यकीन...मेरा तुम्हारा...


उदय दिवाकर,
आज हुआ है।
शर्त लगा लो,
पश्चिम से।

उसने कहा था,
ना आऊं तो।
सूर्य उगेगा,
पश्चिम से।

गंगा का पानी,
ना छुओ।
कल-कल ये,
ना करती है।

उसने कहा था,
प्रेम बहेगा।
जब तक,
धारा बहती है।

अनल में ज्वर,
और जल में कम्पन।
किंचित भी,
पर्याप्त नहीं।

उसकी सौगंध,
रहनी थी व्यापक।
जब तक होते,
पावक-नीर समाप्त नहीं।

उसके वचनों की,
खातिर मैंने।
अम्बर धरा,
भुलाई है।

जाने उसने,
कैसे शक कर।
मुझमे आग,
लगाई है.

1 टिप्पणियाँ:

संजय भास्‍कर said...

ढेर सारी शुभकामनायें.