अपेक्षित..


होगे महनीय तुम, उत्तम,
सामर्थ्य नहीं, नहीं झुठलाऊंगा।
ऊसर थल- जीवंत कौमुदी तुमसे हैं,
होंगे, प्रश्नचिन्ह नहीं लगाऊँगा।

कहोगे तो पढ़ दूँगा ऋचाएँ,
मंत्र संभवतः साथ में दोहराऊँगा।
जो गाते हो गान, होंगे रुचिकर,
तो सहर्ष मैं भी गाऊँगा।

श्रद्धेय होंगे यदि विचार किसलय,
मैं भी रचूँगा उन पर गीत।
तुम्हारे तय मानकों पर सब,
राग-ताल-झंकार बजाऊँगा।

तुम्हारे अखंड नाद आलापों में,
जोडूँगा उद्धत मधुकर अध्याय।
लगेगा अनुकरणीय पथ तो,
स्वेच्छा से तुम्हारा अनुयायी कहलाऊँगा।

किन्तु मेरा रच मैं स्वयं हूँ,
रचूँगा स्वायत्त स्वत से ही।
केवल तुम्हारी अनुशंसा हेतु,
निःसृत सृजित न पगुराऊँगा।

मोक्ष...




स्वायत्त प्रशमन करते,
मेरे उद्धत शब्द।
नवोन्मेषण हेतु संघनित,
आलोड़ित होते हैं।
करना चाहते हैं सर्जना,
वे स्वयं के गीत की।

स्व-सायुज्य विचार मधुकरों से,
संपृक्त वह गीत विग्रह।
सान्द्र प्रशंसा केलि की,
उत्फुल्ल स्पृहा लिए,
झांकना चाहते हैं वातायनों से।
विहस उठना चाहते हैं।

किन्तु क्या मधुमास का,
निरभ्र आना संभव हुआ है?
स्वयं से रचे शब्द,
उत्स से विगलित हो उठते हैं।
स्वयं से ही विमुख,
अभिप्रेत, प्रसूत, विछिन्न।

उच्चारों की श्रेयस विभाएँ,
गह्वरों में कांपती हैं, कुंठित।
व्याकरण का केसरी सौंदर्य,
नहीं सुहाता नासापुटों को।
प्रांजल शब्द होते जाते हैं,
परिवर्तित शृंगीभालों में।

इन विचारों के झुरमुटों से,
उन्नयन करता कडवापन।
इस मधुप संकुल में,
प्रच्छन्न विशद अवसाद।
यह संदेह की दस विमायें,
अंततः किसका इंगित हैं?

ऐसा तो संभव नहीं कि,
मेरे गीत चले गए हों,
किसी अगत्यात्मक देश के,
उत्पल दलों में डूबने।
किसी अलसाई झिप में धंस,
प्रतानों में नाहक फंसने।

बेलौस झूमते रहने से,
श्लथ निर्वाकपन तक।
मेरी समझ से की उन्होंने,
उन्मीलन की ही क्रिया।
क्या मेरी अहर्निश अनिमेष दृष्टि,
किंचित निमीलित हो गई थी?
निश्चय ही!

संभवतः अपने ऋजु आख्यान में,
नहीं कर पाया गणना।
तुम्हारी अहेतुक वीथिकाओं की,
जो तुमने जीवन पाथेय में बांधी थीं।
नहीं रख पाया मन व्रणों को,
स्वच्छ, धवल, गंधहीन।

नहीं सुन पाया सोपानों से,
विप्लव के मादल का स्वर।
तुम्हारी मृदुल मोहक संसृति,
जिसमे पहले से रहना था विनत।
उस पूजार्ह अस्तित्व के आगे,
अब शब्दों के साथ प्रणत हूँ।
इस आर्जव प्रेम सरिता में,
मेरे शब्द मोक्ष पायें।





=================
निरभ्र= स्वच्छ/ बिन बादलों के
विग्रह= देव प्रतिमा
प्रसूत= दूसरी वस्तु से लिया
संपृक्त= डूबा/घिरा
नासापुट= नथुने/नसिका
वातायन= खिड़की
अभिप्रेत= अवांछित
विमा= आयाम/dimensions
सान्द्र= गाढ़ा
विगलित= पिघला
उत्पल= कमल
पूजार्ह= पूजनीय
श्लथ= थका
निर्वाक= चुप
अहर्निश= दिन-रात
विप्लव= विनाश
मादल= ढोल
================

प्रेम नहीं है?



करुणा के घट स्मितित मनोहर,
अगणित वर्षों से ढुलकाना।
रज में डूबे बकुल-फूल को,
नित प्रात विरज करके जाना।

भादो के जाते घन दल से,
कुछ अंजन ले कर आना।
मेघों के निर्घोष से चुन कर,
जल बूँद-बूँद कर छिटकाना।

ये तो कोई रिपुदल का,
विनियम आखेट नहीं है।
फिर क्यों नित्य कहा करते हो,
किंचित प्रेम नहीं है।

सिकते सूखे से कपोल पर,
मृदु आसव का लेप लगाना।
पाटल के सूखे विटपों पर,
चन्दन की सी गंध सजाना।

अरूप नेह की लता विहंगम,
श्वास पकड़ कर चढ़ जाना।
बन के हास निरुपम हिय का,
दिव मीलित, सुभीता कर जाना।

ये तो किन्ही तरुण गीतों के,
अनी की टेर नहीं है।
फिर क्यों नित्य कहा करते हो,
किंचित प्रेम नहीं है।

तूलिका से बातें कर कर के,
दूर यवनिका तक लिख आना।
निर्बंध अनल अभिसार बना कर,
रंगों की थाती बिखराना।

सीपी के उच्छ्वास बुलबुले,
चुनना, चुनते ही जाना।
मुक्ताफल के अनुनादों से,
अनुराग खींच कर ले आना।

ये तो किसी पूर्वजन्म के,
वलय का फेर नहीं है।
फिर क्यों नित्य कहा करते हो,
किंचित प्रेम नहीं है।

पूजा की थाली छू करके,
सब खील, बताशे कर जाना।
और स्मृति के हर एक कण पर,
रिद्धिमा की रोली बिखराना।

लोचन के कोमल अभ्रों का,
तोय निलय पर टपकाना।
स्नेह से पूरित वर्ण गूंथना,
गीत मृदुल गुनते जाना।

यह सब मात्र मेरे स्वप्नों का,
कोरा संकेत नहीं है।
फिर क्यों नित्य कहा करते हो,
किंचित प्रेम नहीं है।

संघर्ष पथ में...



गंडक-कोसी बह जाने दो.
आए निदाध तो आने दो.
जो लोल व्यथा की क्रीडा है,
उसको मल्हार बजाने दो.

सुरधनु सजें या नहीं सजें,
द्रुम सुमन उगें या नहीं उगें.
हो जीर्ण-विकीर्ण यदि नभ भी,
उरगों को गल्प सुनाने दो.

राका हर दिवस के बाद में हो,
हर वृन्त सदा आह्लाद में हो.
यह हर्षिल विभ्रम नहीं पालो,
सत को सिगड़ी सुलगाने दो.

आमोद-प्रमोद को मथ डालो,
आँधी-पानी में रथ डालो.
और गोत्र तनिक जो बहता हो,
उसको सहर्ष बह जाने दो.

अमर्त्य अराति विद्रूप कहे,
हर क्रीत विभा परित्यक्त रहे.
दग्ध व्रणों से भीत न हो,
जीवन तनिका तन जाने दो.

बस बहुत हुआ संध्या चुम्बन,
आरव-आरुषी का आलिंगन.
अब यह ललाट कुछ कलित करो,
दिनकर का तेज लजाने दो.

सोमिल लोचन में क्रोध भरो,
असि के विटपों पर क्षोभ धरो.
अतिरेक प्रगल्भा मूक रहे,
अहिअभ्रों को तोय लुटाने दो.

यदि एक टिटिहरी जिला सको,
जीवन का परिमल बहा सको.
अथ काल भी आड़े आ जाए,
शिख से नख तक जल जाने दो.

दुर्धर्ष मृषाओं से लड़ कर,
अति अनघ ऋचाओं को पढ़ कर.
नाहर से ऊँची श्वास भरो,
पितरों को तनिक गर्वाने दो.

यह जिजीविषा सम्मान रहे,
जीवन से ऊँचा नाम रहे.
उत्ताल भाल यदि देख वसु,
थर्राते हों, थर्राने दो.

क्षणिकाएँ...




तुम्हारे हाथ से...

अगली बरसात से पहले,
निचोड़ देना कुछ एक,
बादलों को मुठ्ठियों से।
वो खुशबूदार बरसातें,
कुछ मैं भी तो देखूँ।




सुकून की वजह..

रात की काली चादर पर,
जब एक सितारा भी,
ना तैयार हो टिमटिमाने को।
जाने कहाँ से टांक देती है,
माँ छत पर धूप के बादल।





जो कीमत दो...



धूप के मकान में रहती,
तुम एक अलसाई सी नदी।
रौशनदानों से झाँकता तिफ्ल,
मैं बेपानी बादल का टुकडा।
किसी सीली दोपहरी,
एक टुकडा धूप,
दो छल्ला भाप दे दो।
मैं बरसात खरीद लाऊँ।




क्यूँ?

बिलावजह का तुम्हारा,
लगातार बोलते जाना।
मेरा अरसे तक यूँ ही,
चुप रहना बिलावजह।
वजह होने की वजह,
ज़रूरी भी तो नहीं।




जब तक ना लौटूँ....

वक़्त को घूँट-घूँट,
कर पी लेना।
एक एक सब,
दिन काट लेना।
दुआ है तुम्हारी उम्र,
वक़्त से लम्बी हो।




लिखे बिना...

तुम्हे कुछ शब्द दूँ,
खुशबू की शीशीयों से?
मन के कमरों में खोलना,
ये नज़्म बन जाएँगे।




आवाजें...

कच्ची लकड़ियों के,
पुल सी मेरी चुप पर।
उछाल देते हो तुम,
खिलखिलाहट की एक गेंद।
लोग कहते हैं ग्लेशियर,
टूटा है दूर कहीं।




माँ...

कोने कोने तलाशती है।
देखे बिना मुझे,
तरस जाती है।
आने की तसल्ली,
भर से हुलसती है।
राह की हर धूप पर,
माँ बरस जाती है।




बदलने की कोशिश में...

कंचों को रोज तोड़ना,
सिर्फ इस उम्मीद में,
कि निकल आयें,
नीले-केसरिया बुलबुले।
तुम्हारे 'तुम' का कातिल,
तो मैं बचपन से था।

यदि कर सको...







दो अधूरे गज वसन में,
काट लेना शिशिर-पौष।
बुला लेना जीर्ण स्व को,
जोर से कौस्तु.....भ!!!!!!

एक युग तक जीना,
समेटे हुए आक्रोश।
कल्पों तक सुनना,
हितैषी क्षमा के गीत।

पुनीत पत्राँजलियों पर,
टेकना मत्थे-सीस।
सहेज के रखना,
ध्रुवनंदा की सैकत।

हो जाना पवित्र से,
ध्यान कर रसाल परिमल।
रोहिणी विलोचन,
आदि-अनादि-इत्यादि का।

प्रातः मरिचियों में,
धो लेना अमर्ष।
संभव हो यथा,
अथ स्व विमर्श।

एक वही है विक्रांत,
जिसने रच दिया,
तात, मनु को, गौतम,
शिवी-भगीरथ रहना नत।

द्युतमान अलौकिक मिहिर को,
देना अर्घ्य नित्य-प्रतिदिन।
गुनना ऋचाएँ जो कुछ,
महि से भी पुरानी हैं।

हो जाना निस्पृह-निस्पंद,
गोस्वामी स्व-सायुज्य।
लगे प्रकृति को भी यह,
विवृत प्राकृतिक ऋत।

किन्तु भू पर रह,
यह कर पाने को।
चढ़ना ही नहीं अपितु,
देग में खौलना होगा।

उरगों के निदाध को,
करना होगा जड़वत।
अरण्य का विजेता,
अमोघ नाहर बनना होगा।

यामा जब जब सुनाये,
सुरसा सी निर्दयी हँसी।
बन कर अजेय भास्कर,
धिनान्त के आगे लड़ना होगा।

निःसंकोच करो यापन,
जीवन बन निर्मल कण।
किन्तु समय कहे तो,
पौरुष भी तोलना होगा।

उठा कर महाबली भुजाएँ,
तड़ित से तेज गरजना होगा।
रख देने होंगे अश्वगंधा पुहुप परे,
भीषण आयुधों को धरना होगा।

स्वागत है तुम्हारा....


 


देख रहे हो मित्र?
लालित्य अटा पड़ा है,
हर पुष्प-वृंत-निकुंज पर|
सुथराई अलसाई है,
दूब के बिछौने पर|

चींटियों की जिप्सियाँ,
लगी हैं फिर खोदने,
जडें महुआ की|
चटकने लगे हैं,
कपास के बिनौले,
शनैः शनैः चट-चटाक|

पारस-पीपल और मधु-मालती,
ले लेना चाहते हैं,
हरसिंगार से कीर्तिध्वज|
फूल उठने को हैं सब,
गेंदे-गुलाब की घाटियाँ|

कछारों से लौट,
आए हैं सभी द्विज|
ले कर कुछ नए,
प्रवासी खग-विहग|

सुनते हो ना?
इनका अस्फुट-मीठा,
क्रंदन-कलरव-कोलाहल?

धुंधलके का रव,
कहीं से भी तनिक,
रीता नहीं है|
हृदय से स्वर मिलाता,
धवल गीत सुनो|

चैतन्य विभायें नभ की|
उद्दाम विभावरी स्वयं,
जो पोंछ गई है,
तारकों के आँचल से,
तनिक और स्वच्छ हैं|

सुदूर हिमाद्री और,
सतपुड़ा के अरण्य में,
उतारने लगे हैं भुजंग,
केंचुलियाँ, अहो यौवन!!

माँ गिन रही है,
फंदे-गोले-सलाइयाँ|
अमरुद के गाछ,
झुक आए हैं,
तुलसी के बिरवे तक|
हुलस आया रे मन!

बांसुरियों की लहरियाँ,
निकलने लगी हैं स्वतः|
है मुदित आलाप यह,
बाँस के झुरमुटों का,
अनिल का स्पर्श पा|
नहीं क्या मित्र?

उन्मत्त पुहुप लालायित हैं,
अलि-भ्रमर अतिहर्षित|
पिक-अबाबील की निरंतर,
कुहकन-टुहकन के स्वर,
पायस अनुभूति हैं,
स्मितित आनंद की|

प्रणयविभोर भास्कर की,
नव्या विभायें|
त्याग कर रोष क्लेश,
हो गई हैं हेमाभ|

पुण्य नगेश से मिल कर,
लौटे मित्र हेमंत!
करो स्वीकार स्वागत,
महि-व्योम के हर कण का|

उठो आर्य...






गूँथ ले गौरिल, गिरि बना,
तू मार्तण्ड को झीरी बना.
लिख पौरुष सरि के कण-कण पर,
हर एक चपला को केक बना.

हे मनुवत्स, यामाहंता!
तू उदक माँग सुरसरि से ला.
धो दे सैकत का हर खल कण,
उस पर प्रकाश का विपिन उगा.

पद पादप सब कुसुमासव हों,
चल अचला का कुछ पुण्य चुका.
तू देख न बाट पिनाकी की,
ले कालकूट और स्वयं पी जा.

कुंजर के नम्र निवेदन पर,
कब कूकर कहीं लजाता है?
वह देख दिगंत जो गोचर है,
गम्य-अगम्य पर ठेठ-ठठा.

अपने अस्त्रों के यौवन पर,
नित दनुज-दैत्य की बलि चढ़ा.
कुछ सीख ले बन्धु अनल से तू,
छिटपुट खाण्डव सब हटा-बढ़ा.

शांति के गीत की देवपगा,
समृद्ध गेह में बहती है.
हलधर की सूखी सरसी में,
दुर्धर्ष कृशानु ही रहती है.

हर शिला तोड़ दे तू अभीक.
कब बना कहीं भीरू दबीत?
जो प्रचुर प्रचेतस अर्जित है,
बन जा पवान्ज, रिद्धिमा बहा.

रख क्षमा ह्रदय में पेरूमल सी,
किन्तु ललाट को अशनि बना.
पहचान मृषा और अहिमन को,
पाखंडों के सिर हवन चढ़ा.

नरपतियों का इतिहास सही.
सैनिक मिथ्या आभास सही.
किन्तु वसुधा के वक्षमोह,
हर एक वह्नि में तू जल जा.

गूँथ ले गौरिल गिरि बना,
तू मार्तण्ड को झीरी बना.
होगा हर ऋण से उऋण वही,
जो कंचन-रेणु धुरि बना.






***********************************
***********************************
गौरिल= राई/white mustard
सरि= नदी
चपला= बिजली
केक= मोर
उदक= पानी
सुरसरि= गँगा
सैकत= रेत
पादप= पेड़/वृक्ष
कुसुमासव= शहद/मधु
पिनाकी= शिव
कुंजर= हाथी
देवपगा= गँगा
गेह= घर
सरसी= पोखर/ताल
दुर्धर्ष= मजबूत
कृशानु= आग
अभीक= भयहीन
दबीत= योद्धा
पवान्ज= हनुमान
पेरूमल= विष्णु
अशनि= वज्र
मृषा= झूठ
अहि= सर्प
वह्नि= आग

हाशिये पर...



भक्क लाल आँखों में,
जब पसरी हो नींद,
नींद से कोसों दूर,
खार खायी कैकेयी सी|

मैं भींच लेता हूँ,
पसीजी हुई मुठ्ठियाँ|
और फिर अचानक,
देता हूँ उन्हें खोल|

देखता हूँ एकटक,
हलके पसीने से टिमटिमाती,
तीनो लकीरें जो,
धुंधलाती जाती हैं,
ठीक रात जैसी ही|

उठाता हूँ कलम|
घूरता हूँ कागज़|
और फिर अच्छा सा,
एक नाम सोच कर,
खींच देता हूँ हाशिया|

नाम जो,
तुम्हारा भी हो सकता है|
तुम्हारी सोच भी,
तुम्हारे न होने की,
निर्निमेष पीड़ा भी|

लिखता हूँ एक शब्द|
पसंद नहीं आता|
घुमाता हूँ कलम,
उसे काटने को|

वो घिघियाता है,
मेमना? बछडा?
स्कूल नहीं जाने को,
जिद करता बच्चा?
शायद वैसे ही|

आँखों के सूने कोरों से,
कुछ गिर जाता है|
टप्प!!!
तुम्हारा कथित दोष!
मैं मुक्त हुआ,
शब्दहंता अपराध से|

नया कागज़, नए हाशिये,
फिर से वैसे ही शब्द|
माजी के जाले,
कौन सी दीवार,
बदरंग नहीं करते?

शब्द पूरे नहीं पड़ते|
यादों के कमजोर पाल,
नहीं लांघ पाते,
हाशिये पर लिखी,
एक भी नदी|

सुबह तक टोकरी में,
पड़ा है जिस्ते का हर कागज़|
रात कविता नहीं हुई|
यों तुम्हारी कविताएँ हैं,
हाशिये के उस पार|

बुहार देता हूँ|
या कम से कम,
प्रयत्न करता हूँ|
बुहारने का अवशेष,
तुम्हारी स्मृतियों के|

मेरे यत्नों से विमुख,
हर शब्द हुआ|
इन रातों को और,
एक अब्द हुआ|

दीवाली की हर रात,
दीयों बीच चुपचाप|
जलती हैं तुम्हारी,
कविताएँ हाशिये पर|






*अब्द=वर्ष

बेहतर खुदा..



अमुक तारीख को,
भरनी है फीस.
लानी हैं चप्पलें,
नई एक कमीज.

अमुक इंसान से,
पूछना है कहीं,
मिल रही हो साइकिल,
कम दाम में.

अमुक स्कूल जा,
करना है पता.
छठवीं का फॉर्म,
कब निकलता है?

अमुक सड़क से हो,
जाना है घर.
व्याकरण पढ़ाने को,
वक़्त बचता है.

अमुक दुकान से,
खरीदने हैं पटाखें.
परिचित है अहमद,
अच्छे पटाखे देगा.

अमुक दुकान से,
खरीदने हैं लड्डू.
चश्मा फिर कभी,
आज दिवाली है.

असीम स्नेह में,
ऐसे कितने ही,
दिन-हफ्ते-साल,
अमुक कह कर,
मूक रह कर,
काट दिए तुमने.

जाने कहाँ-कहाँ से,
चुने जीवन पुष्प.
निहारे बिना ही,
एक क्षण भी,
हममें बाँट दिए तुमने.

सुनो अब्बा!
मिले किसी मस्जिद,
तुम्हारा अमुक खुदा.
तो कहना फ़क्र से,
तुम बेहतर खुदा हो.

योद्धा का हठ...



हठ बिन केवल तप करने से, 
है कौन भला बलवान बना?
जो शीश लगाए रेणु को, 
वो मनु-पुत्र महिपाल बना.

शलभ-शलभ, ज्योति-वर्ति,
किस-किस की है कितनी कीर्ति?
बिन आँख लड़ाए नित तम से,
है कौन मिहिर उत्ताल बना?

जब पाँव छुए रत्नाकर के,
किष्किन्धा में हा मित्र!, कहा.
उस तक को भला सुना किसने,
था म्लान राम का भाल बना.

सन्नाटे को गुनते-गुनते,
चुपचाप को चुप सुनते-सुनते.
और दुबका पूस की रातों में,
है कौन पुरुष विकराल बना?

नील व्योम और हरित वृंत,
किस दृग को नहीं लुभाते हैं?
किन्तु बिन श्रमस्वेद की बूँदों के,
कब कहो कौन सा ताल बना?

हैं स्नेहिल से शब्दों के जाले,
मधु से मीठे वचनीय प्याले.
किन्तु यूथी वल्लरियों से,
रे सदा ही बस जंजाल बना.

पीत पाँव और स्वर्ण नुपुर,
चन्दन देह, लिपटा दुकूल.
जो ह्रदय इन्ही में रम पाया,
फिर वज्र का कहाँ कपाल बना?

दृग-पुलिनों पर जो रोष न हो,
भृकुटी-भृकुटी आक्रोश न हो.
तो वचन तुम्हारा क्षमा का भी,
था मरा हुआ, बेताल बना.

कल रात गिरा वो किसलय था,
बिन संरक्षण, बिन आलय था.
किन्तु जो रहा घिरा कंकड़,
वो कभी कहाँ भूचाल बना?

जो रण में दंभ दिखाता है,
ले ओज पवन से आता है.
वह शूरवीर वह तेजस्वी,
वही शत्रुहंता, काल बना.

तुम मुक्त हो...



मत जलो!
ना रखो रोष-आक्रोश.
सच कहूँ?
नहीं जंचता क्षोभ तुम्हारे,
दीप्त रुक्म ललाट पर.

आओ!
पवन की पालकी पर,
चीर आओ शत वितान.
अगणित पुलकित स्नेह के,
लौटा दें दिये-पाये,
श्वास-मौन-हास-परिहास.

मिलो!
उदीप जलराशि में,
या जलधि के किनारे सही.
उडेल दूँ तुम्हारी,
हर स्वाति की बूँद.
तुम चटका दो मेरे,
पगे प्रेम का घड़ा.

चलो!
महि पूछती रहे,
कहाँ हैं अब वो,
दायें-दायें, बायें-बायें,
जोड़े पाँवों के?
करके अनसुना सब,
बाँट लें स्मृतियाँ.
आम पर लगे बेर,
बेर से आम की बौरें,
बेमेल हैं, काट लें.

किन्तु यदि उसके बाद,
कुछ त्रुटी-पर्व-कल्प,
तक रहूँ मैं निश्चेट.
न रुकना!
ग्लानिहत, कांतिहीन,
आत्मदोषी न बनना.

उत्ताल रखना ललाट,
गुंजायमान ध्वनि,
हर्ष की रेखाएँ हेमाभ.

कोई यदि मिले उस लोक,
और पूछे तो कह सकूँ.
मिहिर से जो प्रदीप्त है,
वो मित्र था मेरा कभी.


चुप नहीं जिन्दगी...

तुम्हे छू कर जो,
हो गयी थी मुकम्मल.
आजकल मुझसे,
हर एक दिन का,
हिसाब मांगती है.
जिन्दगी फिर भी,
चुप तो नहीं.




अव्वल...

नसीब-तमीज-हुनर,
से झगड़ कर.
वो हाशिये पर,
लिखती है ऱोज,
मेरी जिन्दगी.
बगैर सफाई के,
नम्बरों भी,
अव्वल है अम्मा.




जो रुकती जिन्दगी...

रुक जाती तो,
एक बारगी मुड़ के,
देख लेता तुम्हे.
या करता इन्तजार,
तुम्हारे आ जाने का.
जिन्दगी में कमबख्त जिन्दगी,
रुकती क्यूँ नहीं?




उस पार जिन्दगी...

अपनी-अपनी लकीरों से,
घिरे अजनबी शख्स.
एक से दिखते,
महसूसते होंगे.
और सोचते होंगे,
खुशनसीब है,
उस पार जिन्दगी.




कलम..

तुम्हारे बारे में लिख देना,
या तुम्हारा छू लेना इसे.
दौड़ जाता है रगों में इसकी.
जिन्दगी काश मेरी भी,
इतनी ही आसान होती.






कैद जिन्दगी...

वो चुनती है रोज़,
गुलमोहर की पंखुड़ियाँ.
मैं भींचता जाता हूँ,
खुशबू छुपाने की,
मुसलसल कवायद में.
घुटते-घुटते ही,
घुल जाती है जिन्दगी.




जिन्दगी तारों की...

टिमटिमाते तारों में जरुर,
जिन्दगी होती होगी अम्मा.
दिन-हफ़्तों में गोया,
रूठ जाया करती है.




बदल दें...

मेरे लिए देखते सपने,
बुनते-बनाते रास्ते,
जो खप गई,
तुम्हारी पूरी की पूरी.
आओ अब्बू अब वो,
जिन्दगी बदल लें.

तुम श्रेष्ठ हो...




तुम्हारे सवर्ण गीत,
जो हैं अतिगुंजित.
धरा-व्योम-क्षितिज,
के पार-अपार.

अनचाहे ही यत्न,
करता हूँ गुनने का.
अपनी तारहीन,
निस्पंद आत्मा से.

प्रिय पुनीत पुष्प,
जो खिलते हैं बस,
तुम्हारे मन के,
पुलक अरण्य में.

काट लेता हूँ नित,
उनसे एक कलम.
मेरे निकुंज में भी,
संभवतः वसंत विराजे.

नैसर्गिक सौंदर्य जिसकी,
परिभाषा लिखी है.
सौम्य शीतलता से,
मुस्कान पर तुम्हारी.

उसकी चोरी के,
चुपचाप प्रयत्नों में.
जाने कितने ऋण,
लिए हैं पवन से.

हिमाद्री हिम से धवल,
मंत्रोच्चार से पवित्र.
तुम्हारे व्याकरण पुंज,
पाणिनि प्रतिष्ठित वाक्य.

दोहराता हूँ अथ,
संवाद संवाद स्वर.
मेरे वाग्जाल भी,
पा सकें मृदु आकार.

किन्तु जब हो,
जाता हूँ अतिदीप्त.
औ समस्त मनुप्रदेश,
करता है जयघोष.

यह मिथ्या पराक्रम,
अंतस में चुभता है.
जैसे प्लावित अनंत से,
अतिशय लावा ईर्ष्या का.

सत जाना जब तुमसे,
अनघ स्पर्श पाया.
कपटबुझा प्रेमहीन मैं,
मात्र दीप ही बन पाया.

समस्त उपक्रम तेज से मैं,
तुम्हे रोकने में रहा अक्षम.
सघन प्रेम में रोम-रोम पगे,
तुम कहीं श्रेष्ठ को शलभ.

गतिमान द्रव्य...



तपती दोपहरी की,
जलती रेत में.
सूखते कंठ और,
टूटते घुटने.
जब किसी,
रट्टू तोते की मानिंद.
होते हैं,
देने वाले जवाब.

ममतामयी एक बूँद,
मंदाकिनी सी,
निकलती है लटों से.
और चुह्चुहाया पसीना,
लहलहा देता है,
नवश्वास के पुष्प.

भृकुटियों पर उग आए,
उस संतोष के आगे,
थर्रा जाता है.
एक क्षण को,
दबंग जेठ भी.

पाताल तक सूख चुकी,
बनास के थार में,
कंकडों-पत्थरों के बीच.
जो टप से,
गिर जाती है,
एक स्वाति की बूँद.
तुमसे मिलती आँखों से.
तो मानों हिलोरें,
ले उठते हैं दोनों,
हिंद-प्रशान्त एक साथ.

ठिठुरते पूस के साथ,
सकुचाये चिल्लरों में.
जब लगता है अब,
सब जम जाएगा.
निस्पृह-निस्पंद अवशेष,
खोदेगा भविष्य.

नेपथ्य से उसी क्षण,
गरज उठता है,
अतिउष्ण हो गोत्र.
मानो लील लेगा,
शीत का कण-कण.

जीवन को जीवंत और,
उत्ताल रखने वाले,
हर एक द्रव्य,
तुमसे ही प्राप्त हैं.

हर शिरा रोम में,
परमपूज्य तुम,
आदि से अंत तक,
गतिमान हो जननी.

क्षणिकाएँ (आईने)...




तुम सा मैं...

झपकती पलकों से,
रोज़ उतरता जाता है,
तुम्हारा अक्स मेरे भीतर.
दोष नहीं थोड़ा भी,
मेरे घर के आईनों का.




आँख आईने की...

बहा बाजुओं से मेरी,
या तेरी आस्तीन से निकला.
खूँ में फर्क नहीं करता,
माँ की तरह आईना भी.



अक्स के पीछे...

तुम चुनती हो,
दर्द के फूल.
मैं घोंटता हूँ,
उनसे रोज़ इत्र.
दिखाता है मेरी बेढब हँसी.
मुआ आईना कोई,
खुशबू नहीं दिखलाता.




अब्बा...

उनकी पेशानी के बल,
आयते हैं कुरान की.
आँखों के घेरे हैं,
सुन्दरकाण्ड की चौपाइयाँ.
समय के आईने में,
कभी अब्बू को देखो.





माँ...

जितने दिन होता हूँ घर पर,
नहीं देखती है आईना.
मेरे नहीं होने पर,
हर आईने में,
ढूंढती है माँ मुझको.




और आईने..

मेरी मुस्कराहट का दर्द,
तो नहीं पता लगता तुम्हे.
जो झूठ नहीं बोलते,
वो आईने और होते होंगे.




कुछ वक़्त हुआ...

धुंधलाने लगा है,
मुझमे तुम्हारा अक्स.
जब से तुमने कहा,
बदल दें पुराने आईने.

प्रणाम..



महि पर छितरे मेरे शब्द,
जिनके वर्ण भी धूसरित हैं,
रहते हैं सदैव आकुल,
हो जाने को विलीन,
घुल जाने को निस्तेज.

अमिष अनुभूति से रचे,
मेरे अकार आक्रान्त वाक्य.
वाग्जालों में उलझ कर,
दिखते हैं संज्ञाशून्य,
अवसाद में धंसे हुए अतिरथ.

हठी प्रचेतस प्रदोष,
लगने लगता है तनिक,
और हठी, और विशाल.
विपुल विक्रांत गीत,
रमते हैं समूह क्रंदन.

अदम्य ललक औ अभिरुचियाँ,
निस्पृह हो जाती हैं नित्य.
अहिजित ह्रदय होने लगता है,
हर फुंफकार पर कम्पित,
पर्वत से बन गौरिल.

ऐसे में अनघ स्पर्श तुम्हारा,
रच देता है उल्लास पर्व.
तुम्हारा अमिष आशीष,
कर देता है प्रदीप्त,
प्रचंड धिपिन प्रद्योत.

दृष्टि का अरिहंत पुंज,
कर देता है भस्मीभूत,
शब्दों के सभी विकार.
अभीक ओज देता है,
उन्हें अघोष तेजस्वी आकार.

द्युतमान अनुकम्पा के वचन,
स्नेहिल मलय-परिमल सम,
लेते हैं स्वरुप परिण का.
और वाक्य पा जाते हैं मेरे,
हेमाभ उचित मृदु विन्यास.

ऐसे अतिपुण्य क्षणों के असीम,
उदीप क्षणों में डूबता-उतरता,
मेरे स्व का तुरंग,
बस इतना ही सक्षम है.
हर रोम-स्पंदन का प्रणाम,
स्वीकार करो तात!!




************************************
महि= धरती
अमिष= छल रहित, ईमानदार
अतिरथ= योद्धा
प्रचेतस= बल
प्रदोष=अँधेरा
विक्रांत=बलवान
निस्पृह= इच्छाहीन
अहिजित= जिसने सर्पों को जीत रखा हो
गौरिल= राई/white mustard
अनघ= पुनीत
धिपिन=उत्साहजनक
प्रद्योत=चमक
अरिहंत= शत्रुओं का नाश करने वाला
अभीक= भयहीन
द्युतमान= चमकदार/तेजस्वी
परिमल= सुगंध
परिण=गणेश
हेमाभ= सोने जैसा चमकदार
उदीप= बाढ़
तुरंग= घोडा/मन

दे सकोगे वचन...



एक दिन!
एक दिन मैं भी बैठूँगा,
इसी पथ अपलक.

करूँगा मैं भी प्रतीक्षा,
खड़ा ले पाँगुर गुच्छ,
साष्टांग, हो दंडवत.

बाँधूँगा केसरिया फेरी,
रखूँगा हाथ पर धूप,
निष्कंप, जड़-यथावत.

सभी की भांति,
मैं भी छूऊँगा सीधा,
हल्दी-गोंद-कंद-अक्षत.

करूँगा मैं भी परिक्रमा,
पीपल वटवृक्ष की,
रखूँगा आस्था से हर व्रत.

टुहुक-टुहुक मैं भी,
करूँगा स्वरीय प्रेम,
जब गाएगी मधुर पिक.

नत होऊँगा श्रद्धावश,
जब रक्तिम होगा दिगंत,
और मिहिर बनेगा चरक.

एक दिन!
एक दिन मैं भी,
छोड़ दूँगा हर रण.

धोऊँगा मैं भी,
धमनियों को गंगाजल से,
रोऊँगा शायद बिलख.

शीश नवाए माँगूंगा,
भिक्षा में क्षमा सबसे,
धरा-प्रकृति-शिख-नख.

एक दिन!
एक दिन सौंप दूँगा,
तुम्हारा ही छोड़ा,
तुमको ही धन.

ले जाओ, सिखाओ,
धर्म, दया, क्षमा,
दिपदिपाओ स्वर्ण-रजत.

उतार कर कवच,
सह लूँगा कृपाण.
बहा दूँगा गोत्र अपना,
मूक, निर्विवाद, निष्कपट.

किन्तु एक दिन,
सदाशयता के साथ,
ऊँचा भाल किये,
लेने अपने राहुल को,
सचमुच तुम आओगे?

वचन दो गौतम!!!

मेरे लिए अब तक,
तुम बुद्ध नहीं हुए.

शेष संवाद...



मैं नीलम मेघ नहीं नव्या,
जो तुम पर झम-झम कर छाऊँ.
श्वेत-शुष्क सा फाहा हूँ,
नभ का किंचित अवशेष कोई.

कोई नव लतिका का गात नहीं,
कहूँ प्रिय और प्रणय स्पर्श पाऊँ.
बस फुनगी का एक किसलय हूँ,
इससे ना तनिक विशेष कोई.

नंदन वन का मैं अलि नहीं,
जो गुंजू, गीत मृदु गाऊँ.
मैं हिम-तुषार की पीड़ा हूँ,
ना सीपी का सन्देश कोई.

ना पीत पुष्प मैं यूथी का,
जो दूँ सुगंध, झर-झर जाऊँ.
हूँ ठूँठ किसी एक बीहड़ का,
पर रखता नहीं हूँ क्लेश कोई.

युग युग का स्नेह छलक जाए,
मैं सौगंधों से धुल जाऊँ.
ऐसा तो कोई प्रमेय न था,
था स्नेह का एक निमेष कोई.

स्निग्ध शांत या हहर-हहर,
संदीप वायु सम बह जाऊँ.
निश्चय ही स्नेह नहीं रखना,
ना रखना किन्तु द्वेष कोई.

हूँ बलि नहीं, ना शिवि हूँ मैं,
जो तारक माँगो नभ लाऊँ.
हाँ कुछ ज्योति दे पाऊँगा,
ले दीपक जैसा भेष कोई.

जो मैं कपूर की गोटी हूँ,
है अतिसंभव मैं घुल जाऊँ.
किन्तु मेरे ना होने पर भी,
संवाद रहेगा शेष कोई.

यह युग...




यह युग है,
लिख देने का,
सुलगती कविताएँ.
उड़ेलने का संत्रास.

यह काल है,
जहाँ समय नहीं रहता.
नहीं दौड़ता, दौडाता है,
बन कर महाकाल.

चुह्चुहाई बूंदों से सने गाल,
और कई रात जागी,
भक्क आँखों से उठते,
भकुआए धुंएँ का.

सामीप्य के अवश्यम्भावी,
अलगाव को मानने का.
यह युग है सीपीयों से,
स्वाति छीन लाने का.

लेकर आस्तीन में,
गर्म भक्क तारकोल.
समय है रंगने का आसमान.
इन्द्रधनुष छिन्न-भिन्न करने का.

चुन-चुन के पलाश,
खांडव वन जलाने का.
वर्तमान है कपास को,
शिरा-द्रव्य से नहलाने का.

कोयलों पर टोना कर,
उन्हें मूक बनाने का.
गुलमोहर को छुटपने से,
अम्ल पिलाने का.

युग है बनने का बुद्धजीवी,
काम से समय निकाल,
मनन करने का बाईस घंटे.
स्वयं को छोड़,
प्रत्येक को कोसने का.

किन्तु इन सबसे परे,
तुम नहीं बदली तनिक.
तुम्हारा बेटा ही रहूँ माँ,
मैं यह युग, कविताई छोड़ दूँ.

महानता...



कठिन है ठीक से,
समझ पाना तुम्हे.
कितने आवरण हैं,
नेह के तुम्हारे?

आवृत्ति और पुनरावृत्ति,
के ठीक बीचों-बीच.
कहाँ-कहाँ और क्यूँ,
रुकते ठिठकते हो?

'होने' और 'लुप्त होने',
के बीच का,
तुम्हारा अजनबी प्रेम.
मृतप्राय पर हठी,
तुम्हारा आभास.
वहीँ खडा मिलता है,
लिए उद्दात असीम,
लेकिन संकुचित अपनापन.

पत्तों सी तितलियाँ,
या तितलियों से पत्तों,
के बीच का यह,
दृष्टिभ्रम अथ सौंदर्य.
तुमसे ही है या,
रचा है तुम्हारा?

मेरे पारे की चुपचाप बूंदों,
या नमकीन काँच के शरबत.
और तुम्हारी बासाख्ता,
चिल्लाती ख़ामोशी को,
जोड़ने वाले तार क्या हैं?
तुम्हारी गर्माहट से,
पिघली सलाखें या,
ठन्डे हाथों से जम चुकी,
कड़ियों वाली जंजीर?

घबराओ मत!
उत्तर की अपेक्षा नहीं है.
यूँ भी तुम्हारे,
क्रमबद्ध, संगीतमय, कवितामय,
रंगीन उत्तर मुझे,
समझ नहीं आत़े.

हाँ!
कभी मिलो क्षितिज के पार,
जहाँ तुम्हारा रंगीन,
धनुष ना हो.
काला  हो सूरज,
पिघल चुकी हो चाँदनी.

उस दिन उत्तर देना.
कितना बचा था प्रेम,
तुम्हारी हर क्षण की महानता में?

अवसान से पहले...



मिहिर अस्त हो चला है,
सुस्त-सुस्त सी धरा है.
श्रान्त दिखती हैं भुजाएँ,
फिर भी मैं उत्ताल हूँ.

मंदप्रभ है भाल मेरा,
दीन-हीन हाल मेरा.
अलक-पलक झरे-झारे,
फिर भी मैं विकराल हूँ.

मुकुर में घावों के छींटे,
छाती स्वयं को ही पीटे.
शोक के इस मौन में,
मैं रोष का भूचाल हूँ.

ठोस-कुटिल श्वास हुई,
मृत्यु का आभास हुई.
हूँ नचिकेता नहीं पर,
हठी हूँ, बेताल हूँ.

मंजु मितुल हास जो था,
तप्त सा परिहास बना.
तम की है जो खाप चलो,
मैं भी महिपाल हूँ.

वात से मलय लजाया,
अघर्ण को राहु ने खाया.
कीट-कीट है धरा तो,
मैं भी महाव्याल हूँ.

मूक अभ्र रक्त भरे,
जैसे हैं चांडाल खड़े.
किन्तु मैं निर्भीक खडा,
दबीत का कपाल हूँ.

सूर्य की सौगंध मुझे,
रक्त ये झंझा करेगा.
धमनी में सोता झरेगा.
खड़ग ये दिप-दिप करेगा.
एक दिवस तम कहेगा,
मैं उसका महाकाल हूँ.




=================
श्रान्त= थका हुआ
उत्ताल= बहुत ऊँचा
मुकुर= आईना
मितुल= मित्र
अघर्ण= चन्द्रमा
दबीत= योद्धा
अभ्र= बादल

नज्में कलाई पर...



किसी अबाबील को,
शरद की ओस का,
सच्चा लालच दे,
मंगाती हैं रंग,
समय की दुकान से.

तरेर के आँखें,
चिढाती हैं कि,
गर्म हो सूरज.
और बरसात में से,
चुन के उड़ाए,
केवल गंगाजल.

चावलों के बाद,
रोज खाती हैं,
तुलसी के गुच्छे.
साँसें भी बस,
पावन ही निकलें.

कहती हैं नासपीटा,
बेचारे कपास को.
ताकि सहमा हुआ वो,
चुपचाप दे जाए,
सबसे अच्छा रेशा.

कात कर वक़्त,
अपने सपनों से,
गूंथती हैं रोज,
नीले-पीले-गुलाबी,
चमकीले धागे.

रात छुप के,
करती हैं इन्तजार.
और धप तोड़,
पहला हरसिंगार,
जड़ देती हैं धागों पर.
आँखों में जमाया,
गाढ़ा गोंद निकाल.

माँग कर फुर्सत,
कृष्ण-राम-दुर्गा से.
करती हैं आराधना.
शायद इस बार,
सुन लें चिट्ठीरसां.

वो धागों से ही रखती हैं,
आँख भाई पर.
जो हँसती हैं तो बजती हैं,
नज्में कलाई पर.

***********************************************
***********************************************

बहनें भी....

बुखार हो,
और माँग बैठूँ,
पानी कभी.
ये सोच के,
कम सोती हैं.
दीदी हों, गुडिया हों,
बहनें भी,
माएँ होती हैं.

नहीं माँगता...



ना दो मुझको सौम्य सरोवर,
मुख पर स्थायी कांति का वर.
स्नेह तरु विस्थापित कर दो.
ना दो किसी विपत्ति का हल.

रेंग-रेंग के नहीं माँगता,
मैं तुमसे अमरत्व का फल.
तीसी के पिघलेपन सा है,
दृगों का मेरे हीरक जल.

सौ युग के ग्रंथों का राजा,
हर पूजा में पुष्प जो साजा.
पुण्य कोटि गोदान के जितना,
मंदाकिनी का शीतल जल.

मुक्ताफल अनुनाद तरंगी,
मिहिर व्योम छटा सतरंगी.
इनकी जगह प्राप्य हो मुझको,
प्रपात का भीषण कोलाहल.

मृदु पुष्पों के कोमल उपवन,
सुर-स्वर का मीठा एकाकीपन.
रजत-स्वर्ण सा दिप-दिप करता,
रेणु-पथ बन कर कंचन दल.

ऐसे गीत नहीं गुनने हैं,
सपने पीत नहीं बुनने हैं.
अणु-अणु से उर्वर होना है,
जेठ के ढीठ प्रभाकर जल.

घंटा औ घड़ियाल ध्वनि,
नव मधु का जो उच्चार बनी.
नव्या सी यह प्रातः बेला,
जो सुरभित से सपनो ने जनी.

इन मेहुल स्वाति बूंदों में,
नहीं है जाना मुझको घुल.
भीषण रण चिंघाड़ निहित है,
अजित भुजाओं का अतिबल.

स्मित सुख से कुसुमित जीवन,
मिलन-इंदु सा सुख-वैभव धन.
और विरह की बेकल झंझा,
मुखर कल्पना भरे अधर.

मेरी गति को नहीं चाहिए,
ऐसे सीले नैन युगल.
तम को जो कर जाए तिरोहित,
हो वो हिय में ज्वालादल.

अवसान नहीं अवनति कोई,
है प्राण-वायु की गति कोई.
लम्बे पर भंगुर जीवन से,
अच्छा है बह जाऊं कल-कल.

देवों तुम अपने तक रखो,
यज्ञजनित यह पुण्य के फल.
मेरा पौरुष निष्कूट जलेगा,
नित संघर्ष के दावानल.

रेंग-रेंग के नहीं माँगता,
मैं तुमसे अमरत्व का फल.
तीसी के पिघलेपन सा है,
दृगों का मेरे हीरक जल.

जो तुम होते...



रोष जनित यह मौन तुम्हारा,
करता है आघात प्रिय.
इससे तो किंचित अच्छा था,
रव का भौतिक उत्पात प्रिय.

उज्जवल नभ का नील वर्ण,
औ मन उपवन का हरित गात.
सब मौन की काली छाया है,
सन्नाटे का आलाप प्रिय.

कुहकनी के लब्ध स्वरों में थे,
जो स्नेहिल पुट आत्मीयता के.
वो अब तुषार के काँटें हैं,
धमनी-धमनी संताप प्रिय.

मैं दीप बना इतराता था,
नित शलभ मार गर्वाता था.
अब किस पानी में डूबा हूँ,
जो बहता है बेनाद प्रिय.

अपनेपन के अवगुंठन बिन,
स्मृतियों में है तीखा कम्पन.
अनुरंजित कलियों का वैभव,
लगता है ओछी बात प्रिय.

पराग बुना करते दुकूल,
रेणु-पथ पर था संगीत विपुल.
हर स्वर कलरव अब अस्फुट हैं,
गीतों से उड़ती भाप प्रिय.

नव अशोक के राग-राग,
यूथी के स्वर्णिम पुष्प-पात.
इनका यौवन एक भ्रम सा है,
तेरी आशी के अनुपात प्रिय.

तुहिन विन्दु सा अक्षत हास,
करता था तुममे निवास.
अब सीपी स्वाति की बातें,
हैं पावस का परिहास प्रिय.

संसृति के अगणित तारों में,
आँसू थे सदा मुदित निर्झर.
सारे अब खारे सागर हैं,
हर ठौर ही रखे घात प्रिय.

दृग-पुलिनों पर हिम सी करुणा,
पावन गंगा अति मृदु वरुणा.
यह सब कुछ काई-काई है,
तुमको भी तो है ज्ञात प्रिय.



*****************
दुकूल= एक प्रकार का कपड़ा
यूथी= जूही
आशी= मुस्कान
तुहिन= शीत ऋतु/ तुषार
वरुणा= एक नदी
रेणु= मिटटी से उत्पन्न/बना

मुझमे तुम सा...



अतीत की काश्तकारी,
सिर्फ हाथ की लकीरों,
पेशानी के बलों,
लटों की रंगत तक रहती.
तो कौन कहता उसे,
जादुई, छलावा, बाजीगर?

वो तो चुपके से उठाता है,
पुख्ता और बेरहम हथौड़ा.
और सधे हाथों से,
छिलता-फाड़ता जाता है,
रूह की छत-ओ-दीवार.

तुम्हारी सकुचाई सी याद,
भागने की फिराक में,
हर कोने से टकराती है,
टूटती है, खोती है.
जड़ों से छूट कर खो जाना,
नियति है शायद.

पलकों के पुराने किवाड़,
भींचते-भिड़ाते भी,
निकल आता है थोड़ा लोहा.
चेहरा यूँ ही तो सख्त,
नहीं दिखता मेरा.

भोर से ठीक पहले तक,
बिना हिचकियों के,
कोशिश करता हूँ रो लूँ.
आवाज से सन्नाटा,
ना जाग जाए कहीं.

सुनो!
पाँगुर के फूल नहीं आत़े,
अब किसी भी दरख़्त.
हाँ! तालाब में वो,
तुम्हारी हमनाम मछली,
अब भी है.

सतह पर सरसराती है,
मैं दिमाग पर जोर देता हूँ.
कुछ तो याद रह जाए.

पानियों के निशान,
ज़िंदा नहीं रहते.

उस एहसास में,
छिटक जाती है,
एक और बूँद,
तुम्हारी याद की.

कुछ और अधूरा सा है,
मेरा अक्स आईने में.
और ताल का पानी,
कुछ-कुछ तुमसे मिलता है.

बिलकुल भी तो नहीं,
तुममे मेरा हिस्सा सा...



मेरा सोचना.
और सोचते ही जाना.
लगातार-निर्विकार-निर्द्वंद.
त्रुटी-क्षण-युगों-कल्पों तक.

मेरा देखना.
और देखते ही जाना.
चुपचाप-आँखें फाड़- अपलक.
खिडकियों-दीवारों-बादलों-आसमानों के पार.

मेरा चलना.
और चलते ही जाना.
सतत-अनवरत-निरंतर.
गली-शहर-देश-काल से परे.

मेरा रुकना.
और रुके ही रहना.
जैसे विन्ध्य हो प्रतीक्षारत.
अगस्त्य कभी तो लौटेंगे वापस.

मेरा रोना.
और रोते ही जाना.
की इसी से मिट जाए सूखा.
"इसकी" बजाए "इसमें" मिलना हो गँगा को.

मेरा सोना.
और सोते ही जाना.
खुली आँखों से ही.
आखिर खँडहर में कपाट क्यूँ हो?

और फिर किसी दिन,
सुबह से ठीक पहले.
तोड़ देना इस पाश,
पत्थर-पलाश के ठीकरे को.

ठीक उसी क्षण,
जब की अन्धेरा.
होता है गहरा,
अँधेरे से भी ज्यादा.

फिर सब कुछ.
बिलकुल सब कुछ.
जुलाई की किसी,
सीलनाई दोपहर,
बहा देना माट्ला* में.

कोरे पन्नों की,
कविताओं के संकलन.
बंगाल की खाड़ी में,
छपते हों शायद.

बकौल तुम...
"हर बात लिख के कहना,
जरुरी तो नहीं."






माट्ला*= बंगाल की एक नदी का नाम

साँकलों के पीछे...



कुर्सी टेबल,
कलम-दवात,
कूची-पानीरंग.
मीठी रोटियाँ,
गुड वाली.
इनके बीच,
देखता था,
चाँद जितनी ऊँची,
दरवाजे की साँकलें.
जिन्हें सिर्फ अब्बू,
खोलते थे.

माँ से बतियाते,
रोटियाँ दो,
कम ही खाते.
टाँकते टूटा बटन.
प्रेस लगाते,
साँझ धोई,
इकलौती पतलून पर.
पूछने पर भी,
"कुछ नहीं बेटा"
बोलते थे.

कोई बहत्तर,
साल पुरानी,
दिवाली के,
कबाड़ से,
निकाल फेविकोल.
हनुमानी चश्मे,
का फ्रेम जोड़ते.
पुरानी डायरी में,
जाने क्या तोलते थे.

कक्षा दो, फिर तीन,
पार करता रहा.
मैं, मेरा कद,
बढ़ता रहा.

कल अब्बू से,
नज़र बचा.
ये साँकलें,
मैंने भी खोलीं.

तो चिलचिलाता,
सूरज कहता है.
"चल भाग!
तू खुदा नहीं है,
मर जाएगा."

पलाश और करेली...


"तुम पलाश के अमर पुष्प हो,
मैं कडवी सी बेल करेली.
कैसे अपना नेह बनेगा?
करते क्यूँ कर हो अठखेली?"

"हे सत्वचन, सदगुणी, गुनिता!
अम्लहरिणी तुम श्रेष्ठ पुनीता.
मैं अरण्य का बेढब वासी,
तुम युग-युग उपवन में खेली."

"मंगलवर्ण, रुक्म तुम जीवक,
उत्सव-क्रीडा के उत्पादक.
मैं हूँ हेयदृष्टि की मारी,
कालिख से है देह भी मैली."

"रूपक कितने दिवस रहा है?
किसने कितना सूर्य सहा है?
तुमने हर क्षण प्रेम उचारा,
हंस कर कोटि उपेक्षा झेली."

"देव तुम्हारे वचन स्निग्ध हैं,
वेद-ऋचाओं से ही लब्ध हैं.
इतना नेह सहूँगी कैसे?
रही है निंदा बाल्य सहेली."

"गरलगंट के फन के आगे,
उचित नहीं बनना पनमोली.
आती तुम बन क्षार चंडिका,
वायु जब होती है विषैली."

------------------
पनमोली= मीठा बोलने वाली स्त्री 
गरलगंट= विषैला नाग

उचित चुनाव....


सलिल सरोवर ढक कर रखते,
हे निमेषद्वय सुन लो.
श्रावण की बूंदों संग आए,
मल्हार कोई एक चुन लो.

मैं दीपक वर्ति संग जलता,
क्यूँ बन शलभ चुनो आकुलता?
बन जाओ स्नेहातुर झीरी,
कोई मदिराघट चुन लो.

राख की रेख देह है मेरी,
धूम्र चूमता निशदिन देहरी.
क्यूँ कालिख-कालिख धुनना है?
सदाबहार वन चुन लो.

ना मैं कुंदन, ना मैं चन्दन,
ना अभिनन्दन में तारागण .
हे हठिनी! मुदितमुख नव्या,
अब तो नभ की सुन लो.

धनु दर्पक का नहीं है मेरा,
प्रेम को ज्वालादल ने घेरा.
वेणी धू-धू जल जायेगी,
केश गूँथ लो, बुन लो.

जेठ का दावानल मैं हत हूँ,
शीत-शरद के तप में रत हूँ.
कर्म का क्रम टेरना कब तक?
कोई अन्य गीत अब गुन लो.

लावण्या, चम्पई, हरिणी, सुकेशिनी,
लतिका, गतिका, ह्रदयविचरिणी .
लोचन मेरे नहीं कह पायेंगे,
अब अन्य नयनद्वय चुन लो.

मैं अरण्य का ठेठ सिंह हूँ,
रण हूँ, मैं हिंसा का चिन्ह हूँ.
पिक की तुम मधुमासी बोली,
वृंत मलय का चुन लो.

आरोहण, अवरोहण, दोहन,
मेरी जिजीविषा के मित्र हैं.
प्रेम के पल्लव रुक के बढ़ाऊं,
मत सोचो, सच बुन लो.

यह सब संभवतः ना कहता,
चुप रहता हूँ, चुप ही रहता.
किन्तु एक 'त्रुटी' का स्नेह है,
सौगंध उसी की सुन लो.

ना रखो आसक्ति खडग पर,
कोई देव प्रणय का चुन लो.

दो छोटी कविताएँ...



इकलौता पतझड़...

समय के किसी पेड़,
जो कि गदराया है,
युगों-कल्पों से,
के 'उन' दिनों की,
मुलायम शाख से.

तुमसे मिलने,
तुम्हे देखने,
तुमसे बतियाने,
के चन्द लम्हात,
कहो तो तोड़ के,
दे दूँगा.

पर अगर माँगोगे,
सारी यादों के हर्फ़.
तो कैसे रहूँगा जिंदा,
बन के ठूँठ?

सुना है,
पतझड़ भी नहीं आता,
'सुंदरबन मैन्ग्रोव्स' पर.





 तुम्हारा होना..ना होना..

एक कतरा आसमान,
छः-आठ तारे.
बेइन्तेहाँ  सुफेद चाँदनी.
बादलों के कुछ,
छोटे-छोटे वरक.
जो तुम ना हो,
पोस्टर के पीछे की,
सुनसान वीरानी है.

सड़क के गड्ढे,
तारकोल से तलाकशुदा,
महीन गिट्टियाँ.
मच्छरों का आशियाना,
जमा हुआ पानी.
पतंगों को खाती,
पीली स्ट्रीट लाईट.
जो तुम हो,
किसी सिंड्रेला की,
ताज़ी कहानी है.


....................................
यादें... 
....................................

जिन्दगी की चुस्कियों में,
किवाम, केवडा,
ईलायची हैं,
तुम्हारी यादें...

तुम्हारी नज़्म...



भुनभुनाये हुए,
देते हुए गालियाँ.
घसीटते हुए,
जीवन का अर्थशास्त्र ,
ब्रेक इवेन प्वाईंट से ऊपर.
लोग!

गुनगुनाये हुए,
जिससे फूटते हैं बुलबुले,
निकलती है भाप.
बनता है अजनबी अक्स,
पानी से चेहरा धोते.
लोग!

झनझनाए हुए,
थप्पड़ खाए गाल.
दबाये खूब बर्फ़ से,
कि माँ ना जान सके,
परोसते वक़्त रोटियाँ.
लोग!

चरमराये हुए,
कोसते सरकार को.
अधेड़ से तनिक ऊपर,
वृद्धावस्था की तरफ़ दौड़ते,
"पिता " नाम के,
लोग!

सुगबुगाए हुए,
दो चोटियाँ करती लडकियाँ.
जो नहीं चाहतीं,
बिकें कांसे-फूल के कटोरे, 
और करे हाथ पीले,
लोग!

भरभराए हुए,
छत को देखतीं.
सावन सी पनीली आँखें.
कौन 'टपकेगा' पहले,
मैं या तुम तर्क करते,
लोग!

कसमसाये हुए,
चिमटों से दगे पैर.
कि बाबा की आँख लगे,
तो लहरायें कैंची साइकिल,
रहर वाली पगडंडी पर,
लोग!

रात के फुलाये हुए,
चने देख सोचती माँ.
सप्तमी-एकादशी-पूर्णिमा,
रख लूँगी तो खायेंगे,
तीन बार और बच्चे.
लोग!

भले ही ना उतरती हों,
किसी पाणिनि के खाँचे में.
भले ही न छनती हों,
सुर में, लय में, ताल में.

पर इन 'लोगों' में से किसी को,
किसी एक को भी,
हँसा दे, रुला दे.
जगा दे, सुला दे.
कन्धों से पकडे,
हौले से उठा दे.

तो तुम्हारी ये 'चीज',
'नज़्म' हो ना हो,
कामयाब नज़्म है.

क्षत्रियता...



समस्त पराक्रम,
निचोड़ के रख तो दूँ.
खोल दूँ प्रत्यंचा, कवच
मोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु विकट तम आए तो,
मुझे हिंसक कहने वाले,
शांति के पुरोधाओं!
असि उठा लोगे?

कालरात्रि के जुगनू,
जो सहेजे हैं युगों से.
पेटी में उनके पँख,
तोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु जब मिहिर ना आए,
राहु ही परम विजयी हो.
तो कुठार को जान,
मसि, उठा लोगे?

उतार के खडग,
उठा लूँ खुरपी.
नरमुंडों की जगह बीज,
गोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु जब अन्याय हो,
त्राहिमाम न करोगे.
तोड़ उसकी अतिक्रूर,
हँसी, ठठा लोगे?

ऋचाएँ नहीं पढ़ी हैं,
धर्मभीरू भी नहीं हूँ.
गायत्री मंत्र लेकिन हाथ,
जोड़ के पढ़ तो दूँ.
किन्तु आवश्यक हो जाए तो,
घृत लोबान झोंकने वालों!
यज्ञ में स्वयं का ही,
शीश कटा लोगे?

आचमन कर नहीं खाया,
मूज से बस धनुष बाँधा.
हो जाऊं तुमसा, सब,
छोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु जब विषैले नाग,
ना सुने प्रवचन कोई.
बन पाओगे विकराल?
अपने युगों के पुण्य पर,
एक क्षण ही कहो,
देव, क्षत्रियता लोगे?

क्षणिकाएँ.....


छत का प्लास्टर...

एक बटा आठ,
सीमेंट-बालू से नहीं.
तुम्हारे बाबूजी के,
पसीने-अरमानों से,
अब तक जुड़ा था.
वो जो टूट जाएँ,
मैं भी फूट झडूं.



यादें...

गुल्लक में सहेज रखी,
तुम्हारी तमाम यादें.
किसी भी आलपिन से,
निकलती ही नहीं.
एक रोज ये साँस छूटे,
तो ये गुल्लक फूटे.



काले धब्बे...

आधी रात के जश्न में,
रोत़ी कविताओं का दर्द,
ठठाते शब्दों में सुनना.
चिराग तले अन्धेरा,
यूँ ही तो नहीं कहते.




तरुवर...

पल्लव!
रुकना तनिक,
पल्लवित होना.
निखर जाओ पूरे,
और मैं पुलक जाऊं,
तो करना प्रतिरोध.
आशीष दे, जाने दूँगा,
लोग पिता कहते हैं मुझे.




बोधिसत्व...

मेरी साँसें महान नहीं हैं,
कोई सत्व मिले मुझे,
ऐसी आकांक्षा भी नहीं.
तुम्हारी आँखों को दूँ रोशनाई,
तो त्रिज्ञ नहीं बनना है मुझे


त्रिज्ञ= बुद्ध



नहीं सजे वीणा की तान जो,
बस चढ़ पाए धनुष-बाण जो.
जिन पर नव्या नहीं अघाई,
ऐसे थे चीत्कार के गीत.

जिनमे कल-कल शब्द नहीं थे,
थे सब सुर पर लब्ध नहीं थे.
जिन पर रति नहीं लहराई,
ऐसे थे हाहाकार के गीत.

जो तरुणी के अधर नहीं थे,
जो किंचित भी मधुर नहीं थे.
देख जिन्हें बदली ना छाई,
ऐसे थे दुत्कार के गीत.

भँवरे जिन पर ना बौराए,
किसी शाख भी पुष्प ना आए.
जिन पर मंथर गंगा रोई,
ऐसे थे करुण पुकार के गीत.

देवदत्त जिस दिवस लजाया,
गांडीव में था बोझ समाया.
कालध्वनि थी ऊषा की बोली,
ऐसे थे मेरी ललकार के गीत.

नारायण कीचड़ में उतरा,
पार्थ ने नैतिकता को कुतरा.
था कौन मनीषी सबने देखा,
जब बजे पूर्णटंकार के गीत..

लोबान....



समझता हूँ मजबूरी,
तुम्हारी चुप सी चुप की.
बूढ़े कदम्ब के नीचे,
पसरे घुटनों की,
बेबस बेबसी भी.

नहीं मानो शायद.
पर बनास के,
पानी से छानता हूँ,
तुम्हारे आँसुओं को,
नित्य-रोज-प्रतिदिन.

तुम्हारी एकटक टकटकी,
जो देखती है राह.
की बाँस के चौथे झुरमुट.
से निकल आऊं मैं,
हुलसती है यहाँ तक.

तुम्हारी अकेली कविताएँ,
जिनमे शब्द नहीं हैं,
देती हैं उलाहना.
" गुन सको तो,
तनिक साजो न पार्थ"

ये प्रस्तावना नहीं है,
क्षमाप्रार्थी भी नहीं मैं.
उचित ही हैं सब लांछन,
काल-कलवित श्राप भी,
मुझे स्वीकार्य हैं नव्या.

किन्तु सुगंध नसिका गुनिता,
कुछ कहूँ आज?

सदैव ही था मैं,
दो मुठ्ठी लोबान.
सच में प्रिय मैं,
मलयपुत्र नहीं था....

सृजन...



कुछ रोती कविताएँ,
चीत्कार करते कुछ,
अधलिखे घुनाए शब्द.

जिन पर मंडराती,
थी हरी मक्खियाँ,
पतित था प्रारब्ध.

कल निचोड़ दिए.
डाले कुछ फूल,
अमलतास-पलाश के.

आज सूखे हैं,
लहराए हैं तो,
रोग हुए हैं स्तब्ध.

बैंगनी छींटों से,
हुआ पूर्ण आसमान,
दीप्त, कोमल-लब्ध.

ओसारे में बैठी,
पुराने कपड़ों से,
रंगीन बिछावन सिलती.

माँ को देखना,
भी तो संगोष्ठी है,
महाव्याकरण है.

है ना पाणिनि?

सुनो स्वेद....



ओ स्वेद की बूंदों बह जाओ,
अब धरा ही देगी नेह तुम्हे.
इतने दिन रक्त से क्या पाया,
क्या दे पाई यह देह तुम्हे.

क्या जिजीविषा, क्या माँसल तन,
और क्या धीरज के विरले क्षण.
ये सब कवि की भ्रामकता है,
अब भी है क्या संदेह तुम्हे.

उद्यम-उद्योग और नाना श्रम,
पाणि-हल-हँसिया, खांटी क्रम.
अब रूप हैं भोग की धातु के,
ये क्या देंगे श्रद्धेय तुम्हे.

जो नेत्र सलिल से रीता हो,
मन खाँस-खाँस के जीता हो.
तो कौन ललाट पे छाओगे,
कहेगा ही कौन अजेय तुम्हे.

जो कंधे सूर्य-उजाले थे,
तुम बहते जहाँ मतवाले थे.
स्वयं उनका ही अवलम्ब नहीं,
देंगे क्या और प्रमेय तुम्हे.

बस एक धरा ना बदली है,
माँ है, वैसी ही पगली है.
बैजयंती पुष्प खिलाएगी,
दे कर जीवन का ध्येय तुम्हे.

अपूर्ण अनुच्छेद...


शलभ समान अक्षर,
जो थे सने-नहाए,
धूसरित धूल में.
पुलकित हुए देख,
तुम्हे ज्योतिशिखा.

बहती सन-सन,
वासंती रुंध गयी.
देख उत्कट अनुराग,
मंद हुई, रुक गयी.

सभी वर्ण जले,
चटचटाए नहीं,
बने शांत स्फुल्लिंग.

जैसे महेश ने,
दिया हो मोक्ष,
रोगी रागों को.

संतोष में पगे,
अग्नि कणों ने छू,
धरा को दैविक,
शब्द बीज दे दिए.

जो उपजे, लहलहाए,
झूमे, खिलखिलाए.

कार्तिक में कुछ,
वाक्य भी तो तुम्हे,
दिए थे ना मैंने.

फिर कहीं से आई,
भौतिकता की वल्लरी.
लपेटती रही-नापती रही,
समास-संधि-क्रिया.

और एक दिन,
तुमने-वल्लरी ने,
ले ली विदा.

उस दिन से प्रिय,
वहीँ है रुका,
एक अपूर्ण अनुच्छेद.

व्याकरण भूल,
जो कभी लौटो,
तो पूरा कर लूँ.

ऐसे ही (क्षणिकाएँ..)

ऊपर की दुनिया...

कल थी बड़ी,
रौशनी उस जहां.
रात बारिश के बहाने,
ख़ुशी के आँसू,
"वो" भी रोया.
सुना कल किसी ने,
"उसे" अब्बा कहा था.



बराबर प्रेम...

वारीज पँखों पर बैठा,
तुम्हारा अप्रतिम नेह,
सूखने लगा है.
कब तक रहोगे,
धवल, हे वल्लभ!
कभी पंक उतर,
देखो तो तुम भी.



उम्र ख्वाब की...

मेरी पलकों को,
बेधता तुम्हारा ख्वाब.
निकल जाना चाहता है,
सच होने को.
पर जेठ की जमीन छूना,
संभव कब हुआ है?



दिए को चाहिए...

तमस के पन्नों पर,
आक्रान्त मन से,
झूठ के गुलाब पर,
मनुज लिखना छोडो.
ले आओ मिहिर,
की त्वरित छटास.
सरसों के फूल से,
तमनाशक को निचोड़ो.



तो प्रेम हो.....

किसने कहा प्रेमगीत,
सत्य नहीं होते?
स्टील का कटोरा,
मटका भर पानी,
नून-तेल-सत्तू,
ज्योतिर्मय प्याज.
ना जुट पाए तो,
अलग बात है.


जो दिन फिरते...

काले बादलों का,
बीहड़ क्रंदन गीत.
दिलाता है याद,
तुम्हारा दारुण बिछोह.
कहते हैं इस बार,
हथिया जबरदस्त चढ़ा है.


हथिया= एक नक्षत्र है, जिसमे अमूमन बारिश अच्छी होती है.

मुदित जीवन......



जीर्ण, मृतप्राय, स्पन्दनहीन,
तनिका साँसों की.
जी उठती हैं,
जब किये धारण अमलान हास,
सम्मुख आ जाते हो,
तुम दूर वितानों से.

और मृत्यु का,
अनन्य-आकंठ प्रेमी.
कर देता है भंग,
हर वचन, नीति-द्वन्द.

तुम्हारा चिर प्रणय अभ्र,
उड़ेल देता है समस्त तोय.
और धिनान्त डूबते विहग,
को जैसे मिल जाता है,
अद्वेत, धिपिन दिगंत .

तारागण भी पुलकित हो,
करते हैं पुनीत आलाप.

रुक्म सम दीप्त किन्तु,
अघर्ण-मलय सी शीतल,
तुम्हारी अभीक काया.
आभास देती है जैसे,
लौटा हो विजयी,
अजातशत्रु दबीत,
अखिल-अग्रिय.

और स्वयं दर्पकहंता ,
गिरिजा संग आए हों,
देने चिरायु आशीष.
एवं गुनिता निकांदर्य,
मुस्काती हों कहीं,
बैठे श्वेत अरविंद.

हे मिहिर-मधुक-मितुल!
इस निकुंज बैठे,
इन मेहुल बूंदों धुल,
मुझे भी होता है प्राप्त,
मुदित मृगांक जीवन.



-------------------------
अभीक= भयहीन
अभ्र= बादल
अद्वेत= एक/अकेला/अद्वितीय
धिपिन= उत्साहजनक
रुक्म= स्वर्ण
धिनान्त= साँझ
अघर्ण= चन्द्रमा
दबीत= योद्धा
दर्पक= कामदेव
गुनिता= दक्ष स्त्री
तनिका= रस्सी/डोर
तोय= पानी
निकांदर्य= सरस्वती
मिहिर= सूर्य
मितुल= मित्र
मेहुल= वर्षा

आसमान में दाग...



बैठे रहो,
सोचो भरसक.
मनन करो,
विचारों मुझे.

निंदा करो,
उलाहना दो.
आक्षेप निकाल,
फेंको मुझ पर.

हो क्रोधित,
भौहें चढ़ाओ.
उठाओ आस्तीनें,
फडकाओ  भुजाएँ.

व्यूह रचो,
करो उपाय.
अबकी आए,
जाने न पाए.

कोसो मुझे,
शापित करो.
यज्ञ-हवन,
बाधित करो.


विष ग्रंथि,
भेजो भेंट.
शर उठा,
करो आखेट.

निशा दिवस,
ध्यान करो.
विपत्ति का,
आह्वान करो.

मलय पवन,
दूषित करो.
अधम नाम,
भूषित करो.

यदि तुमसे,
ये न होगा.
मैत्री गीत,
रव न होगा.

वरना तनिक,
कलम उठाओ.
रक्त-विष ,
उसे डुबाओ.

लिखो या,
अपशब्द मुझको.
तनिक या,
छींटे गिराओ.

मुझे भी,
मालूम रहे.
आसमान में,
दाग था.

क्षणिकाएँ...



परी..माँ...

कहती थी बेशकीमती,
होते हैं पँख,
आसमानी परियों के.
और एक साड़ी में,
निकाल देती थी,
वो पूरा साल.





धन्यवाद...

कुएँ से पानी खींचते,
करते धान की निराई,
खटते दिन-रात बासाख्ता,
जो सदैव मुस्कुराया.
धन्यवाद परमेश्वर,
उस परम का.
जो ऐसा दिव्य,
पिता मैंने पाया.




कैसा नाता?...

ये तो तुम,
भूगोल की किताब,
में तहाए हुए,
मोरपँख से पूछो.
जो तुमने,
नौ साल पहले,
चुराया था,
मेरी किताब से.






उसका दर्द....

वो शिकायत करता था,
चिट्ठियाँ नहीं लिखने पर.
और पढ़ लेता था दर्द,
मेरी काँपती लिखावट में.
उसके भी आजकल सिर्फ,
एसएमएस आया करते हैं.





बताशे...

मेरी नाराजगी का ख्याल,
निकलता तो धमक के है.
तुम हंस देते हो.
और झेंपा हुआ वो,
पूछ बैठता है,
" पानी में डुबो,
बताशे खाए हैं कभी?"







चोर आदतें...

एडियों के बल,
उचकने की आदत.
पिता जी की जेबों में,
जेबखर्च रखने की आदत.
माँ की तरह ही,
बासी चखने की आदत.
कुछ चोर आदतें,
ना बदलें तो अच्छा.







विष..

सुना है अब,
नहीं रह गए,
विषैले तुम्हारे दाँत.
आओ सर्पमुख.
कुछ रोज रहो,
ईर्ष्या करना सीख लो.






आँखें...

चुप से लबरेज,
तुम्हारी चुपचाप आँखें,
बहुत कचोटती हैं मुझे.
मैं अपनी स्याह आँखों से,
शब्द गिराता जाता हूँ.







यकीं से...

बूंदों के तार पर,
स्नेह शब्द भिजवाऊंगा.
तुम खिड़की से,
एक सिरा इन्द्रधनुष,
थामे रखना.






अपने लिए...

मेरे लिए बात-बेबात,
रो देना उसकी आदत है.
माँ को पापा ने यूँ,
कभी और रोते नहीं देखा.

एहसास (क्षणिकाएँ..)


शब्द जो बच गए...

मैं लिखता हूँ,
और चबा लेता हूँ,
कागज़-शब्द.
माँ कहती है,
करेला खाया कर,
चबा कर.
माँ ज्यादा,
चीनी खाने से,
मना भी करती है.




मैं-हरसिंगार....

जगा, खिला,
हँसा, लजाया.
उठा, महका,
फूला, बौराया.
झडा-गिरा,
माँ के आँचल में.
पूजा के फूल,
माँ नीचे नहीं,
गिरने देती.



शिकायती लिबास...

कभी मैं सुखाता हूँ,
कभी तुम.
ना ख़त्म होते हैं,
हमारी शिकायतों के,
गीले लिबास.
न उतर पाती है,
अपने दरम्यान की,
कसैली अलगनी.



चाँद............ (कॉपीराईट है कई लोगों का, पर उधारी विषय... :)..)

कटोरी, थाली,
रोटी चाँद.
खोई लूडो की,
गोटी चाँद.
किसी की चादर,
चूने का धब्बा.
किसी की साँसें,
बोटी चाँद.




रात के इन्द्रधनुष...

मेरी तुम्हारी-हमारी,
हर बात का सार,
निकल ही जाता.
तो इन्द्रधनुष,
रात ना खिलते,
मूरख आसमान?




मेरी पढ़ाई में...

सूखने लगा है,
अमराई का ताल.
घुटने तक पानी,
की जगह अब,
एडियों तक कीचड है.
पिछले साल बैल,
ट्यूबवेल अबकी,
बेच दिया है अब्बा ने.




बाबूजी...

कठिन युग झेले,
पीड़ा के तरु से,
वर मांगे कुछ,
कष्ट के किसलय.
और उसने दिया,
सदा की तरह.
डालियाँ हिला,
पराग परिमल.

विदा वचन...

हे वचन अब टूटने में,
ही तेरा सम्मान है.
लांछनों का घाव खाकर,
जीने में क्या मान है.

मुई आँखें, छुई बातें,
छुईमुई सी साँझ-रातें.
ढल गई हैं, बुझ गई हैं,
मूक हैं, निष्प्राण हैं.

कोयलें अब नहीं गातीं,
विधुर दिया, विधवा है बाती.
पर कुमुदिनी के भी जैसे,
सूर्पनखा के कान हैं.

मैंने जो बैराग माँगा,
उसने मेरा साथ माँगा.
मन उसी में रम गया था,
मूढ़ है, अज्ञान है.

मेढ़कों के टेरने से,
मैंने जो सावन बसाया.
सलिल की एक बूँद से भी,
आज तक अनजान है.

जब की सृष्टि सती होगी,
अग्नि जल के मति होगी.
ना तजूँगा मैं ये पाणि,
जो की तन में प्राण हैं.

ऐसी जो सौगंध खाई,
नियति की नियति भुलाई.
भूल गया था समय को,
सबसे जो बलवान है.

कोई काल था या काल मेरा,
जिसने उसे घूम घेरा.
उसके किसी गीत अब,
नहीं मेरा नाम है.

पर्ण अब अवशेष ही है,
वृंत जो निष्प्राण है.
हे वचन अब टूटने में,
ही तेरा सम्मान है.

पूज्य-पूजन...

गीत-शब्द, ज्योति-शलभ,
जीवन के जीवंत पथ,
पर चलते चुभे कंटक.
अभीष्ट दावानलों,
में भी मैं तैरा.

किन्तु हे चिर!
तुमने नित्य विहान,
रश्मियों संग आ.
मल दिया मुझ पर,
ऊर्जा का नव,
परिमल बतास.

उर में भरे,
अदम्य निष्कूट,
सलिल ने जब,
तोड़ कर बाँध.
लिया संकल्प,
लेने का विदा,
दृगों से मौन,
चुपचाप बह.

असंख्य विहग,
आत्मा की आत्मीयता के.
उड़ चले हो,
वैरागी झंझा से.
और लौटाए गए,
वस्तुतः खाली हाथ.
वितान के कोने बैठे,
निर्मोही परान्जय द्वारा.

फिर भी जैसे,
उद्पादित हुए हों.
अंतस में कहीं,
नवकार्य दक्ष परिण.
एवं छिछला सा,
बौराया मन हो गया,
धवल स्वच्छ जैसे,
मिल गया हो,
एक परम परितोष.

मेरे फेनिल व्यक्तित्व,
को जैसे पिनाकी ने,
कर डाला हो शुभ्र.
और स्वयं पूनिश ने,
भर दिए हों अंक में,
पुखराज-माणिक-प्रवाल.

तुम्हारे प्रभास का प्रभाव,
करता आया पोषित,
मेरे अंतर की रिद्धिमा को.
जैसे पवित्र पायस के,
घनघोर पायोद बन.
सुरभित करते हों,
पीयूष पराग कण.

जेठ के प्रभाकर से भी,
इन्द्रधनुष बुनवाये तुमने.
प्रदोष के अंतिम प्रद्योत,
पर भी तुमने प्रफुल,
प्रचुर प्रचेतस दीप्त किया.

पेरूमल-पवान्ज-पदमज,
होंगे नितांत ऊपर,
श्रेष्ठ अपनी जगह.
किन्तु हे पनमोली,
कल्पों करूँ पूजित,
वह प्रणव-प्राण-प्रकाश,
तुम ही हो जननी.







*********************************
परिमल= खुशबू
परान्जय= वरुणदेव, समुद्र के देव
परिण= गणेश
रिद्धिमा= प्रेम का सोता
परितोष= संतोष की अनुभूति
पिनाकी= शिव/शम्भू
पूनिश= पवित्रता के देव
प्रभास= चमक
पायोद= बादल
प्रदोष= अँधेरा
प्रद्योत= चमक
प्रचेतस= बल
पेरूमल=वेंकटेश/विष्णु
पवान्ज=हनुमान/शिव
पदमज=ब्रम्हा
पनमोली=मीठा बोलने वाली

छज्जा...



मेरे पुराने टूटे,
जीर्ण नहीं कहता.
बाबू जी के स्नेह,
माँ के चावलों,
संग रहा है,
जीर्ण कैसे हो?

हाँ टूटा है,
मेरी धमाचौकड़ी से.
उसी टूटे छज्जे,
पर आज भी.
आ बैठती है,
आरव आरुषी नित्य.

और आलिंगनबद्ध,
ओस की बूँदें.
ले लेती हैं विदा,
सुथराई काई से.

जो पसर गई है,
बरसों के सानिध्य से.
उनके संघनित,
आद्र से भाव,
करते हैं उत्पादित,
शांत मूक रव.

और फिर बैठ,
जाते हैं गदरा,
भुअरा-करिया कर.
प्रेम में जलन की,
ये गति तर्कसंगत है.

चलने की जल्दी में,
घुटने मेरे भी.
हुए थे काले,
अब भी हैं.

उसी छज्जे पर,
माँ के चावलों,
का मूल्य लौटाने,
कोई चोखी चिड़िया.
संवेदना भरे सुदूर,
निकुंज से ले आई,
पीपल के बीज.
नासपीटे वृंत ने,
न दिए होंगे,
पुष्प-पराग कण.

लो!
मरने से पहले,
काई ने भी,
पुत्र मान सारी,
आद्रता कर दी,
उस बीज के नाम.

श्रेयस, अर्ध-मुखरित,
नव पल्लव आये हैं,
पीले-भूरे जैसे,
बछिया के कान हों.

और दी ले आयीं,
एक उथला कटोरा,
पानी का, जून है,
भन्नाया सा.

क्रंदन-कलरव-कोलाहल.
लो पूरा हुआ,
मेरे छज्जे का,
लयबद्ध-सुरमयी कानन.

क्षणिकाएँ....



चाँद का टुकडा...

अम्मा के कलेजे,
से जो गिरा.
वो ही छोटा सा,
टुकडा हूँ.
माँ खुद को,
चाँद नहीं कहती.
मैं फिर भी,
चाँद का टुकडा हूँ.




टूटा मग...

दो बरस कहूँ,
या कहूँ कोई,
पाई* करोड़ पल.
आँखें बरसेंगी,
शावर में,
जो तुम न,
रहोगे कल.




ले लो...

मैं लिखूँ,
तुम पढो,
कुछ कहो.
नहीं गुन,
पाने पर,
प्रेम धुन.
जाओ खीज.
इससे अच्छा,
देखूँ चार क्षण.
दे जाऊं ,
शब्द बीज.




पिता...

जिस रोज नहीं खाता,
या जाता हूँ भीग.
या नहीं समझ पाता कुछ,
उस दिन आत़े हैं,
उनके ख़ास शब्द.
बिन माँगे वर देना,
खासियत है मेरे खुदा की.





 एक बूँद....

अपनी चंद्रकलाएँ नहीं,
कोई चम्पई लावण्य नहीं.
नेह की एक रुग्ण,
झीरी ही गिरा दो.
जागृत होगा उष्ण जीवन,
तृप्त हो चूना पत्थर में.






तुम्हारी अमानत...

अखरती थी तुम्हारी चुप,
तो चुरा लिए मैंने,
तुम्हारी खामोशी के फूल.
मेरी बात-बेबात ख़ामोशी,
अब खटकती है तुम्हे.





निष्प्राण स्नेह...

यदि मेरा स्नेह,
लगता है परिधि,
तो बन्धु!
तोड़ दो इसे.
आक्रान्त जीवन से,
स्नेह निष्प्राण भला.





मालती के फूल...

मालती के फूल,
नहीं खिलते बंध,
लक्ष्मण रेखाओं में.
उड़ने दो पराग कण,
सुदूर बियावानों में.
आँखें बिटिया की भी,
रखती रोशनाई हैं.





रोने दो...

बहने दो आज,
या उड़ने दो वाष्प.
जो सूखे आँखों,
का बूढा सागर.
तो चुन लेना,
अपनी प्रीत के,
बहुत मुक्ताफल,
छुपा रखे हैं.





यकीन रखो...

मेरे सारे शब्द,
हर एक गीत,
लगने लगे अप्रमाणिक.
तो निःसंकोच माँग लेना.
यह सिन्धु हर एक,
बूँद लौटा देगा.






बंटवारा...

कागज़ की नाव,
कागज़ का मैं,
कागज़ के तुम,
नहीं डूबे किसी बारिश.
कागज़-बंटवारा,
मैं-तुम जैसे,
सूखी नदी में,
डूब के मरना.





पाई= Pi = 3.14

मैं-तुम...क्षितिज....

निर्मोही दावानल,
मन का.
जो धीरे धीरे,
रिस जाता.
तो सिक्त प्रेम,
की सेवा में.
पलकों की,
चादर बिछ्वाता.

खुरदरे बाँस के,
पत्तों की.
इक दूरबीन ले,
झूठी सी.
तुमको देखा,
करती आँखें.
कभी थोडा और,
कभी ज्यादा.

केसर लेकर,
अरुणाई से.
तेरा पूछ पता,
पुरवाई से.
मैं खुशबू,
अपने होने की.
गँगा-कवाच,
से भिजवाता.

किन्तु या मधुक्षण,
हो न सका.
लावा गुलाब को,
बो न सका.
अब गरल,
टपकता रहता है.
इन पलकों से,
आधा-आधा.

तुम आत़े तो,
आता सावन.
आषाढ़-जेठ से,
लड़ कर के.
लेकिन हम-तुम,
जो विमुख हुए.
सावन को,
सावन से बाधा.

यह किंचित भी,
इनकार नहीं.
सच! तुममे कोई,
विकार नहीं.
यह समय क्षितिज,
सी बेला है.
आधी धरती,
अम्बर आधा.

विवेक का क्रोध...


आक्रोश चाप पर,
धीर धरा.
मैंने आँखों में,
शूल भरा.

सौ गजों सी,
एक चिंघाड़ भरी.
और बीच समर,
में पाँव धरा.

कितने ही शत्रु,
काट दिए.
कोटि सर धरा पर,
पाट दिए.

नहा लहू के,
सोते में.
मैं चन्द्रप्रभा में,
रहा खडा.

हाँ देवों मुझको,
रक्ष कहो.
मानव हैं मेरे,
भक्ष कहो.

किन्तु इस सिंह,
ने बहुत दिवस.
था कूकर से,
अपमान सहा.

जो कहा तुम्हे,
माने ही नहीं.
पस की पीड़ा,
जाने ही नहीं.

अब हा, हा,
करते फिरते हो.
जो ज्वाला सेतु,
टूट बहा.

चुप था तो,
मुझे कायर जाना.
विवेक को पौरुष,
हत माना.

कर जोड़ विनती,
क्यूँ करते हो?
जब ध्रुव ने,
सूर्य पे पाँव धरा.

उम्र...

अम्मा की पनीली आँखें,
और पिता के शब्द सरस.

जीवन के चौबीस बरस....