इतना आसान नहीं था माँगना,
पर तेरी दी सांसें ली नहीं जातीं.
कम से कम ये दुआ क़ुबूल कर खुदा,
दर्दनाक ही सही मुझे मौत दे दे.
अपने कहे के लिए अक्खडपन रखना मेरा नियत व्यवहार है, किन्तु आलोचना के वृक्ष प्रिय हैं मुझे।
ऐसा नहीं था कि प्रेम दीक्षायें नहीं लिखी जा सकती थीं, ऐसा भी नहीं था कि भूखे पेटों की दहाड़ नहीं लिख सकता था मैं, पर मुझे दूब की लहकन अधिक प्रिय है।
वर्ण-शब्द-व्याकरण नहीं है, सुर संगीत का वरण नहीं है। माँ की साँसों का लेखा है, जो व्याध को देता धोखा है।
सोंधे से फूल, गुलगुली सी माटी, गंगा का तीर, त्रिकोणमिति, पुरानी कुछ गेंदें, इतना ही हूँ मैं। साहित्य किसे कहते हैं? मुझे सचमुच नहीं पता।
स्वयं के वातायनों से बुर्ज-कंगूरे नहीं दिखते। हे नींव तुम पर अहर्निश प्रणत हूँ।
3 टिप्पणियाँ:
aah!
hey ! pehli baar aisa kuch padha bhayi...:o
m shocked..:(
aage se ni likhna okay...:(
acha bhi nahin keh sakti is nazm ko to..:(
Taru Di,
Nazm hai....kabhi kabhi ho jaata hai.
Waise main hasne hasaane wala jeev hun. :)
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