितियों में मित्र,
तुम्हे मित्र कहना कितना,
आनंद दे जाता है मुझे.

चल पड़ता हूँ मैं,
बाँध आँखों पर पट्टी,
एक पतली डोर पर यूँ.

मानो सपाट हो सड़क,
और मैं हूँ निकला,
साथ तुम्हारे सैर पर.

और अब तुम्हारा ना होना,
है नभ के उड़ने जैसा,
मानो शाश्वत अनिश्चित हुआ.

काश दे जाते तुम धोखा,
कोस तो लेता ह्रदय,
ये टीस तो ना होती.

है अधरों पर मुस्कान नहीं,
खुशियों से बची पहचान नहीं,
अब दर्द बिलखते हैं मेरे.


बीती बाईस रातों से,
खिड़की नहीं खोली मैंने.
क्या पता कब कैसे,
चले आयें यहाँ,
तुम्हारे ख्वाब-एहसास.
और जाना पड़े मेरी,
नींद को पलक छोड़ कर.

पर कमबख्त नींद भी ना,
अकेले रहना चाहती है.
पसंद नहीं उसे घर में,
रखा किसी का सामान.
आज मौक़ा पाकर मैंने,
कर ही डाली सफाई जरा.
याद मिली है तुम्हारी.

दो दिन से खडा हूँ,
दरवाजा खोलो ज़रा.
लो अपनी याद संभालो,
मुझे नींद चाहिए मेरी.
या खोलो अपनी खिड़की,
दे दो एक झलक भी.
मैं नींद से किनारा कर लूँ.

मैं लौट सकता हूँ...


दधिची नहीं हूँ मैं,
ना कोई पुण्यात्मा हूँ.
परन्तु अगर मेरे लहू से,
मिलती है शान्ति तुम्हे.

तो तैयार हूँ मेरे मित्र,
निचोड़ लो मेरी हर धमनी.
या कहो तो मैं ही,
खींच दूँ शिरायें अपनी.

मगर बस मेरा ही,
लहू हो अंतिम गिरा.
इसके बाद ना रंगनी चाहिए,
फिर से ये लाल धरा.

मद में ना आना,
सज्जन-परिहास ना करना.
मैं नहीं हूँ सोच कर,
बेवजह अट्टाहास ना करना.

वरण मेरे धीरज की राख,
उठ खड़ी होगी उसी क्षण.
उनका ताप प्रचुर है,
उन्ही में तुम्हे मिलाने को.


राग-द्वेष ना इर्ष्या हममे,
तुम सा सड़ा नहीं करते.
एक बार जलते हैं भक से,
नित रोज जला नहीं करते.

कीड़े खा कर खाद बनाएं,
लालच के कोढ़ पडा नहीं करते.
गिद्ध भले ही खा ले कभी,
अपनों से पेट भरा नहीं करते.

शांतचित्त करते हैं साधना,
हवन में होम हुआ नहीं करते.
पुण्य-पाप नहीं गिनते हैं,
ढोंग से अड़ा नहीं करते.

अपने जैसों को ही डराओ,
हम तुमसे डरा नहीं करते.
मौत का डर हो तुम्हे मुबारक,
मुर्दे मरा नहीं करते.

लिखूं तो...


स्वप्न लिखूं,
या श्वास लिखूं.
कंठ लिखूं या,
प्यास लिखूं.

मिथ्या दर्पण,
सत-प्रतिबिम्ब,
धोखा या,
विश्वास लिखूं.

चहक लिखूं या,
महक लिखूं.
बहुत दूर या,
पास लिखूं.

शांत मृदुल,
और कांतिमय.
या फिर हो,
बदहवास लिखूं.

अम्बर पर,
साधारण सा.
या धरती पर,
ख़ास लिखूं.

कल का टूटा,
सा एक सपना.
या कल की,
कोई आस लिखूं.

बबूल लिखूं,
गुलाब लिखूं.
बैठ दूब की,
घास लिखूं.

मीत बिछोह की,
व्याकुल पीड़ा.
मिलन का या,
आभास लिखूं.

तेज सूर्य का,
मील के पत्थर.
या विजयी,
आकाश लिखूं.

दूँ मतलब,
कविता को कोई.
या तो फिर,
बकवास लिखूं.

यूँ तो विषय,
बहुत हैं अम्मा.
मैं तुम पर ही,
काश लिखूं.


वो बोला नहीं करती,
या बोलती नहीं मुझसे.
या मैं ही रहता हूँ,
अनसुना-अनसुना सा.

चिलम जलाते अब्बा की,
या खींचते पानी कुँए से.
छागली के साथ खेलते भी,
बोला नहीं करती वो.

यूँ भी चिलम चिराग,
बाल्टी-कुंआ, छागली को,
जरुरत कहाँ है किसी,
ऐसी भी बातचीत की.

मेरी छुटकी भी तो,
ऐसी ही दिखती है.
हाँ बोलती बहुत है,
पटर पटर चारों पहर.

बोल पड़ी वो भी उस रोज,
"भाईजान! नए हैं रावलपिंडी में?"
क्या वाकई कुछ नया है?
"नहीं बहन, पड़ोस के गाँव से."

पत्थर का सनम...


क्यूँ कर लेते हो यूँ,
कभी कभी अचानक.
क्यूँ बना देते हो,
बेवजह मुझे खुदा.

अगले ही पल फिर,
जैसे मेरा होना भी.
महसूस नहीं कर पाते,
बेखबर से तुम.

देखो मुझे आदत नहीं,
यूँ लहरों पर चलने की.
तलब मेरे क़दमों को,
बराबर जमीन की हैं.

देख के तनिक ख़ुशी,
चहक चहक जाती हूँ.
और जब होते हो दूर,
छलक छलक जाती हूँ.

हो सकता है तुम्हे,
पसंद हो ये अल्हडपन.
या शायद प्रधानता,
चाहता हो तुम्हारा मन.

पर देखो,समझो,
कभी मेरी कही भी.
ना बनो दुष्यंत,
शकुन्तला नहीं मैं.

इसी दुनिया की हूँ.
अलौकिक कहना तुम्हारा,
ख़ुशी नहीं देता,
कचोटता है मुझे.

जब तुम उतारोगे,
इस मोहिनी चोगे को.
वो टीस मेरे पोरों से,
फट फट के निकलेगी.

देखो ना मैंने तो,
बस प्रीतम कहा तुम्हे.
अपना समझो बस,
और कुछ नहीं माँगा.

कब बनाया मंदिर,
कब सजाई मूरत.
जो कभी तोड़ कहूँ,
तुम्हे पत्थर का सनम...............

यकीन...मेरा तुम्हारा...


उदय दिवाकर,
आज हुआ है।
शर्त लगा लो,
पश्चिम से।

उसने कहा था,
ना आऊं तो।
सूर्य उगेगा,
पश्चिम से।

गंगा का पानी,
ना छुओ।
कल-कल ये,
ना करती है।

उसने कहा था,
प्रेम बहेगा।
जब तक,
धारा बहती है।

अनल में ज्वर,
और जल में कम्पन।
किंचित भी,
पर्याप्त नहीं।

उसकी सौगंध,
रहनी थी व्यापक।
जब तक होते,
पावक-नीर समाप्त नहीं।

उसके वचनों की,
खातिर मैंने।
अम्बर धरा,
भुलाई है।

जाने उसने,
कैसे शक कर।
मुझमे आग,
लगाई है.


तिनका तिनका झड़ पड़े,
लट्ठ सहज बलवान।
लेकिन किसको तैरना,
जल को इसका ज्ञान।

पीर से पूरा भीग के भी,
तिनका आता काम।
उसको देता तैरने,
नीर का कृत्य महान।

धारण खुद में कर सके,
करे इच्छित कल्याण।
भार हीन बन जाए वो,
और पाए सम्मान।

लट्ठ काट जब नाव बने,
छोड़ दंभ अभिमान।
धारा सीना चीर के,
मार्ग दे स्वयं तमाम.

क्षणिकाएं...(धूप)



समय...


कल भी तुम,
धूप ही थी.
मैं था तुम्हारा,
"अपना" बादल,
हम सावन थे.
अब या तुम हो,
या बस मैं हूँ.
उफ़ यह सफ़र,
कार्तिक से जेठ का.


ऐसे ही...

बीते चार दिनों से,
धूप का एक टुकडा,
तक नहीं दिखा.
आज आई भी तो,
कुर्सी निकालते निकालते,
चली गई.
तुम भी तो यूँ ही,
आते थे ना?



गुण...

ताकत से सब,
भले डरें.
स्नेह नहीं,
पर वारें.
धूप जेठ की,
निपट अकेली.
सब अपलक,
शरद निहारें.



अब्बा...

हर तपती धूप में,
अब्बा घनी छाँव हैं.
चलते हैं साथ जहां,
जाते मेरे पाँव हैं.
कड़ी दोपहरी में जब,
परछाई साथ नहीं होती.
वो ही मेरा घर,
कुनबा, बस्ती गाँव हैं.



याद....

कमाल है ना?
तीन साल हुए,
जब तुमने ऐसी,
ही किसी धूप में,
अमरुद खिलाये थे.
बीज अब तक,
दांतों में फंसे हैं.
इन्हें निकालूं तब तो,
तुम्हे भूलूं ना?




सलाम दोस्त....

एक मशाल है,
मेरा दोस्त.
छुपा आसमान के,
एक टुकड़े के पीछे.
बुझ जाता है,
बनने को बादल,
जब तपता हूँ मैं.
और कभी जलता है खुद,
देने मुझे धूप.




माँ......

यक़ीनन उसकी सांस,
दुआ है जो.
रखती है मुझे,
महफूज जिन्दगी की,
अल्ट्रावायलेट किरणों से.
माँ फिर भी,
आक्सीजन ओजोन में,
फर्क नहीं जानती.

मेरी गली...


अच्छा माँ चलता हूँ,
फिर जल्द ही आउंगा.
अपना ख्याल रखना,
दवा वक़्त पर लेना.
व्रत कम रखा करना.
मानोगी तो नहीं पर,
ठन्डे पानी से मत नहाना.
शाम को शाल ले कर ही,
बाहर निकला करना.
फोन करना अम्मा,
मैं भी करता हूँ,
बस वहाँ पंहुचते ही.

बडबडाता हूँ जाने कैसे,
रोकने के लिए आँसू.
जो होते हैं आमादा,
अम्मा के पास रहने को.

नहीं रुकते पर माँ से,
वो गिरा देती है नमक.
चख लेता हूँ उन्ही को,
कुछ कहने को बचता नहीं.

हर कदम कदम पर,
देखता हूँ मुड़ के.
वो भरी भारी आँखें,
वो हिलता हाथ उनका.

उफ़ यह तल्ख़ एहसास,
मुश्किल से चलना मुड़ना.
उस वक़्त वो गली जाने,
कितनी लम्बी लगती है.

गली मुड़ते ही एहसास,
माँ से चिपक जाते हैं.
काश ये गली थोड़ी,
लम्बी हुई होती.

लघुगीत...


मैं शोर मचाता रहता हूँ,
बिलावजह कान खाता रहता हूँ.
तंग करता हूँ तुम्हे,
सर्दी की दोपहर में.
पर सच कहूँ तुमसे?
दावा नहीं करता की,
तुम्हारा मनमीत हूँ.

बनाता हूँ चित्र तुम्हारे,
कहता हूँ बेढब से गीत.
मीन-मेख तुम्हारे,
कपड़ों के रंगों में.
पर यकीन मानो मेरा,
दावा नहीं करता,
तुम्हारा जीवन संगीत हूँ.

ऐसा नहीं की लगाव,
कम है मुझे तुमसे जरा भी.
यों तुम गीता हो मेरी,
पर मुझे आकाँक्षा नहीं.
पर कभी उदास हो,
तो गुनगुना लेना.
मैं लघुगीत हूँ.


स्मरण मुझे मत रखना,
नहीं हूँ कोई मैं राजा.
मेरी हार-जीत या क्षय से,
किसे फर्क पड़ने वाला.

सौ घट-गुम्बद, कोट तमाम,
गज शिख बैठे राजा की शान.
मैं हूँ सिपाही धूल का,धूल में,
जीत के भी मिलने वाला.

गर्त से खींचा,रक्त से सींचा,
शमशीर,गदा, बल मंजूषा.
अग्निबाण नहीं था केवल,
हाथ में था बरछा भाला.

स्वर्ण का कुंडल नहीं था मेरा,
लोहे की तलवार थी बस.
खून बहाया मैंने अपना,
कवि ने राजन राजन लिख डाला.

अनुरोध नियति से.....


मोड़ लेने दो मुझे,
धोती तनिक अपनी.
उतर लूँ जरा,
घुटनों तक गंगा में.

भर लेने दो अंजुल,
गंगाजल से मुझे.
देने दो फिर अर्घ्य,
आज दिवाकर को.

करने दो आचमन,
लेकर रुद्राक्ष हाथ में.
तुलसी कोट की,
परिक्रमा लगाने दो.

बजा लेने दो फिर,
आज मुझे शंख.
टेकने दो मत्था,
नंदी-कार्तिकेय को.

गणपति की सूँड,
आँखों से लगाने दो.
एडियाँ उठा कर,
घंटियाँ बजाने दो.

करने दो प्रज्ज्वलित,
सहस्त्र दीपों की आरती.
मुझे इन पावन,
सीढीयों पर आने दो.

देखने तो संध्या अरुण को,
भागीरथी में मोक्ष पाते.
तनिक यह शांतनु,
मुझे कंठ लगाने दो.

शिवालों घडियालों में,
रहने दो मुझे.
मोक्ष ना दो फिर,
मुझे काशी जाने दो.


रंग बसा करते,
हैं नयन में,
नेत्र अलग अलबेले.

ज्योति रवि की,
वही रहे है,
नयन ह्रदय बस खेले.

किसी को सुन्दर,
किसी को क्रंदन,
इस दुनिया के मेले.

अक्ल चेतना,
अनुभव मिमांसा,
और विषय का ज्ञान.

रंग दिखाए,
सही मनुज को,
दे सटीक अनुमान.

क्रोध दंभ हो,
हावी तो सब,
रंग श्वेत और श्याम.

नहीं विवेक की,
शक्ति जिसमे,
मनुज नहीं वह श्वान.

बरमुडा ट्राईएंगल


वो जो धीरे से,
आ जाते थे तुम.
पीछे से पलक ढाँपने,
अब क्यूँ नहीं आते.

वो जो कहा करते थे,
बातें अपने दोस्तों की.
जिनके नाम तक नहीं जानती,
अब क्यूँ नहीं सुनाते.

सब कुछ ही तो ठीक था,
यों ठीक अब भी है.
पर मैं भी ठीक हूँ,
ये पूछ क्यूँ नहीं जाते.

कैसे बुनती हूँ मैं फूल,
फिरनी बनाने की विधि में,
अब भी पारंगत नहीं मैं,
पर क्यूँ छेड़ नहीं जाते.

कभी मैं ही थाम लूँ,
तुम्हे देखने भर को दो पल.
"काब वेब में उलझा हूँ "
कह के ठहर नहीं पाते.

पहले तो न था ये,
"काब वेब" इतना जटिल.
कह ही डालो मुझे "काब",
सच क्यूँ कह नहीं जाते.

चलो अब मैं निकलती हूँ,
तुम्हारी यादें डूबोने को.
कहीं तो मिल ही जाएगा,
मुझे भी बरमुडा ट्राईएंगल.

ऊँचाई....


अम्मा जानती हो,
आज शहर की,
सबसे ऊँची इमारत,
की छत पर खडा,
लिख रहा हूँ.

कोई दो-तीन सौ,
फीट ऊँची है.
चींटी जैसे है,
सब लोग सामान,
नीचे सड़क पर.

लेकिन माँ पता है,
इतनी ऊँचाई से,
डर नहीं लगता है.
बल्कि ऊँचाई महसूस,
तक नहीं होती.

बचपन में अपने,
घुटनों मुझे उठा,
जाने कितने ही,
आसमान दिखाए,
तुमने अम्मा.

बच्चा था अम्मा,
बस खिलखिला भर,
देता था मन मेरा.
तेरे साथ डर तब भी,
नहीं लगा कभी.

अच्छा अम्मा अब,
इतनी ऊपर हूँ तो,
कह लूँ जरा,
खुदा को शुक्रिया,
खुदा के लिए.


खुद से खुद निकाल,
जाने कैसे दिया,
होगा उसने मुझे.
हाँ माँ मेरा खुदा,
तुम ही तो हो.

शौर्य......


हूँ आर्य नहीं,
ना पुरु हूँ मैं.
ना शुक्र कोई,
ना गुरु हूँ मैं.

ना राजन कोई,
विलासी हूँ.
घनघोर ना घट,
सन्यासी हूँ.

मैं रागों का,
आकार नहीं.
ना गीतों का,
अभिलाषी हूँ.

ना शम्भू सम,
हैं तीन नयन.
ना शेष शयन,
निवासी हूँ.

अली गुंजन का,
मद्धिम शोर नहीं.
कोई फागुन की,
भीनी भोर नहीं.

ना रिमझिम रिमझिम,
बरखा हूँ.
ना मथुरा हूँ,
ना काशी हूँ.

हूँ प्रखर नाद,
मैं तुरही का.
अश्वों की टाप,
का साथी हूँ.

नेपथ्य से आया,
योद्धा हूँ.
रणभूमि का अचल,
निवासी हूँ.

सातों सुर मेरे,
बाण ही हैं.
टंकार राग,
अभिलाषी हूँ.

जेठों के जलते,
झाड में हूँ.
मैं शीत में हूँ,
और बाढ़ में हूँ.

हूँ क्रंदन में,
नीरवता में.
फट कर गिरते,
आषाढ़ में हूँ.

हूँ क्रोधी एक,
छलावा हूँ.
मृत्यु को यम,
का बुलावा हूँ.

हूँ विजय भी मैं,
और विजय का पथ.
साहस हूँ मैं,
अविनाशी हूँ.


रात की बातें,
चाँद के हाथों.
अम्बर ने,
भिजवाई थी.

सुबह सूर्य ने,
बातें वापस.
नभ पर ही,
छितराई थी.

चाँद की बोरी,
सूर्य की बोरी.
क्षितिज ने कहीं,
धुलाई थी.

मेरा क्या है,
सब है व्योम का.
मेरी तो तनिक,
लिखाई थी.

स्याही घोली,
जिस पानी में.
वो उसी ताल,
से आई थी.

सन्देश.....


मंदिर के जीने,
की कतारें.
मस्जिद की,
सीढ़ी सी हैं.

रजिया है,
मेरी मुनिया सी.
कैफ की बात,
जिगरी सी है.

मेरे अब्बा,
अकरम के पिताजी.
एक ही शेविंग,
क्रीम लगाते हैं.

रुकुह अता करते,
हैं राम को.
मौला को शीश,
नवाते हैं.

अरुणा आपा,
नर्गिस दीदी.
दोनों का कालेज,
एक ही है.

चार साल से,
बी ए में हैं.
दोनों का नालेज,
एक ही है.

मेरी अम्मी,
सलमा मौसी.
दोनों की रसोई,
जलवा है.

यहाँ पकौडे,
छाने माँ ने.
मौसी ने बनाया,
हलवा है.

मुसलमान का,
मतलब क्या है.
और हिन्दू का,
धर्म है क्या.

इनबातों में,
क्या रक्खा है.
बेफजूल का,
मर्म है क्या.

अश्क चार जब,
मिलें अश्रु को.
आनंद हाथ दे,
जिस रोज लुत्फ़ को.

वो इक पल है,
सौ युग जैसा.
वरना सदियों,
जीवन क्या है.

सुर....


जब सभी वाध्य,
हों यथास्थान.
सुगन्धित इत्र हो,
वायु में घुली.
सुख चारण बन,
पंखा झलें.
रसित ग्रीवा के,
हों मधुर गान.
उन्मादों का,
नाद हो जो.
रति काम का,
थाप हो जो.
मीठी सी जब,
शहनाई हो.
बहती हलकी,
पुरवाई हो.
कुछ धीरे से,
अम्बर छलके.
और पुष्प हिलें,
हलके हलके.
ऐसे सुर प्रभु,
मुझे मत दो.

ये रुधिरों में,
जम जाएँगे.
मेरी ही त्वचा,
को खाएँगे.
जो देना हो,
तो आतप दो.
पछुआ लू की,
सन्नाहट दो.
टनकारें नाम,
करो मेरे.
घनघोर घटा,
गडगडाहट दो.

अरुणाई का,
शंखनाद दो.
संध्या की मुझे,
दुन्दुभी भी दो.
बैलों के गले,
की टन-टन दो.
कभी रंहट की,
खड़-खड़ दो.
घप्प घप्प ,
कुदालों की.
मुझे स्वेद की,
टप-टप दो.

ऐसा सुर मत,
देना मुझको.
जो पौरुष से,
बिलकुल रीता हो.
सुर ऐसा दो,
बन रक्त बहे.
हो महाबली,
पर मीठा हो.

पत्र विन्ध्य को....


महसूस ही नहीं होता,
तुम्हारा होना ना होना.
पठार तक भी तो,
नहीं बचा है तुम्हारा.

सपाट गांगेय मैदानों से,
तनिक ही कठोर हो.
फिर भी गेंहू ना सही,
वृक्ष सानिध्य में हो तुम.

सच ही तो बस,
ऊपर से ही कठोर थे तुम.
पहले भी जब तुमने,
उंचा उठने की हठ की थी.

कितनी सुघढ़ थे तुम,
अकेले दम पर खड़े.
तुम्हे कब चाहिए थी,
श्रृंखलाएं मेरी तरह.

बालक था मैं भैया,
अब समझ पाता हूँ.
जब तुम उठने लगे थे,
सूर्य से भी ऊपर.
वह दंभ-हठ नहीं था,
जम्बुद्वीप बचाया था तुमने.

यों तो ना जा पाता,
मैं तुमसे ऊपर कभी.
तो तुमने ही रचा,
आगमन अगस्त्य का.

तोड़ सकते थे तुम,
वचन अपना किसी क्षण.
परन्तु मनीषियों के देश को,
बचाए रखा तुमने वक्ष पर.

काश तुम उठते भाई,
अगस्त्य वापस ना आयेंगे.
परन्तु नहीं कहूंगा,
तुमसे तोड़ने को मर्यादा.

झुक के चरण छू लूँ,
इतना सामर्थ्य भी नहीं.
समर्पित करता हूँ अश्रु,
चरणों में मानसून भेजा है.

.........आपका अनुज, हिमालय

दो विदा...

अब मत पकडो पतवार मेरी,
धारा को ऊपर आने दो.
अंजुरी से नदी घटेगी नहीं,
मुझको अब डूब ही जाने दो.

मैं नहीं दोष तुमको देता,
ना रोष नियति पर खाता हूँ.
किन्तु अनचाहा गीत सही,
जो बजता है बज जाने दो.

ऐसा तो नहीं की कहा नहीं,
तुमने जो कहा वो सुना नहीं.
किन्तु वायु ही घाती थी,
तो मुझे घात यह खाने दो.

समझो ना है संदेह मुझे,
होने का तुम्हारा अग्निशिखा.
लेकिन मैं कोई दीप नहीं,
हूँ शलभ, भस्म हो जाने दो.

ना रक्त तेरा न रक्तिम हूँ,
ना की मैं धरा पर अंतिम हूँ.
मिल जायेंगे सौ मीत नए,
तेरी अप्रतिम प्रीत को पाने को.

अब अम्बर अम्बुज कहो नहीं,
मुझे सूर्य-ध्रुव का नाम न दो.
ज्योति से पीडा होती है,
मुझे तिमिर में अब घुल जाने दो.

जो कही नहीं तुमने मुझसे,
या कही तो मैंने सुनी नहीं.
ऐसी बातों में क्या रखा,
उन्हें अंतः में सो जाने दो.

यायावर हूँ अज्ञानी हूँ,
अक्खड़ हूँ तनिक अभिमानी हूँ.
अब त्याग कहो या कहो अहं,
मुझे फिर से पथिक हो जाने दो.

मुझे कहे सोना, चाँदी,
राजा बेटा, फूल.
हीरा, मोती, पन्ना,
समझ नहीं पाती है.

जाने कितने दिनों से,
सोच कर रखी.
सहेजी बताने को,
अनजानी बातें अनकही.

जब बैठती है,
जुगाड़ सब लिखने.
दवात कागज़ कलम में,
चेहरा मेरा ही पाती है.

देती है भर भर,
सात आसमान दुआएँ.
लेती है अपने पूरे,
आँचल में बलाएँ.

बात क्या थी,
लिखने बताने को.
सोचना तक भी,
भूल जाती है.

बाबूजी ही मुझे,
लिखा करते हैं चिट्ठियाँ.
छुटके के नखरे,
अम्मा की बतियाँ.

माँ को कागज़,
पूरा नहीं पड़ता.
आँचल पे लिख के,
मेरा आसमान बनाती है.

तुम्हारी कीलें...

बीती बारिश छू कर,
मेरी अँगुलियों को,
जाने कैसा कैसा,
कर दिया था मन.

अंतस तक उतर,
गए थे तुम.
बना लिया था,
घर वहाँ तुमने.

बड़े ठाठ से,
रोज धडकनों पर.
चढ़ कर उतर कर,
आते थे तुम.

और दिन में मैं,
सहेजती थी,
खुशबू तुम्हारी,
आत्मा के आस पास.

ना रहे सुध और,
तकलीफ हो तुम्हे.
बिना साँसों के,
चढ़ने हिय तक.

अपलक कई शामे,
काटी मैंने सावन में.
यकीं मानो फुहार बहार,
सबसे बेखबर.

तुम्हे पलकों से,
आँखों में उतार.
फिर करीने से,
दिल में रखना.

बड़ा पुरसुकून था,
ये सब कुछ ही तो.
तुम भी हमेशा,
खुश ही दिखते थे.

जाने क्यूँ फिर,
उस रोज तुम.
लाये खरीद कुछ,
कीलें संदेह की.

कह देते मुझसे,
रोक के साँसे अपनी,
मैं तान देती नसें,
तुम्हारी अलगनी को.

पर तुमने मर्म को,
एक एक कर,
बेध दिया न,
बिना परवाह किये.

जाना था तो,
चले जाते चुपचाप.
क्या जरुरत थी,
बेध के जाने की.

देखो ना सर्दी में भी,
मैंने दस्ताने नहीं पहने.
शायद आसमान छलके,
शायद तुम आओ...
फिर अंगुलियाँ छूने...

चक्कर थोड़े का....

चाहा सभी ने,
है तो थोडा ही.
के थोडा और होता,
तो थोडा अच्छा था.

थोडी और खुशियाँ,
थोड़े और सुख,
जुटा पाते हम.

दिखा पाते थोड़े,
और लोगों को,
थोडी और चीजें.

थोडी और मेहनत,
थोडी और बचत,
थोडा और त्याग,
थोडी और चोरी,
थोड़े और कस्ट,
थोड़े और दिन,
चलो सहते हैं.

थोडी सी है जिन्दगी,
चलो थोडा और,
रोज मरते हैं.

करो भरोसा....

मूज के दो हाथ दे दो,
एक कच्चा बाँस दो.
छील लूंगा बाँस को मैं,
हँसिया मेरे हाथ दो.

तान दूंगा मैं धनुष अब,
मोड़ के इस बार तो.
बाण लाऊँगा बना बस,
धीर को विस्तार दो.

है नहीं गांडीव तो क्या?
ना अक्षय तूणीर तो क्या?
कर्ण मत समझो मुझे पर,
बस तनिक विश्वास दो.

नहीं मुझमे सूर्य उष्मा.
हाँ नहीं है वज्र सुषमा.
मुझमे रघु का तत्त्व नहीं है,
पास हैं बस हाथ दो.

किन्तु साथ पुरुषार्थ मेरा,
साहस है भावार्थ मेरा.
बाँध दूंगा यह तिमिर मैं,
दीप मुझको नाम दे दो.

मैं-तुम ...(छोटी कविता..)

तुम्हारा तुम होना,
लगता है मेरे,
मैं होने के जैसा.
मेरा मैं होना,
पसंद नहीं मुझे.
ना ही तुम्हे,
तुम पसंद हो.
दे दो मुझे तुम,
मैं तुम्हे मैं,
देता हूँ आज.
तो लो रखो मुझे,
मैंने भी तुमसे,
तुम लिया.
कल से मिलेंगे,
'हम' गंगातीर.

कल रात जब,
व्यस्त थे तुम.
चाँद के साथ,
दिल की बातों में.
और पकडे पकडे,
उसका हाथ.
चले आये छुपते-छुपाते,
बादलों से.
ताक में था मैं,
ताल किनारे डाले जाल.
फाँस ही ली थी मैंने,
परछाई तुम्हारे चाँद की.
हंगामा बरपा अल्ल सवेरे,
परछाई तो नाराज थी ही,
सूरज तक ने भौंहें तानी.
मेरा जाल तक मुझे,
धोखेबाज कहता है.
माना मैंने चाँद तुम्हारा,
चाँद की है ये परछाई.
मेरे से ना जायेगी रखी,
लो, संभालो भाई.

इस शहर में कई पत्थर,
लोग मुश्किल, लोग पत्थर.
जीवटों से पटी धरा है,
धरा पर हैं अटे पत्थर.

कुछ अलग हैं खड़े पत्थर,
प्यार से कुछ सटे पत्थर.
हर शहर में अमूमन,
यहाँ वहाँ कहें पत्थर.

किला कोई जो बनाए,
परकोटे जमा खिंचाये.
बुर्ज हाँ जब भी बनाए,
चुने हमें ही वो पत्थर.

आओ मेरे शहर आओ,
यहाँ भी हैं वही पत्थर.
बुर्ज कईयों को लुभाए,
चढ़ अटारी सजें पत्थर.

किन्तु कोई कह रहा है,
भाई मुझपे चढ़ के जाओ.
मैं धरुंगा इस धरा को,
गगन तुम छू जाओ पत्थर.

भुजा जिसकी बल भरा हो,
ह्रदय बस धीरज धरा हो.
भार सकता है उठा जो,
है परम का पूत पत्थर.

धरा जिसको प्यार सौंपे,
धरण का अधिकार सौंपे.
बुर्ज को वो ही बचाए,
झंझावातों अड़ा पत्थर.

गर्व कब तलवार में है?
गर्व कब अधिकार में है?
सबसे पहले पग बढाए,
गर्व उस व्यवहार में है.

लो ये मैंने लोभ छोडा,
दंभ का ये बुर्ज तोडा.
गर्व मेरा नींव में है,
नींव का मैं स्वर्ण पत्थर.

अंतस में हमेशा,
घुलते हैं जो.
बंद पलकों में ही,
खुलते हैं जो.
नीरव दिवस में,
जो हैं पलछिन.
ऐसे ही होते हैं,
काठ के फूल.

जो नहीं सजा करते,
जूडे में रजनीप्रिया के.
जिन्हें नहीं कर पाते,
स्वीकार स्वर्ग के देव.
रहते हैं मुरझाये,
ना खिलते किसी दिन.
चुप चुप से रोते हैं,
काठ के फूल.

जो हर रात स्वप्न में,
देता हूँ तुमको.
हाथों से तुम्हारे,
मैं लेता हूँ जिनको.
जो हैं नितांत मेरे,
पड़ें ना दिखाई.
मेरी साँसों में जलते हैं,
काठ के फूल.

नेक तालीम....

था तो होशियार ही,
सबसे मदरसे में.
स्कूल में भी वो,
अव्वल ही रहा.
काबिलियत के पर,
क़तर ना सकीं.
मोटी पतली मुश्किल,
किताबें कालेज की.
नाज अब्बू का,
उस्तादों का ताव.
अम्मी का सुकून,
यारों का लगाव.
इंसानी जज्बात और,
रूहानी अल्फाज के बीच.
बस एक गलत लफ्ज़,
पढा था उसने.
आज भी जब,
होती है शिकायत.
गिले की जगह जुबान,
दुआ ही पढ़ती है.


1)

अब हटा दो काफिये,
गजलें मेरी तनहा हुई.
चाँद की बस रात है,
है चाँदनी रुसवा हुई.

2)

आजकल व्यस्त बहुत हैं,
बहाना-ए-आम है उनका.
सब आसमान से स्याही,
चुराने की कवायद है.

3)

एक एक कर मिटा दी,
हर धारी हथेली की.
देखने की जिद थी बस,
कब जाते हो तुम छोड़ के.

4)

के अब महरूम हूँ तुमसे,
या हूँ मरहूम दुनिया में.
मुझे मात्राओं के अंतर,
नहीं महसूस होते हैं.

5)

निगाहों में हया सी कुछ,
जुबान में पाकीजगी सी है.
कलम के देखिये जलवे,
हवा से बात करती है.

6)

अमूमन तो सात दिन,
हुआ किये हफ्तों में अब तक.
पराये शहर इतवार कुछ,
ज्यादा ही दूर लगता है.

विष.... (क्षणिकाएं...)

संदेह....

बहा दो आज या,
भर दो शिराओं में.
हो जाओ स्नेहिल या,
होने दो मुझे दिवंगत.
ना रखो या रखो मुझमे,
अब यह संदेह गरल.



विष-स्वभाव....

सिर्फ करैत या,
गेहुंमन ही नहीं.
विषैले अधिकतर,
होते हैं विचार,
इर्ष्या, द्वेष और,
कटुता-हीनता के.
बच सकता है मनुज,
रखे अगर एंटीडॉट,
धीरज और स्नेह की.




घनत्व.....

या तो प्रेम या विद्वेष,
मेरे गीत एक रंग हैं.
आखिर अलग है घनत्व,
मेरी स्याही, तुम्हारे विष का.
भले एक दवात में,
रखे एक संग हैं.



रूप.....

जो हो कटु,
आवश्यक नहीं की,
हो जहर ही हमेशा.
परिस्थितिवश कभी-कभी,
मनीषियों की होती है,
करेले सी वेशभूषा.



अंतर....

अंतर है रखने,
और करने में धारण,
भले ही मामूली.
समस्त चराचर मगर,
इसी अंतर के चारण.
विष रखें है सभी,
करें बस शम्भू धारण.




अम्मा....

तुममे विष तो ,
है नहीं लेशमात्र भी.
हाँ पीते गरल,
देखा है तुम्हे अक्सर.
तंतु तुम्हारे प्रेम के,
बना देते हैं उसे सुपाच्य.
हलाहल भी अक्षम है,
तुम्हे नीलकंठ बनाने में.

गीत....

कटु हार को,
जीत लिखा.
हर परिस्थिति में,
गीत लिखा.

मान दिया और,
प्रीत लिखा.
तुमको ही बस,
मीत लिखा.

तान तुम्हारी,
ह्रदय बसा के.
सरगम और,
संगीत लिखा.

अम्बर तुमको,
जो भाया तो.
मैंने नभ पे,
गीत लिखा.

साथ थे तुम तो,
पराग दोहे.
विरह में क्रंदन,
गीत लिखा.

तुम प्रिय हो,
प्रिय याद तुम्हारी.
मैंने सपनो के,
बीच लिखा.

कभी ख़ुशी में,
कभी किलकारी.
और कभी तो,
चीख लिखा.

कभी वजह,
बेवजह कभी.
बिना वृक्ष के,
बीज लिखा.

आज तो चाहा,
नहीं था मैंने.
कलम ने खुद ही,
सीख लिखा.

गाते दीपक, जगमग गीत....

उतार दिया तरकश,
खोल दी प्रत्यंचा.
रोष तो था ही नहीं,
क्षोभ भी बहाने लगे.

अपने कष्ट रख दिए,
तनिक ताक पर.
बैठ कर राम बेर,
शबरी के खाने लगे.

अंतस प्रसन्न न था,
पेशानियों पर छुपाया मगर.
जब देख निरीह स्नेह,
हुए विह्वल औ मुस्काने लगे.

जल उठे थे गीत,
हिय में शबरी के,
जले-बुझे हर दीप,
उस दिवस गाने लगे.

जब होती है क्षमा,
दया, मिठास ह्रदय में.
हर रात दिवाली सी,
झमक जगमगाने लगे.

मौसम....

बीती बहार में,
तीन पंखुडियाँ चुरा,
लीं थीं तुमसे मैंने।
कल तुमने वादा,
हक़, याद तक,
छीन ली मुझसे।
माह-ए-अक्टूबर,
पतझड़ है मेरा।



गीली नज़्म...

कूची उठाई,
घोले रंग।
मुझसे मेरे,
बोले रंग।
नज़्म चितेरे,
गीत रचयिता।
आज हमारे,
कैसे संग?
कह दूँ कैसे,
कोई मांगे।
रंगीन दोहे,
गीली नज़्म।



वजह......

अम्मा चूडियाँ तो,
उतार लिया करो,
मारते वक़्त मुझे।
मुझे तो लगती नहीं,
तेरी कलाईयाँ,
कट जाती है।
पापा कहते हैं,
माएँ प्रायश्चित,
करती हैं पहले,
फिर गुस्सा जताती हैं।



समझ का फेर....

थे सद्गुणों के,
सुविचारों और,
सौम्य जीवन के घोतक।
आचरण मनीषियों के।
आचमन का ठठा कर,
अपमान किया।
परफेक्ट प्रेशर शावर,
लगवाने वालों ने।


अक्षमता....

सदा मधु-उल्लास,
ही नहीं होती,
कूक कोयल की।
बस भेद नहीं,
कर पाते हम।
काश यही अक्षमता,
आ जाती हममे,
माँ-पिता मित्रों हेतु।



भौतिकता...

पुलकित हिय के,
गीत को जलाने।
काफी हैं तुलना के,
तनिक पैमाने।
मन के रच नहीं,
चाहिए रखने।
भौतिक बाट पर...........
सब  समझे...कौन जाने...???

बाँझ...

अविरल तेरा ज्ञान मनुज,
है अप्रतिम तेरी सोच।
कीर्ति फैली चंहू दिशा में,
सकी ना कस्तूरी खोज।

जिस पिता का एक निवाला,
कल तक था बुड्ढा बोझ।
उसके भूखे मरने पर देता,
सौ ब्राम्हण को मृत्यु भोज।

इक चौरा तुलसी का अंगना,
और तनिक गंगाजल।
माँगा नहीं कभी था तुझसे,
माणिक जडित धरातल।

क्यूँ पढ़ डाली गीता तूने,
दिए काण्ड सब बांच।
स्नेह नहीं वारा जीवन में,
अब देता चन्दन आँच।

उसका तरण भला हो कैसे,
खेवे कौन भव नैया।
दंभ में देता, ना के शोक में,
बेटा दान में गईया।

ऐसी संतति की उत्पत्ति,
से अच्छा है रहना बाँझ।
दिवस में ही संज्ञान रहेगा,
कब है उतरनी साँझ.

अधूरा उपन्यास....

निकल के चौदहवें,
पन्ने से अहा.
अपने धानी लिबास में,
वो आई निशा ओस नहा.

मैं हाथों में लालटेन धरे,
उसे बस एकटक देखता रहा.
चमकती रही वो बेइन्तेहान,
मैं भी बेपनाह जलता रहा.

मैं तो सब जानता हूँ,
गम सारे, खुशियाँ भी सभी.
कहो तो बदल डालूँ सारे,
किरदार सभी नाम अभी.

सोचा के पूछ लूँ ये नाम,
ठीक है की नहीं.
पर ना मैंने ही कहा,
ना बात कोई उसने कही.

मुझे खटका तो लगा,
ऐसा ना पहली बार हुआ.
मेरे दूसरे उपन्यास की नायिका,
को भी मुझसे प्यार हुआ.

सुबह उपन्यास के पन्ने,
थे बिखरे चारों तरफ.
जैसे हो रात में,
रद्दी का कारोबार हुआ.

हाथों की लकीरें....

एक टेढी, एक सीधी,
दो टूटी, कुछ खुरची.
कुछ मोटी, कुछ पतली,
कभी बँटती, कभी जुड़ती.
मेरे गाँव की पगडण्डी सी,
है मेरे हाथों की लकीरें.

वो हथेली के तीन अन्गुलद्वीप,
जैसे खेत हों सुजानसिंह के.
छोटे हैं पर कर्मठ छालों से,
लहलहाती है सरसों की बाली.

अंगूठे के ठीक नीचे ही,
जो बड़ा मैदान है ना?
बाँध रखा है जीवनरेखा ने,
जिजीविषा के अठान से.

हाँ वही सूखे से कटा-फटा,
पर मेघ आयें ना आएं.
हल तो चलेगा औ यकीनन,
गेँहू उपजेगा इस बार.

और कलाई के पास,
भरा इलाका है भाग्य का.
वहां हम सब्जियाँ उगाते हैं,
मौसमी नसीब का क्या भरोसा.

कभी फसल अच्छी हो जाती है,
तो रब की हज़ार मेहर है.
वरना मेड़ों पर हथेली किनारे,
आम हैं अचार के लिए.

इस साल नहीं हुई बरसात,
देखो बीच हथेली का गड्ढा.
कई नहरे नालियाँ बनाई हैं.,
अबकी धान ना सूखने देंगे.

जब भी बहुत याद आती है,
खोल लेता हूँ हाथ अपने.
मेरे गाँव की पगडण्डी सी,
है मेरे हाथों की लकीरें.

रुदन योद्धा का....

गीत प्रीत के,
तुम पर वारूँ.
ह्रदय नयन सब,
तुम पर हारूँ.

दे दूँ तुमको,
रवि सुधांशु.
या स्वर्ण मृग,
कहो तो मारूं.

ऐसे वचन मैं,
दूं तो कैसे.
सामर्थ्य अपना,
कैसे बिसारूँ?

यह सब मुझसे,
कभी ना होगा.
कैसे मैं ओढूँ,
प्रणय का चोगा?

ऐसा नहीं की,
प्रेम नहीं है.
वृक्ष ह्रदय का,
ठूंठ नहीं है.

लेकिन इस योद्धा,
की नियति.
है दुंदुभि,
शहनाई नहीं है.

रण ही मेरा,
निर्वाण बना है.
अब और कोई,
अस्तित्व नहीं है.

दूजी का तुमको,
स्थान ना दूंगा.
मान ना दूँ,
अपमान ना दूंगा.

या तो मृत्यु,
वरण करेगी.
या ये खडग,
ही साथ रहेगी.

बस नीलकंठ,
मत कहना मुझको.
कंठ में यूँ तो,
गरल धरुंगा.

अमर नहीं हूँ,
मैं शंकर सा.
इस विष से ही,
कभी मरुंगा.

छुटकी....

खींच के देना एक,
अल्लटप्प मेरे सर पर.
और भाग जाना,
कूद के जंगले से.

कितने पग्गल हो,
घोंचू चिल्लर तुम.
निपोर देना खें-खें,
अट्ठाईसी अपनी.

बनाना जोड़ी मेरी,
हर झोल-छबीली से.
रखना खुद के लिए,
सलोना राजकुमार.

नोच देना पोस्टर,
द्रविड़-नागराज के.
चुरा लेना बबलगम,
हाजमोला गोली छोड़ के.

उतरवाना खीर मुझसे,
छींके पर चढा.
नींद में मुझे लगाना,
नेलपॉलिश पैरों में.

तेरी बतियों का जो,
झब लगता था.
सच रे छुटकी,
रब लगता था.

आँगन आज,
उदास पडा है.
जो तेरी दमक,
रोशन लगता था.

तुमसे नाता...

बड़ा अच्छा लगता है,
आना चुपके से हर रात.
तोड़ देना दो बाल,
तुम्हारी पलकों के कोने से.

घुस जाना बंद आँखों में,
तुम्हारी बेआवाज ही.
बैठना ज़रा देर तक,
तुम्हारी आँखों के जजीरे पर.
अरे सुस्ताने का हक़,
मुझे भी है आखिर.

फिर चोरी से नहाना,
आंसू की उस एक बूँद में.
जो मेरी कसम पर,
तुमने लुढ़काई नहीं.

खेलना तुम्हारी बातों से,
तुम्हारे ही सपनों में.
पी लेना मीठी सी,
हंसी तुम्हारी लाबाबदार.

उफ़ सुबह होते ही,
जाग जाओगी तुम.
और मेरा नहीं होना बन जाएगा,
तुम्हारे आँखों की किरचन.

पर घबराओ मत तुम,
वो दो बाल हैं ना?
जो तोडे थे रात मैंने,
पलकों से तुम्हारी.

उन्हें हाथ में लो,
रात मांग लो एक बाल से.
और दूजे से रात में मुझको,
मैं फिर आउंगा......

मित्र सूरज....

भूल गया था ज़रा,
मैना का चहकना क्या है।
याद धुंधला गयी थी,
फूलों का महकना क्या है।

कैसी होती है कल-कल,
अमराई के ट्यूबवेल पर।
महुआ से महक कर,
पुरवाई का ठरकना क्या है।

क्या है पतली सी एक,
पगडण्डी पर सरपट जाना।
टिकोरों के कच्चे रस से,
होठों का जलना क्या है।

कैसे आ जाते हैं रक्ष,
सात सिरों वाले बार बार।
और नानी की कहानी में,
वीर राजा बनना क्या है।

गईया के दुहने से ले कर,
दूध की दही रबड़ी तक।
फोड़ सारे लड्डू मोतीचूर,
सच्चे मोती ढूँढना क्या है।

गनीमत है अब तक,
सुबह उठने की आदत बची है।
तुम भी मिल जाते हो,
हर रोज़ बिना नागा किये।

और मैं देख लेता हूँ,
तुम्हारे रोशन आईने में।
सच्ची हंसी के मायने और,
सुकून से रोना क्या है।

इन सड़कों पर भागते,
देर रात सोती भीड़ से।
एक सा खाते रोजाना,
सुबह शाम छिड़कते डियो।

ऐसी जिन्दगी से मुझे,
बचाने का शुक्रिया कहूँ।
या करूँ सजदा तुम्हे।
लोगे तो तुम दोनों ही नहीं..............दोस्त...

अम्मा की याद....

जब ब्लेड से नाखून काटते,
अंगुलियाँ कट जाती हैं।
जब नहीं छूटता दाग कालर का,
ख़त्म हो जाता है नमक,
उबलती दाल के बीच में।
जल जाती है चौथी भी रोटी,
सिर्फ तब ही नहीं,
अम्मा हर पल याद आती हैं।



अम्मा के नखरे....

कभी शंकर कभी,
चावल के कंकर।
अम्मा यूँ बेवजह,
भड़क जाती है।
उस दिन खीर-दलिया,
ही थाली में आती है।
ये वो दिन होते हैं,
जब नमक होता है,
दाल में ज्यादा या फिर,
सब्जी ज़रा जल जाती है।



अम्मा का प्यार....

मैंने पूछा जब अम्मा से,
इतना प्यार कहाँ से लाई?
अम्मा बोली चल रहने दे,
मुझे पर हल्का सा मुस्काईं।
लगा हैं जैसे अम्मा सागर,
और लहर मीठी टकराई।
सागर कहाँ गिना करता है,
कौन नदी कितना जल लाई?




अम्मा का घर.......

पिता पूज्य हैं,
तेज है भाई।
मेरी मईया,
गीता है।
ये सौभाग्य,
मेरे मानस का।
हर क्षण में,
कल्पों जीता है।




अम्मा का फैशन....

धमका के पापा को,
दे के हवाला होली का।
नाम ले के टूटी पायल का,
दिखा के चटकी चूडियाँ चार।
अम्मा ने फिर मुझे बुलाया,
और तनक के चली बाज़ार।
आ चल रे मुन्ना तेरे लिए,
नए जूते खरीद लायें।




अम्मा की आदत....

ये लाल, ये पीली,
हाँ काली वाली और,
हाँ वो बैंगनी सफ़ेद।
अरे वो केसरिया भी,
सबमे से एक एक दे दो।
माँ आज भी मेरी खातिर,
हर ताबीज खरीदती है।




अम्मा की रामायण........

घना जब जब,
होता है अँधेरा।
आती हैं बड़ी मुश्किलें।
माँ बन जाती हैं बालि।
और प्रभु श्रीराम तक,
माँ से डरते हैं।



अम्मा का गुस्सा..........

" आज खेलने गया तो,
टांगें वापस मत लाना।
वहीँ बैठ के जपना जंतर,
खाना भी नहीं मिलेगा।"
खूब पता है तेरा अम्मा,
भूखा बेटा कहाँ रहेगा।
आज रोटियाँ नहीं मिलेंगी,
गुस्से का घी पुए तलेगा.....

मैं पाषाण बन गया.......

तुम तो जीवनदात्री धरा थी,
मैंने चाहा तुमको पाना।
लेकिन जो है विहग प्रवासी,
उस पर कैसे रोक लगाना।
हुई आकांक्षा कटु सी मन में,
तुमको है नीचा दिखलाना।
बिन स्पंदन जो गीत लिखा तो,
देखो मैं पाषाण बन गया।

कितने कोपल भग्न हुए पर,
तुमने हर क्षण नीड़ सजाया।
तिनके मेरे खिड़की दरवाजे,
आँसू का तुमने जोड़ लगाया।
मैं इतराया, हद पगलाया,
तुमको तुमसे किया पराया।
अब तिनके छूता हूँ तो देखो,
हर तिनका ही बाण बन गया।

तुम्ही छवि थी, तुम थी छाया,
चन्दन तरु की कोमल काया।
कोयल जैसी पराग वाणी,
हंसी महा-माया की माया।
क्यूँ न प्रणय समझ सका मन,
प्रेम के बदले क्षोभ थमाया।
आग लगाई जो तुमको तो,
ह्रदय मेरा श्मशान बन गया।

युग गीतों के कितने चर्चे,
एक कहानी सौ सौ पर्चे।
ह्रदय से हैं मैंने चपटाये,
कभी ना तुमको गले लगाया।
काश के पढता नयन तुम्हारे,
जिनको कल्पों बहुत रुलाया।
आज मेरी आँखों का पानी,
आँखों से अनजान बन गया।

बिन स्पंदन जो गीत लिखा तो,
देखो मैं पाषाण बन गया।

मेरी अम्मा.........

रात तलक थी सीलन बदबू,
और गज़ब की बारिश थी.
आज सुबह की बात अलग है,
धूप धमक धड़क कर आई है.

भक्क झोंक दी सारी की सारी,
लकडियाँ चूल्हे में शायद.
अम्मा को लगता है मेरी,
याद बहुत फिर आई है.

अंगुलियाँ थिरक उठी करने,
आज फिर से टक्क-टनक.
मेरे बैगनी कंचों से शायद,
माँ ने फिर धूल हटाई है.

चुस्त सी थी पतलून मेरी जो,
फिर से कमर पर आई है.
यादों के धागों से की,
अम्मा ने आज सिलाई है.

रोशन मानस अधिक हुआ,
अंतस अधिक सुवासित है.
अगरबत्तियां ख़त्म हुई,
माँ ने बाती-धूप जलाई है.

नहीं बनायी रोटी मैंने,
सेंके आज पराठे हैं.
आज पराठों से आलू के,
खुशबू मेथी की आई है.

अम्मा को लगता है मेरी,
याद बहुत फिर आई है.

बिना तुम्हारे......

कुछ आषाढो पहले तक जो,
नयन तुम्हारी ज्योति थी.
बीते अगणित वारों से,
अब आँखों की किरचन है.

देवदार के पत्तों से ,
मैंने रात जलाई है.
तुमको दिन के उजालों में,
जाने कैसी अड़चन है.

गुलमर्ग के दर्रे पर,
नहीं उतरती थी चाँदनी.
अब उसके भी आने पर,
बर्फ में कैसी तड़पन है.

गीत तुम्हारे बहते थे,
झेलम और चेनाबों में.
इनाबों की कलकल भी,
अब तो टूटी धड़कन है.

तीन गिलहरी एक बटेर,
ह्रदय तुम्हारी बतियाँ ढेर.
बातें अब भी बाकी हैं पर,
नहीं कानों में कम्पन है.

तुमको कभी छुपाने को,
काली रात का सजदा था.
आज बोरसी हाथों में,
दिखता नहीं मेरा तन है.

मैं कह दूँ या तुम सुन लो,
पहले तो दोनों ना थे.
अब तो शायद दोनों हैं,
नहीं मगर मीठापन है.

अलबेले से फूल जो कुछ,
तुमने बुने थे चादर पर.
लिपटे हैं जैसे के कफ़न,
बस इनको अपनापन है.

क्यूँ चाँदनी को?

ये जो दिखता है ना,
सच नहीं केवल इतना ही।
धरती के उस पार भी,
रहता है एक चाँद।

अरे नहीं अग्रज-अनुज,
आश्चर्य ना करो।
ना सिकोडो भौहें अपनी,
सँझा के पारिजात सी।

हाँ चांदनी एक ही है,
निश-दिन अम्बर पर।
दौड़ती रहती सरपट,
फैली बेचारी चंहुओर है।

दिवस में दो बार,
लांघती है धरा को।
पूर्ण करने धर्म अपना,
दोनों ही शिशिरों के प्रति।

एक दिन भी छुट्टी ले तो,
चांदनी पर लान्छन लगा है।
ना हमारा असफल चाँद,
ना अमावास ही अधम हुआ है।

नहीं नहीं अभी तक मैं ,
मानसिक रोगी नहीं हुआ।
ना ही आपके भौतिक,
विज्ञान के विपक्ष में खडा हूँ।

किन्तु कभी किरण कभी चांदनी,
सूर्य की बेटी को बस काम हैं।
आग उगलता दिनकर और,
पत्थर चंद्रदेव पूज्य-महान हैं।

प्रश्न इतना है मेरा चल-अचल से,
क्यूँ यूँ दोमुहे आयाम हैं?
ऐसा तो नहीं चाँदनी नारी,
सूर्य चन्द्र अमावास पुरुष नाम हैं?

बीज रुद्राक्ष के....

हिमालय की तराई,
लद्दाख के किसी दर्रे से।
माँ ने किसी सर्दी में,
मंगाए थे किसी से,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।

बिंधे नहीं थे,
ताजे थे ना एकदम।
मानो शम्भू ने कैलाश पर,
स्वयं ही दिए हों,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।

कील नहीं लगवाती माँ,
लोहा-तेल-शनि खूब,
मानती हैं माँ।
छिदवाती कैसे कील से,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।

सात महीने- पापा कहते हैं,
माँ ने कुछ नहीं खर्चा।
बनवाने चांदी की कील।
छिदवाए शिवरात्री पर,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।

तब से आज तक माँ को,
यकीन है महादेव पर।
शंकर को भी यकीनन होगा,
माँ ने जो उनके नाम लिए।
बीज कुछ रुद्राक्ष के।

शिव का तो नहीं पता मुझे पर,
गंगा स्नान रोज हो जाता है।
जब पानी गुजरता है होकर इनसे,
और लहराते हैं ग्रीवा पर मेरी,
बीज कुछ रुद्राक्ष के.

नही बनूँगी गाँधारी...

मेरी नाल जुडी थी इनसे,
दूध से सींचा कभी लहू से।
बहुत ही प्रिय हैं हिय को मेरे,
अधम मैं लेकिन नहीं सहूंगी।

मैंने तो तुलसी बांटी थी,
व्रत में दी घी की बाती थी।
जप भी मेरा खली हुआ तो,
पापी रब को नहीं कहूँगी।

हाँ मन दुखी द्रवित तो होगा,
क्षण दो क्षण को भ्रमित भी होगा।
आग लगा दूँगी ममता को लेकिन,
पल पल अब मैं नहीं मरूंगी।

संस्कारों का पाप लगे जो,
मान के गलती मैं सर लूँगी।
किन्तु किसी भी सूर्यस्थिति में,
पक्ष मैं उनके नहीं रहूंगी।

तुम सा पाप ना मुझसे होगा,
भले हृदयविहिना नाम सहूंगी।
तुम धृतराष्ट्र भले बन जाओ,
मैं गाँधारी नहीं बनूँगी.

मत खोलना किवाड़....

मत खोलना ना,
आज किवाड़ अपने।

तुम्हारी तो भोली है,
नन्ही सी छागली।
तुम तो बाँध दोगी,
हिलते खूंटे से उसे।

वो सयानी मान,
भी जायेगी चुपचाप।
पर मेरा क्या होगा,
ये भी तो सोचो?

मैं तो देखता ही,
रह जाऊँगा ना।
तुम्हारी दरक पीली,
फहरती चुन्नी को।

और मेरा निपट,
नालायाक बछडा।
भाग जाएगा फिर,
अपनी अम्मा तक।

फिर नहीं दुह ,
पायेंगे मामा।
क्या पाओगी तुम,
मुझे यूँ सता के?

माना ललक है,
तुम्हे देखने की।
पर कुछ बातें,
ना बढें तो अच्छा।

इतना तो समझती,
हो तुम भी बावली।
तैरता नहीं धेला,
नदी में घुलता है।

यूँ हक़ नहीं मुझे,
पर अरज सुनो।
मत खोलना ना,
आ़ज किवाड़ अपने.....

टुकड़े यूँ ही कुछ...

मैं सांप नहीं....

शर्मा जी का लड़का,
अरे अपने दिलीप भैया।
अलग रहने लगे हैं।
अंकल जी आधी बांह की,
कमीज पहनते हैं अब।
पापा आप मत कटवाना,
कभी आस्तीनें अपनी।

कोसूँ किसे?

परेशान बहुत हैं,
बुद्धजीवी यहाँ पर।
ख़तरा बहुत है उनकी,
संस्कृति को पाश्चात्य से।
पर हमारी जड़ें,
बहुत गहरी हैं।
हर ड्यूड होता है कुमार,
लेते वक़्त दहेज़।



वचन अपना अपना....

संभव नहीं हर रात,
तुम छत पर आओ।
मास में एक दिन तो,
चाँद भी नहीं आता।
मैं फिर भी इन्तजार,
तो कर ही सकता हूँ।
आसमान को तो वहीँ,
रहना है ना प्रियम्वदे?



रमजान मुबारक...

बहुत आह्लादित मैं हूँ,
तुम भी तो खुश हो ना?
काश सबको पाक-पाक,
कर जाए रमजान महीना।



सुनो विषाददेव............

मैं गीत हूँ उन पाषाणों का,
जिनको गुनना भी आंधी है।
हर एक सपने को बैर हुआ,
मुझसे ही गांठें बांधी हैं।
लेकिन इतना इतराओ मत,
समझो ना तुम्हारी चांदी है।
आशीष पिता की है छतरी,
दी माँ ने धीर की हांडी है।




मेरे शब्द.....

मेरे शब्दों में आपलोग,
शिल्प सौंदर्य मत ढूँढना।
ये तो घास-फूस है बस,
माँ ने बगीचे से बटोरी।
मैंने आपको दिए हैं किसी,
गिलहरी का आशियाँ बनाने को.

छोड़ दो....

अब कहूं लड़ जाओ,
सात आसमानों से।
मेरे लिए तूफानों का,
पकड़ रुख मोड़ दो।

कहने दो लोगों को,
जो कहते हैं हमें।
ये सारी बूढी,
रूढियां तोड़ दो।

हो जाओ ना बस,
मेरे ही अरमान।
बनो न मेरे ही,
अलबेले चतर सुजान।

रखा क्या है लोगों,
की बेतुकी बातों में।
घर की ऊहापोह को,
कान देना छोड़ दो।

पर जानते हो न,
लुढ़क न जायेगी।
अगर तुम प्रीत की,
मेरी मटकी छोड़ दो।

संभव नहीं है बनना,
रांझा तुम्हारे लिए।
ऐसा भी नहीं,
कहती कभी मैं।

पर पिता को,
सदा ही शीश नवाओ।
माँ कहें जिससे,
नाता उसी से जोड़ दो।

नहीं नहीं ये मेरा,
त्याग नहीं है।
यकीन मानो मन में,
कोई व्याध नहीं है।

पर यूँ ही कहीं,
रेवती बनने से तो।
अच्छा है पग,
आज ही मोड़ दो।

बन जाओ न,
श्रवण कुमार तुम।
मैंने तुममे कान्हा को,
तो माँगा नहीं कभी।

रहती तुम्हारी तो,
खुश रहती बहुत।
पर एक सुखी माँ-बाप,
को जानना भी अच्छा है।

दो आंसू डालो,
आँचल में मेरे।
और बस ये,
गाँठ तोड़ दो।

कमजोर बहुत हूँ वरना,
छोड़ देती मैं ही।
बनो बहादुर सांवरे,
तुम ही मुझे अब छोड़ दो

क्षणिकाएं फ़िर से.....

माँ सब जानती है...

सोचा इस बार,
अचानक माँ को,
सरप्राईज़ विजिट दूँ।
घर पंहुचा तो,
माँ मंदिर गयी थी।
खुशबू आ रही थी,
कटहल के कोफ्तों की।
जो पूरे घर में बस,
मुझे ही पसंद हैं।



अंतर....

दाल के पकने पर,
ढक्कन खनकता है।
तुम जल जाते हो जो,
नीचे वाला तरक्की करे।
तभी अंतर है,
नाम रूप एक ही,
धातु रूप अनेक है।


सच कहो....

मैं तैयार हूँ,
बनने को विषधर भी।
अगर तुम हो,
जाओ विषहीन।
मुझे आस्तीन का,
सांप कहने से।


समझो....

व्यर्थ है प्रिय,
लावण्य तुम्हारा।
ये कीर्ति भी,
मिट जानी है।
अगर नहीं है,
धीरज तुममे।
और ना आंखों,
में पानी है.



गलती किसकी?

कितनी आसानी से,
कह दिया न।
"चिकने घडे पर,
कितना ही पानी डालो..."
बनाया तो तुम्हारे ही,
किसी भाई ने होगा।
और तुम्हारी ही,
कोई बहन लाई,
होगी पका उसे,
फिर मांज के भी।



झूठ....

कोई नहीं मानेगा,
सनकी-फेंकू भी कहे।
पर सबसे सुन्दर,
क्या पूछने पर।
हर बार लेता हूँ,
नई अभिनेत्री का नाम।
कैसे कहूँ?
"पापा के पैरों की,
हसीन बिवाइयां"



माँ की सब्जी...

अम्मा ये ठीक नहीं,
तुम इतनी अच्छी,
सब्जी ना बनाओ।
दो दिन बाद ये,
कहाँ मिलेगी मुझे?
" इसीलिए बनाई रे,
दो दिन बाद तो,
मुझसे भी नहीं,
बन पाएगी ना?"



चुन लो अपना.....

अकाल में भाव,
दाल के सौ और,
चावल के चालीस।
पर सरकार ने भी,
कीटनाशक और,
इम्पोर्टेड चीज़ के,
दाम घटाए हैं।
देख लो हरिया,
चुन लो अपना....



मित्र.....

वजन तो है कुछ,
बात में तुम्हारी।
और फिर मेरी भी।
तभी तो बघार,
रहे हैं विशेषताएं।
तराजू के अलग,
अलग पलडों से।
लो मैंने वजन,
त्याग दिया।
तुम भी उड़ो ना,
बनके रुई के फाहे।
आओ हवा में,
दोस्ती कर लें.....

युद्ध तिमिर से....

हे बलशाली तिमिर के योद्धा,
इतरा ना श्रिन्गिभाल पर।
सात अरुण दौदिप्य हैं मेरी,
जिजीविषा के कपाल पर।

माना तेरी रात बड़ी है,
विजय तेरे ही साथ खड़ी है।
किन्तु मेरी मुट्ठी अभी भी,
पावक सम तलवार जडी है।

या तो शीश तेरा बांधूंगा,
इर्ष्या-ठूंठ की डाल पर।
या फिर मेरा लहू बहेगा,
ना रोएगी धरा इस लाल पर।

शत सहस्त्र की सेना माना,
हर क्षण मेरी घात खड़ी है।
किन्तु मैं हूँ बाण-खिलाडी,
मैंने गिनती नहीं पढ़ी है।

मुझे डरा मत रात के राजा,
लोभ दंभ की बात कर।
प्रपात नहीं रुका करते हैं,
पाषाणों के आघात पर।

बुला ले कूकर-शृगाल सब,
निर्णय की ये ब्रम्ह घडी है।
नहीं कोई भी एक बचेगा,
शार्दूल ने शपथ धरी है.

मन ये कहे....

स्तब्ध साए हो गए जब,
स्वप्न सारे सो गए जब।
अश्रु छलके फिर यूँ बरबस।
जब नहीं रोई धरा,
आसमान भी ना फटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं क्रंदन....

मिली कभी दुत्कार थी,
और ह्रदय की नदी,
मांगती विस्तार थी।
सामने चट्टान के,
मैं अकड़ता जा .
देख मन ये कह उठा,
मैं मंथन....

कभी कोई बात ऐसी,
घटना काली घात जैसी,
बीती जाने रात कैसी।
अंतर से इक हूक जागी,
रात आधी जाग बैठा।
देख मन ये कह उठा,
मैं चिंतन.....

जीत डाली जब धरा तो,
सब मुझे ही देखते थे।
गृह था पदकों से भरा तो,
पिता जी के भाल पर,
गर्व का उन्माद था।
देख मन ये कह उठा,
मैं अभिनन्दन....

घोर चिंता बात दुर्गम,
पिता जिसमे डूबे हरदम।
देख मुझको खिलखिलाए।
आँख में इक चमक आई,
पिता को ख़ुशी से अटा,
देख मन ये कह उठा,
मैं चन्दन....

देख थाली प्यार वाली,
चावल रोरी लाल वाली,
बहन ने थी जो सजाई।
हल्दी के उबटने में,
कपास जैसे जा सटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं वंदन...

बरखा गिरी जब धरा पर,
सोंधी बयार ने छुए नयन,
चूमने माटी थिरके अधर।
मेढकों की टर्र-टर्र और,
इन्द्रधनुष की छटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं नंदन.....

देखता हूँ माँ की पलकें,
विदा देते भीगती हैं,
जैसे दो ब्रम्हांड छलकें।
डोरी पावों बांध गयी,
ह्रदय हुलस सा उठा।
देख मन ये कह उठा,
मैं बंधन....

सबने जब जब स्नेह वारा,
कोई भी था प्रश्न आगे,
नाम मेरा ही पुकारा।
अग्निपथ पर भी मैं आया,
मार्ग से कंटक हटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं संबोधन....

हार कर या जीत कर,
या के जीवन की डगर में,
मृत्यु को भयभीत कर।
पुरुषार्थ से कंधा मिला,
दिन रात तन जब ये खटा।
देख मन ये कह उठा,
मैं आरोहण.....

छोटी दी...

यूँ तो साल भर,
पीछे पड़ी रहती है।
मेरे निरीह बटुए के,
ऊपर खड़ी रहती है।

साड़ी जरदोजी के,
महीन काम वाली।
पायल जिसमे,
नथे हों सच्चे मोती।

चुन्नी लखनवी ही हो,
सबसे ऊँचे दाम वाली।
मुझसे घर बैठे ही,
अलफांसो आम मांगती है।

मगर जब नहीं,
कर पाता न पूरे।
इनमे से कोई भी,
छोटे बड़े अरमान।

जाने कैसे खुद ही,
बिस्तर की सलवटों से,
निकालती है एक,
रेशमी धागा।

देने की कोशिश,
भी करूँ कुछ तो।
बस मुझसे सदा,
साथ रहने का,
वरदान मांगती है।

है तो छोटी मुझसे,
पर 'दी' कहता हूँ उसे।
जो इस भाई से ,
केवल ईमान मांगती है.

बस करो,
रख दो कलम।
हो गया बहुत,
लिखना गान-अगान।

किस बरगद का,
इतिहास गुनोगे?
काट गए कल,
तुम्हारे अपने ही साथी।

अगर सोच है,
यमुना तीर जाने की।
तो भूल जाओ।
एक सूखी काली,
नाली है वहाँ।

और चकवा-चकवी?
वो तो अब एन।सी.ई.आर.टी.,
की किताबों तक में नहीं।
और क्या सुबह की,
कालिमा-लालिमा बकते हो?
सच कहो कितने महीने,
हुए सूरज देखे हुए।

सुना है तुम्हे,
चिडियों के कलरव,
की भी आदत है।
ये चिर्पिंग बर्ड,
अलार्म रख लो।
आखिरी अवशेष है,
तुम्हे दे रहा हूँ।

लिखने की सनक में,
हिमालय भी हो आते हो।
तुषार तुम्हारे ही,
पडोसी का नाम है।
उसके फ्रिज में भी,
आइस क्यूब जमती है।

अब बस, अपना,
राम भरत मत करना।
यार आजकल लोग,
मैटर्नल अंकल के,
नाम नहीं जानते।
तुम वशिष्ठ-दधिची,
उवाचते रहते हो।

अरे हाँ! कहीं,
देखा था तुम्हे।
अँधेरे के खिलाफ,
भाषण देते हुए।
बड़े रोबदार लग,
रहे थे वाकई।
फिर बल्ब जला कर,
क्यूँ सोते हो तुम?

मान भी लो ,
अब कुछ बचा नहीं।
रहम करो अब,
अपने मन पर ही।
बात सुनो ओ,
शब्द चितेरे।

गाँठ बाँध लो,
शब्द पोटली।
कलम रखो,
धो लो दवात।
बहुत हुआ,
व्याधि-संताप.

सात क्षणिकाएं...

माँ..

माँ को मेरा,
क्रिकेट खेलना,
कभी पसंद,
नहीं आया.
मेरे छिले घुटने,
आंसुओं से धोती थी.


पापा...

कभी कोई हठी,
मुनि देखना हो,
तो मुझसे कहना.
वो मेरे लिए,
एक टांग पर,
२३ साल से,
खड़े हैं.



रुकुह..

ये जो तन के,
निकलता हूँ न,
सरेराह.
नतीजा है जो,
रूह करती है,
माँ बाप को,
उस रुकुह का.



क्षितिज...

तुम मुझे,
आसमान कहती थी.
मैं तुम्हे धरा.
हमें क्षितिज,
मिला नहीं.
तुम्हे यूँ ही,
जाता देखता रहा.



कद मेरा...

गिर कर घटा नहीं,
चढ़ कर बढा नहीं.
ना अकडा ख़ुशी में,
गम से भी डरा नहीं.
कीमत बताता है,
मेरी निगाहों को,
कद मेरा.



सुन पुरवा...

छोड़ ना दें क्यूँ,
भावहीन ये जंगल.
गारे, कंक्रीट और सरियों में,
ठ्नते लोगों के दंगल.
आ अमराई तक पुरवा,
आ पछुआ संग लौट चलें.



हद है...

जब नहीं खता,
एक रोटी ज्यादा.
करता हूँ नखरे,
गंडे-ताबीज बाँधने में.
खडा हो जाता हूँ,
मंदिर के बाहर.
खा लेता हूँ ग्रहण में,
बिना तुलसी के निवाले.
मुझसे तो हो नहीं सकती,
माँ पापा से नाराज होती है.

गूंगी...

कभी कभी यूँ ही,
छू लिया करो न।
मेरी अँगुलियों ,
के पोरों को।

मत फेरो भले,
सर पर हाथ।
कुर्सी के कोनों,
से लरजती जुल्फें,
ही सहेज दो।

महीने-दो-महीने में,
एक बार ही सही,
झलक दिखलाया करो।
वही काफी है,
मेरी मुस्कान को।

माना कशिश नहीं,
मेरी फीकी मुस्कान में।
लेकिन कभी कंचे को ही,
मोती मान लो।
सच में कोई आस,
नहीं है चतर सुजान,
बनने की तुम्हारी।

कभी मिस कॉल ही,
कर दिया करो।
अरे उठा भी लिया,
तो बोल थोड़े न पडूंगी।

" ना करो फोन,
मैसेज भी नहीं।
मुह न दिखाना,
गिफ्ट कहाँ है,
बीते जन्मदिन का?"

रहूंगी मौन ही,
दिल शायद गूं गूं करे,
"आओ जी,
इस सावन तो आओ जी।"

बंद करो ये आलाप....

किंचित बलवान अवश्य हो तुम,
अपार लहू भी तुमने पीया है।
परन्तु एक बात बताओगे वज्र?
अतीत के पराक्रम पर कौन जिया है?

बिना कुछ किये धरे,
बस बैठ पूर्वजों की कथा बाँचो।
सुन के सब चौपाल से जायेंगे,
तुम्हारा ठेका किसने लिया है?

अवतार भले राम थे,
निस्संदेह अत्यंत महान थे।
न्यायप्रिय परीक्षित थे,
विद्वान् बीरबल-तेनालीराम थे।

माना पूर्व में किया पुण्य,
यूँ ही ख़तम नहीं होता।
पुरखों की कीर्ति गाना,
कभी अधम नहीं होता।

लेकिन बन्धु भूत को,
वर्तमान ने कब जिया है?
सूर्य तक ने तेज अपना,
संचय आखिर कब किया है?

बीता साल मेरा...


सब कहते हैं,
बड़ा काबिल हूँ मैं.
मैं भी जानता हूँ,
मेरी मेहनत का साल,
ज़रा अच्छा गुजरा है.

मगर ये मेरी,
काबिलियत नहीं है.
दूर हूँ तो क्या?
रूह जानती है मेरी.
माँ ने इस बार,
नवरात्रों के साथ,
रोजे भी रखे होंगे.

जिस शहर रहता हूँ,
कहते हैं इस बार,
ज़रा गर्मी कम पड़ी है.
कमाल मेरा नहीं है,
मैं फ़रिश्ता नहीं कोई.

बस वो नेकी,
काटता रहता हूँ.
जो बाबू जी,
अपनी खुरपी से,
हर सुबह आज भी,
बोते होंगे.

मासूम भरोसा...

यूँ तो समझ है मुझमे,
मोहल्ले में सबसे होनहार हूँ।
मगर बचपना है मुझमे भी,
अल्ल्ढ़पन से कहाँ बेजार हूँ?

निपोर देता हूँ खीसें,
लट्ठमार पहलवान को।
बर्र के छत्ते तक,
डंडा भी पहुँच जाता है।

जीवन दादा के जामुन पर,
२-४ धेले भी कभी कभी।
चार छः खिड़कियाँ नहीं तोडी,
तो लानत है बैटिंग पर।

गड्ढों में कभी कभी गुठली के,
निशाने भी लगाये हैं।
रमा आंटी की छत पर जाने,
पतंग के कितने टुकड़े गिराए हैं।

गली के कुत्तों को दौडाते,
पगलाए सांड से भिड पड़ा।
साक्षात यम् ने दर्शन दिए ,
तभी आँख के कोरो ने,
पिता जी को देखा।

किलकारी मार मैंने कहा,
जा यमराज, भाग जा,
अब मेरा कोई कुछ,
बिगाड़ नहीं सकता.

कैद...

मेरी लाश पर आज,
मेरा कफ़न अकेला रोया।
कैद कर जिस्म में वजूद मेरा,
बन के लिहाफ मुझ संग सोया।

माँ भी न....

कल रात बहुत भीगा,
छींकता रहा रात भर।
बारिश का महीना है,
सब डांट रहे थे ,
अम्मा भी,
" मुए बादलों,
कोई और जगह नहीं मिली?"

नीयत....

कुछ लोगों के,
व्याकरण भी अजीब हैं।
गंदे उन्हें नापाक,
दिखायी देते हैं।
कभी कोई साफ़,
माली देखा है तुमने?


कुछ ख़ास लोगों के लिए...

मेरे शहर की एक,
ख़ास मिठाई है,
गुड की जलेबी।
गुड-चीनी से बनी।
कल रात मुझे,
गुड और चीनी ,
दोनों ही मिले।
मैं कल रात,
घर हो आया.

अकाल.......

सूखे गाल,
चटक गए ताल।
जल बिन वृक्ष,
भये कंकाल।

नए प्रेतों की,
होगी भरती ।
हँसे ठठा कर,
सब बेताल।

नीचड गयी है,
पूरी धरती।
देखो आया,
घोर अकाल।

इन्द्र-वरुण में,
घपला घाल।
फिर सब बंजर,
चरम बवाल।

यज्ञ अनेको,
ठान भी डाले।
घृत-गंगाजल,
लोबान भी डाले।
किन्तु छूटे,
कहाँ जंजाल।
सूखी यमुना,
गंगा बेहाल।

गर्दभ का भी,
ब्याह रचाया।
सौ टोटक,
नौ झाम मचाया।
पर न उठायी,
एक कुदाल।

शीश नवाए,
वही मनुज जो।
तड़ित कमर में,
धरता हो।

क्षमा दया,
उसी को सोहें।
पत्थर का कलेजा,
रखता हो।

यज्ञ रिचा को,
हाथ में ले के,
जहां उठाये,
नर महाकुदाल।

एक नया हो,
खडा भगीरथ,
हो जाए ये,
धरा निहाल.

समझ जाओ...

आज मेरा निर्वाण है प्रियतम,
माना सुनना आसान नहीं।
लेकिन इतना संयम रख लूँ,
मैं कोई भगवान् नहीं।

मेरी मृत्यु ह्रदय तुम्हारा,
आकुलता भी शापित है।
शुष्क कनकलता की डाली,
हर पराग इक बाधित है।

नचिकेता सा ढीठ मनुज मैं,
हो तुम मुझसे अनजान नहीं।
और आज जो छूटेगा तन से,
होगा वो मेरा ही प्राण नहीं।

एक सूरज फिर है डूब चला,
सारा अम्बर आलोकित है।
मेरे जीवन की पर उष्मा,
बलि वेदी से विस्थापित है।

ना अब तुम यूँ हाहाकार करो,
हाँ करना तुम श्रृंगार नहीं।
पर ये मेरी बस विनती है,
अब तो है रहा अधिकार नहीं।

तुमको है नहीं तजा मैंने,
हाँ ह्रदय दुखी ययाति है।
आँखों को बेध के मिलती है,
जाने ये कैसी ख्याति है।

मैं नहुष नहीं, ना पुरु हूँ मैं,
हाँ हूँ मैं राजा राम नहीं।
पर मरना मेरी मज़बूरी है,
सच कहता हूँ अभिमान नहीं।

पर एक वचन तुमसे लूँगा,
कहते तो फटती छाती है।
पर मुझको तुम देखा करना,
ये पुरवा जिधर से आती है.

सुने ज़रा...

मेरी तारीफ़,
ना किया करें।
ना कहा करें,
के मैं काबिल हूँ।

मेरे मंतव्य,
को समझें।
फिर भले कहें,
के मैं जाहिल हूँ।

मुझे पंक ही,
रहने दें।
कोई पंकज,
नहीं मानें।

मगर मेरी,
बात को समझें।
के शायद मैं,
मुनासिब हूँ।

भाई से बैर,
सा क्यूँ है?
बाप अब गैर,
सा क्यूँ है?

बहन से क्या,
है अब लेना?
दूध अब जहर,
सा क्यूँ है?

क्यूँ है सब,
ख़ाक अब रिश्ते?
क्यूँ नहीं,
पाक अब रिश्ते?

खुद जवाब ढूंढें,
खुद अमल में लायें।
मेरी दिल की,
हर दुआ पाएं।

फिर मुझे,
काट भी देंगे।
दफन कर,
पाट भी देंगे।

तो मेरी,
रूह बोलेगी।
सुकून के साथ,
गाफिल हूँ.

प्रियतम.....

निष् दिन के तुम,

पार हो प्रियतम।

इस जीवन का,

सार हो तुम।

साँसे है पहचान,

तुम्हारी।

धड़कन का,

आधार हो तुम।

संध्या क्षितिज के,

समान मोहक।

कोयल की मधुर,

पुकार हो तुम।

दिनकर की,

उज्जवल आभा हो।

चन्दन की,

शीतलता तुम।

मेरे हिय के,

वासी तुम हो।

मेरे गीत,

मल्हार हो तुम।

मेरे ह्रदय के,

तरुण अरण्य में।

सोंधी मधुर,

बहार हो तुम।

मेरे गीत के,

पाषाणों पर,

सावन की पहली,

झरकार हो तुम.

सब समर्थ हैं....

माना तुझमे कर्ण नहीं है,
ना तू शिवी सा दानी है।
लेकिन क्यूँ तू शोक करे रे?
तू भी ब्रम्ह की ही वाणी है।

नीर बहा मत, हे मनु।
सलिल नहीं, वो अमित शांतनु।
व्यर्थ निधि क्यूँ आज करे रे?
कुलपति की कुल निशानी है।

चाक कुम्हार का भले सही है,
मधुरिम कोई मधुरिमा नहीं है।
पर नर क्यूँ संताप धरे रे?
भले न तू चक्रपाणी है।

अलि नहीं है, कली नहीं है।
कंटक क्यारी फली नहीं है।
हा कंटक! क्यूँ जाप करे रे?
महाव्याल भी अनुगामी है।

महाबली तेरी भुजा नहीं है,
ना है शिव, शैलजा नहीं है।
इनके क्यूँ तू ताप जरे रे?
हिमाद्री भी सुमेरु से अनजानी है।

अनय नहीं है, विनय नहीं है।
किसी को तुझसे प्रणय नहीं है।
क्यूँ हर क्षण आलाप करे रे?
सत्य प्रेम तो बलिदानी है।

अश्रु एक दिवस सिन्धु लेगा,
कृष्ण कभी पहिया धरेगा।
सर्पों को दुत्कारे कंटक,
पौरुष का परिचायक सुमेरु।
निंदा भी तो अभिमानी है।
दान का नो हो सामर्थ्य जिसको,
ऐसा कहाँ कोई प्राणी है?

Always...

Roaming in the gloom,
over my leprechaun travera,
I could see albatross coming,
flying vast wings from far tundra.
I know its' a sweet chimera.

But I cannot cease reckoning,
this apocryphal vibes,
I had been yearning for,
throughout my lunges,
couple with each of my dives.

The wallops being inseminated,
absymally in my elan vital.
sprut up throbbing,
baking my hysteria to the utter.

I am canting now thee,
come for an interview,
Let me take'em on,
before the next aurora dew.

Its' not a demur,
I'm not confrontin you.
Just aching for an antiphon,
for why I capped only brew.................