अब कहूं लड़ जाओ,
सात आसमानों से।
मेरे लिए तूफानों का,
पकड़ रुख मोड़ दो।
कहने दो लोगों को,
जो कहते हैं हमें।
ये सारी बूढी,
रूढियां तोड़ दो।
हो जाओ ना बस,
मेरे ही अरमान।
बनो न मेरे ही,
अलबेले चतर सुजान।
रखा क्या है लोगों,
की बेतुकी बातों में।
घर की ऊहापोह को,
कान देना छोड़ दो।
पर जानते हो न,
लुढ़क न जायेगी।
अगर तुम प्रीत की,
मेरी मटकी छोड़ दो।
संभव नहीं है बनना,
रांझा तुम्हारे लिए।
ऐसा भी नहीं,
कहती कभी मैं।
पर पिता को,
सदा ही शीश नवाओ।
माँ कहें जिससे,
नाता उसी से जोड़ दो।
नहीं नहीं ये मेरा,
त्याग नहीं है।
यकीन मानो मन में,
कोई व्याध नहीं है।
पर यूँ ही कहीं,
रेवती बनने से तो।
अच्छा है पग,
आज ही मोड़ दो।
बन जाओ न,
श्रवण कुमार तुम।
मैंने तुममे कान्हा को,
तो माँगा नहीं कभी।
रहती तुम्हारी तो,
खुश रहती बहुत।
पर एक सुखी माँ-बाप,
को जानना भी अच्छा है।
दो आंसू डालो,
आँचल में मेरे।
और बस ये,
गाँठ तोड़ दो।
कमजोर बहुत हूँ वरना,
छोड़ देती मैं ही।
बनो बहादुर सांवरे,
तुम ही मुझे अब छोड़ दो
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