सम्बन्ध-विच्छेद....

तुम गीत लिखो,
और खुद गा लो.
कानों में मेरे,
कोई तार नहीं.

कल तो झट से,
कह डाला था.
कोई प्रीत नहीं,
कोई प्यार नहीं.

पीड़ा से अति,
आहत हो कर.
मुश्किल से हुआ,
गरल अन्दर.

सब स्नेह के,
तंतु काट दिए.
अब मुझ पर भी,
अधिभार नहीं.

मेरे लख रक्त,
बहे तो बहे.
आकुलता हिय में,
रहे तो रहे.

पर तेरे नाम,
गटक डाले.
किसी श्वास तेरा,
आकार नहीं.

गुडहल की कार्तिक,
लाली भर लो.
या शरद के,
हरसिंगार रहो.

नसिका है विहीन,
गंध से अब.
खुशबू का कोई,
अतिसार नहीं.

कह दो प्रीतम,
या मीत मुझे.
अपने जीवन,
का गीत मुझे.

सर पत्थर पर,
भी रखने से.
बदलेगा मेरा,
इनकार नहीं.

जो हंसोगे तो,
ना टोकूंगा.
रोने से भी,
ना रोकूँगा.

स्वप्नों में भी,
नीरवता है.
अब स्मृति में भी,
अधिकार नहीं.

दोजख की नींद....

सबके काँटों को,
ताज करना खुदा.
मुझे सूली के हवाले,
आज करना खुदा.
देना दोजख का,
एक टुकडा मुझे.
जन्नत में मुझे,
नींद नहीं आएगी.



बतियाती दीवारें...

खासे आँगन में,
पहले दो, फिर चार,
अब बारह दीवारें हैं.
माँ के लिए दो,
छत पर कमरे हो जाते.
दीवारें बतिया रही थी,
कल रात ही सुना.



फौज...

बहुत देर छाई रही,
बादलों की एक फौज.
ना तुम आये,
ना तुम्हारा पैगाम.
फौज की भी टुकड़ियाँ,
लौटने लगी हैं.



रंग...

बनाई तुम्हारी तस्वीर,
सोचा रंग भर दूँ.
होठों को कलाई काट,
बड़ी देर भिगोता रहा.
बिखरा लहू गालों तक,
शब भर रोता रहा.
तस्वीर गीली होगी,
संभाल के उठाना.



तुम्हारी अदा....

बड़ी भारी पड़ती है,
खीसें निपोर तुम्हारी,
मुस्कुराने की अदा.
मैं बात बेबात,
झल्लाए लोगों से,
उलझ जाता हूँ बेवजह.



स्याह मन....

काली स्याही बगैर कोई,
वजूद नहीं कोरे कागज़ का.
सब जानते हैं. वो भी,
जिन्हें परहेज है,
सांवली बहूरानी से.



आदत...

सुना है बचपन से,
छागली का दूध,
पीने वाले बच्चों को,
दूध गाय का नहीं जमता.
अमृत ना पिलाना,
आदत है पड़ी,
मुझे हलाहल की.




बागवान....

बारिश हो ना हो,
फूल खिले ना खिलें.
फल आयें ना आयें.
वो नहीं भूलते,
एक दिन भी देना पानी.
इतने काबिल तो,
केवल अब्बा है.
खुदा से भी कहाँ,
होगी ऐसी बागवानी.





बदलाव...

सूरज, किरणें,
और अरुणाई.
फागुन, रिमझिम,
और पुरवाई.
गीत थे, मीत थे,
झंकृत हिय संगीत थे.
अब तुम नहीं,
तो सबने,
बदल लिया है,
अपना अपना ठिकाना.

बात सिन्धु की...

क्या?
बहुत खारा है,
अस्तित्व मेरा?
कभी बाहर निकलो.
क्या नदी किनारे,
रहते हो डूबे,
मिनरल वाटर में.

सुरा मधु, शरबत,
से ऊपर उठो तनिक.
जरा दौड़ो विपरीत,
सूर्य के दोपहरी में.
निकलता तो होगा,
तुम्हे भी पसीना.

खाओ ठोकरें खींचते,
जीवन की प्रत्यंचा.
अरे गिरो, संभलो.
कभी अतिरेक में,
मनाओ हर्ष-विषाद.
आंसू तो अवश्य,
बहते ही होंगे ना?

हल खींचा है कभी?
बिच्छू ने डंक,
नहीं मारा कभी,
किसी बरसात में?
काँटें तो चुभे होंगे,
गुलाब के कभी?
कभी अंगुली चूसना,
तुरंत रुक जाएगा,
बहना लहू का.

स्वाद चख लो,
तीनों का तब,
अवश्य मिलना मुझसे.
खारे तो कहीं अधिक,
मुझे तुम लगते हो.
फिर हे मनुज!
हर प्रहर नमक,
मेरा क्यूँ चखते हो?

उमस...

कल रात उमस थी.
बह गयी एक बूँद,
मेरे भी पसीने की.
लटों से होती हुई,
कान के पीछे से.
कंधे छुए तो हुई,
हलकी सी सुरसुरी.
याद आये तुमसे,
किये अनेकों वादे.
प्रतिज्ञा और सौगंध,
जो तुमने मेरे,
साथ लीं थीं.
जम गई सभी,
वक्त के साथ साथ,
ठन्डे लहू की मानिंद.
कमबख्त पसीना ही,
नहीं समझता केवल.
एक अंगड़ाई पर,
फिसलता है.
हलकी पुरवाई पर,
मचलता है.
कल रात उमस थी.

क्षणिकाएँ...

बतकही..

निष्क्रिय कर दो,
तुम प्रेम मेरा.
निष्काम जो मैंने,
तुमसे किया.
वरना सब लोग,
कहेंगे ये ही.
अंधा था प्रेम के,
रोग जिया.



रजनी...

मैं आया नेपथ्य से रजनी,
सूर्य को लेकर साथ.
झुलसी मेरी मुट्ठी सुलझे,
छू लो तनिक यह हाथ.



देवदार...

देवदार के पेड़ पे मैंने,
तेरा नाम उकेरा था.
देवदार की टहनी से ही,
देवदार को घेरा था.
देवदार हर काट के तुमने,
अपनी बाड़ बनाई है.
देवदार की दियासलाई,
मुझमे आज जलाई है.



बदनाम खुदा...

कहा कल खुदा ने,
बेकार ही वो बदनाम है.
इबादत करती है उसकी,
पर अम्मी की दुआओं में,
सिर्फ मेरा नाम है.




वालिद....

दर्द हो तो बताते नहीं वालिद,
जख्म को दिखाते नहीं वालिद.
जब कभी होती हैं आँखें नम,
सामने मेरे आत़े नहीं वालिद.





सुनो दीदी...

मैं चाँद कहूँगा थाली को,
तुम हंस के बोलो सुन लोगी?
दूँगा जो ऊन के कुछ कतरे,
एक छोटा स्वेटर बुन दोगी?
कभी शब्द जो मेरे टूटेंगे,
जब भी सुर मुझसे रूठेंगे.
अपनी ये हंसी बिखरा कर के,
दीदी मुझको एक धुन दोगी?




सुर टंकार...

काट के प्रत्यंचा को मेरी,
सजा भले लो संगीत सितार.
किन्तु देख के वीर पुरुष को,
बजेंगे केवल सुर टंकार.




वजह...

तुम्हे छूने, चाहने,
देखने, माँगने,
झलक पाने की,
वजह दूँ.
या बता दूँ,
अपने होने की वजह?





सुना है...

सुना है शहर में,
लगा है सर्कस.
सुना है गर्मी,
बहुत बढ़ गयी है.
सुना है किल्लत,
है पानी की.
सुनता ही हूँ,
समझ नहीं पाता.
तुमने छोड़ दिया मुझे,
सुना है.

बंद गले का स्वेटर...

सुना है आजकल,
इसी शहर में हो.
और हो गए हो,
पारंगत शब्द बुनने में.

जिस भी विषय पर कहो,
लिख लेते हो तुम.
मेरे शब्दों की पोटली,
भी रख लोगे फिर.

देखो ना तुम्हारे ही,
दिए शब्द हैं.
परिचित तो होगे ही,
तुम इन सबसे अवश्य.

बिछोह, पीड़ा, तडपन,
अलगाव, संताप, एकाकीपन.
पहचान नहीं पा रहे,
यही सब है इसमें.

हाँ आँसूओं से भीग,
सीलन लग गई होगी.
पहले की ही मानिंद,
ठठा देना, सूख जाएँगे.

बुन देना तुम इनसे,
बंद गले का एक स्वेटर.
गला ज्यादा तंग हो,
तो और अच्छा है.

मैंने महाभारत पूरी,
कभी नहीं पढी.
भाई से भाई का द्वेष,
माता का पुत्रों में अंतर.
गुरु का अनुराग,
शिष्य की जाति से.
पिता का चढ़ाना,
बलि पुत्र को स्वयं.

बलात हर लाना,
वधु अक्षम वर हेतु.
बाँट देना बहू को,
पायस-खीर समान.
लगा देना दांव बेढब,
प्रजा भाई सपत्नीक.
उठा लेना केशव का,
चक्र तोड़ के सौगंध.
उतर आना छली देवता का,
स्वर्ण का करने भिक्षाटन.

मुझे बड़ा पानी लगता था,
गटकने में इन्हें.

पर आखिर पूरी,
कर डाली एक दिन.
और आज रामायण,
फिर से पढी.

अब जाना कौशल्या का,
द्वेशहीन प्रेम सबसे.
अब समझा महत्व,
शत्रुघ्न की चुप का.
अक्षयकुमार की मृत्यु पर,
रावण का आलाप.
जटायु की जीवटता,
संपाति का संताप.

अब जाना विराट था,
ह्रदय से भी कुम्भकर्ण.
और कितनी मंदोदरी,
सौम्य और शीतल थी.
क्यूँ आवश्यक था,
रत्नाकर से निवेदन करना.
नीतियुक्त था लक्ष्मण का,
रावण से शिक्षा आग्रह करना.

वाकई आवश्यक है,
श्यामपट्ट महाभारत का.
रामायण के ह़र श्लोक,
का मूल अर्थ समझने को.

पाषाण ह्रदय,
पाषाण कहो.
या मुझको मेरा,
अवसान कहो.

समझो मरघट का,
शूल मुझे.
अकडा है मेरा,
अभिमान कहो.

ततैये का कह दो,
डंक मुझे.
है भटका मेरा,
ईमान कहो.

समझो बेजान सी,
लाश मुझे.
या मरा हुआ,
इंसान कहो.

मैंने सब,
तुम पर वारा था.
बस एक नियति,
से हारा था.

हाँ किया तो,
मैंने उचित नहीं.
हर चाहा पर,
होता घटित नहीं.

लोचन से सपने,
झर बैठे.
पुष्प ताल के,
तल बैठे.

अब तुमको,
समझाऊं तो क्या?
हिय चीर के,
दिखलाऊं तो क्या?

जो बीत गया,
बदलेगा नहीं.
ये जमा रक्त,
पिघलेगा नहीं.

किन्तु यह गरल,
मुझे दे दो.
तुम रहो पूर्ण,
मुझको बेधो.

तुमको टूटा,
देखूँ कैसे?
कुछ कनकलता,
का मान रखो.

जो चाहो तो,
बदनाम करो.
या करो नहीं,
बदनाम कहो.

अमृतवाणी सम,
सुन लूंगा.
बस अधर बसा,
मुस्कान कहो.

कल और आज...

जब जीत गया,
तो जीत गया.
जब हारा मैं,
तो हारा था.

पर अम्मा को,
एहसास नहीं था.
उसको हरदम,
मैं प्यारा था.

सुबह सूर्य,
जल्दी आता था.
मामा चाँद,
हमारा था.

इन सब से,
अनजान थी अम्मा.
मैं उसकी आँख,
का तारा था.

दिन बीते फिर,
बीते महीने.
कच्चे कोपल,
शाख बने.

चाँद ज़रा,
नजदीक हुआ है.
और कलाई,
मोटी है.

कितनी चीजें,
नई हुई हैं.
और अनेकों,
बदली हैं.

ना बदली तो,
मेरी अम्मा.
जिसने स्नेह,
ही वारा था.

आज भी राम,
है कम अम्मा से.
कल भी कम,
गुणवाला था.

बेख़ौफ़ मुहोब्बत का,
हुनर दे गए तुम.
उड़ने की दे तमन्ना,
पर पत्थर कर गए तुम.

मिलते कभी थे,
यूँ ही गाहे बगाहे.
मुझको बिछड़ने का,
डर दे गए तुम.

क्या कह पुकारूँ,
तुम्हे नाम क्या दूँ.
के सूखे जजीरे को,
तर कर गए तुम.

दजले बहा के,
यूँ गुन्चे खिला के.
गुलशन को खुशबू,
बदर कर गए तुम.

अब नाम अपना,
खुद ही कोई रख लो.
मेरे होठों को बेजुबानी,
नज़र कर गए तुम.

रात कुछ खाया,
नहीं अम्मा.
तुमने सिखाया भी,
तो नहीं मुझे.
चावल नहीं होता,
तो देर तक पानी,
कैसे उबालती हो?
गोभी सिल पर पीस,
कैसे बनाती हो,
आलू की सब्जी?
पालक के रस से,
कैसे गूँथती हो,
रोटियाँ माँ तुम?
निपुण हाथों से भी,
कैसे दूध फट रोज,
छेना बन जाता है?
बिना चायपत्ती सिर्फ दूध की,
चाय कैसे अम्मा?
पुदीने पीस कर,
इमली की चटनी,
आखिर कैसे अम्मा?
हर बार पानी,
कैसे चला जाता है,
दाल बनाते अम्मा?
माँ अबकी आऊँ तो,
केले के बनाना समोसे,
अरबी को आलू बनाना.


तुम्हे तो हज़ार,
आते हैं मैया.
हर जादू माँ,
हर बार दिखाना.

चुनाव...


नियति ने जब भी,
अपमान चुना.
प्रतिकार का मैंने,
ज्ञान चुना.

सब प्रहर प्रखर तो,
नहीं हुए.
सागर भी विचलित,
नहीं हुए.

नक्षत्रों ने पर,
बदली दिशा.
माणिक ने छोड़ी,
अपनी विभा.

जब स्नेह को,
बाँधा गठरी में.
बिजलिका का ही,
आह्वान चुना.

विहगों के पँख,
झडे झड से.
मेघ गिरे सब,
फट फट के.

सिंहों से श्वास,
गटक डाली.
सूर्य ने तज दी,
झट लाली.

दर्जन भर युग,
एक साथ हिले.
जब एक योगी ने,
बाण चुना.

सच में...

कितनी बार सोचा,
छू आऊँ तुम्हे मैं.
तर्जनी, अंगूठा,
अनामिका या कलाई.
पर ये साँझ भी ना,
बहुत देर से आती हैं.
रुकती है, छूता हूँ,
पर कर पाऊँ महसूस,
नहीं ठहरती उतनी देर.
रोज सोचता हूँ,
क्या सच में मिले थे,
हम कल क्षितिज पर,
क्या सच में वसुन्धरा?

बटन...

काश की मेरी कमीजों,
में कॉलर ना होता.
सभी में टूट गए हैं,
बटन कॉलर के.
और वो सातवाँ बटन,
ना तो निकलता है,
कमीज के पीछे से.
ना ही मुझे आता है,
सुई में धागा पिरोना.
तुमने सिलना भी तो,
नहीं सिखाया मुझे.

तुम!
तुम भी तो थी,
एक बटन की मानिंद.
फबती मेरे हर कॉलर पर.
निकल गई एक दिन,
दे फब्ती पिछड़ेपन की,
सच में लगता है,
टीशर्ट का ज़माना है.