कुछ आषाढो पहले तक जो,
नयन तुम्हारी ज्योति थी.
बीते अगणित वारों से,
अब आँखों की किरचन है.
देवदार के पत्तों से ,
मैंने रात जलाई है.
तुमको दिन के उजालों में,
जाने कैसी अड़चन है.
गुलमर्ग के दर्रे पर,
नहीं उतरती थी चाँदनी.
अब उसके भी आने पर,
बर्फ में कैसी तड़पन है.
गीत तुम्हारे बहते थे,
झेलम और चेनाबों में.
इनाबों की कलकल भी,
अब तो टूटी धड़कन है.
तीन गिलहरी एक बटेर,
ह्रदय तुम्हारी बतियाँ ढेर.
बातें अब भी बाकी हैं पर,
नहीं कानों में कम्पन है.
तुमको कभी छुपाने को,
काली रात का सजदा था.
आज बोरसी हाथों में,
दिखता नहीं मेरा तन है.
मैं कह दूँ या तुम सुन लो,
पहले तो दोनों ना थे.
अब तो शायद दोनों हैं,
नहीं मगर मीठापन है.
अलबेले से फूल जो कुछ,
तुमने बुने थे चादर पर.
लिपटे हैं जैसे के कफ़न,
बस इनको अपनापन है.
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