गीत प्रीत के,
तुम पर वारूँ.
ह्रदय नयन सब,
तुम पर हारूँ.
दे दूँ तुमको,
रवि सुधांशु.
या स्वर्ण मृग,
कहो तो मारूं.
ऐसे वचन मैं,
दूं तो कैसे.
सामर्थ्य अपना,
कैसे बिसारूँ?
यह सब मुझसे,
कभी ना होगा.
कैसे मैं ओढूँ,
प्रणय का चोगा?
ऐसा नहीं की,
प्रेम नहीं है.
वृक्ष ह्रदय का,
ठूंठ नहीं है.
लेकिन इस योद्धा,
की नियति.
है दुंदुभि,
शहनाई नहीं है.
रण ही मेरा,
निर्वाण बना है.
अब और कोई,
अस्तित्व नहीं है.
दूजी का तुमको,
स्थान ना दूंगा.
मान ना दूँ,
अपमान ना दूंगा.
या तो मृत्यु,
वरण करेगी.
या ये खडग,
ही साथ रहेगी.
बस नीलकंठ,
मत कहना मुझको.
कंठ में यूँ तो,
गरल धरुंगा.
अमर नहीं हूँ,
मैं शंकर सा.
इस विष से ही,
कभी मरुंगा.
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