पत्थर का सनम...


क्यूँ कर लेते हो यूँ,
कभी कभी अचानक.
क्यूँ बना देते हो,
बेवजह मुझे खुदा.

अगले ही पल फिर,
जैसे मेरा होना भी.
महसूस नहीं कर पाते,
बेखबर से तुम.

देखो मुझे आदत नहीं,
यूँ लहरों पर चलने की.
तलब मेरे क़दमों को,
बराबर जमीन की हैं.

देख के तनिक ख़ुशी,
चहक चहक जाती हूँ.
और जब होते हो दूर,
छलक छलक जाती हूँ.

हो सकता है तुम्हे,
पसंद हो ये अल्हडपन.
या शायद प्रधानता,
चाहता हो तुम्हारा मन.

पर देखो,समझो,
कभी मेरी कही भी.
ना बनो दुष्यंत,
शकुन्तला नहीं मैं.

इसी दुनिया की हूँ.
अलौकिक कहना तुम्हारा,
ख़ुशी नहीं देता,
कचोटता है मुझे.

जब तुम उतारोगे,
इस मोहिनी चोगे को.
वो टीस मेरे पोरों से,
फट फट के निकलेगी.

देखो ना मैंने तो,
बस प्रीतम कहा तुम्हे.
अपना समझो बस,
और कुछ नहीं माँगा.

कब बनाया मंदिर,
कब सजाई मूरत.
जो कभी तोड़ कहूँ,
तुम्हे पत्थर का सनम...............

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