अपेक्षित..


होगे महनीय तुम, उत्तम,
सामर्थ्य नहीं, नहीं झुठलाऊंगा।
ऊसर थल- जीवंत कौमुदी तुमसे हैं,
होंगे, प्रश्नचिन्ह नहीं लगाऊँगा।

कहोगे तो पढ़ दूँगा ऋचाएँ,
मंत्र संभवतः साथ में दोहराऊँगा।
जो गाते हो गान, होंगे रुचिकर,
तो सहर्ष मैं भी गाऊँगा।

श्रद्धेय होंगे यदि विचार किसलय,
मैं भी रचूँगा उन पर गीत।
तुम्हारे तय मानकों पर सब,
राग-ताल-झंकार बजाऊँगा।

तुम्हारे अखंड नाद आलापों में,
जोडूँगा उद्धत मधुकर अध्याय।
लगेगा अनुकरणीय पथ तो,
स्वेच्छा से तुम्हारा अनुयायी कहलाऊँगा।

किन्तु मेरा रच मैं स्वयं हूँ,
रचूँगा स्वायत्त स्वत से ही।
केवल तुम्हारी अनुशंसा हेतु,
निःसृत सृजित न पगुराऊँगा।

मोक्ष...




स्वायत्त प्रशमन करते,
मेरे उद्धत शब्द।
नवोन्मेषण हेतु संघनित,
आलोड़ित होते हैं।
करना चाहते हैं सर्जना,
वे स्वयं के गीत की।

स्व-सायुज्य विचार मधुकरों से,
संपृक्त वह गीत विग्रह।
सान्द्र प्रशंसा केलि की,
उत्फुल्ल स्पृहा लिए,
झांकना चाहते हैं वातायनों से।
विहस उठना चाहते हैं।

किन्तु क्या मधुमास का,
निरभ्र आना संभव हुआ है?
स्वयं से रचे शब्द,
उत्स से विगलित हो उठते हैं।
स्वयं से ही विमुख,
अभिप्रेत, प्रसूत, विछिन्न।

उच्चारों की श्रेयस विभाएँ,
गह्वरों में कांपती हैं, कुंठित।
व्याकरण का केसरी सौंदर्य,
नहीं सुहाता नासापुटों को।
प्रांजल शब्द होते जाते हैं,
परिवर्तित शृंगीभालों में।

इन विचारों के झुरमुटों से,
उन्नयन करता कडवापन।
इस मधुप संकुल में,
प्रच्छन्न विशद अवसाद।
यह संदेह की दस विमायें,
अंततः किसका इंगित हैं?

ऐसा तो संभव नहीं कि,
मेरे गीत चले गए हों,
किसी अगत्यात्मक देश के,
उत्पल दलों में डूबने।
किसी अलसाई झिप में धंस,
प्रतानों में नाहक फंसने।

बेलौस झूमते रहने से,
श्लथ निर्वाकपन तक।
मेरी समझ से की उन्होंने,
उन्मीलन की ही क्रिया।
क्या मेरी अहर्निश अनिमेष दृष्टि,
किंचित निमीलित हो गई थी?
निश्चय ही!

संभवतः अपने ऋजु आख्यान में,
नहीं कर पाया गणना।
तुम्हारी अहेतुक वीथिकाओं की,
जो तुमने जीवन पाथेय में बांधी थीं।
नहीं रख पाया मन व्रणों को,
स्वच्छ, धवल, गंधहीन।

नहीं सुन पाया सोपानों से,
विप्लव के मादल का स्वर।
तुम्हारी मृदुल मोहक संसृति,
जिसमे पहले से रहना था विनत।
उस पूजार्ह अस्तित्व के आगे,
अब शब्दों के साथ प्रणत हूँ।
इस आर्जव प्रेम सरिता में,
मेरे शब्द मोक्ष पायें।





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निरभ्र= स्वच्छ/ बिन बादलों के
विग्रह= देव प्रतिमा
प्रसूत= दूसरी वस्तु से लिया
संपृक्त= डूबा/घिरा
नासापुट= नथुने/नसिका
वातायन= खिड़की
अभिप्रेत= अवांछित
विमा= आयाम/dimensions
सान्द्र= गाढ़ा
विगलित= पिघला
उत्पल= कमल
पूजार्ह= पूजनीय
श्लथ= थका
निर्वाक= चुप
अहर्निश= दिन-रात
विप्लव= विनाश
मादल= ढोल
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प्रेम नहीं है?



करुणा के घट स्मितित मनोहर,
अगणित वर्षों से ढुलकाना।
रज में डूबे बकुल-फूल को,
नित प्रात विरज करके जाना।

भादो के जाते घन दल से,
कुछ अंजन ले कर आना।
मेघों के निर्घोष से चुन कर,
जल बूँद-बूँद कर छिटकाना।

ये तो कोई रिपुदल का,
विनियम आखेट नहीं है।
फिर क्यों नित्य कहा करते हो,
किंचित प्रेम नहीं है।

सिकते सूखे से कपोल पर,
मृदु आसव का लेप लगाना।
पाटल के सूखे विटपों पर,
चन्दन की सी गंध सजाना।

अरूप नेह की लता विहंगम,
श्वास पकड़ कर चढ़ जाना।
बन के हास निरुपम हिय का,
दिव मीलित, सुभीता कर जाना।

ये तो किन्ही तरुण गीतों के,
अनी की टेर नहीं है।
फिर क्यों नित्य कहा करते हो,
किंचित प्रेम नहीं है।

तूलिका से बातें कर कर के,
दूर यवनिका तक लिख आना।
निर्बंध अनल अभिसार बना कर,
रंगों की थाती बिखराना।

सीपी के उच्छ्वास बुलबुले,
चुनना, चुनते ही जाना।
मुक्ताफल के अनुनादों से,
अनुराग खींच कर ले आना।

ये तो किसी पूर्वजन्म के,
वलय का फेर नहीं है।
फिर क्यों नित्य कहा करते हो,
किंचित प्रेम नहीं है।

पूजा की थाली छू करके,
सब खील, बताशे कर जाना।
और स्मृति के हर एक कण पर,
रिद्धिमा की रोली बिखराना।

लोचन के कोमल अभ्रों का,
तोय निलय पर टपकाना।
स्नेह से पूरित वर्ण गूंथना,
गीत मृदुल गुनते जाना।

यह सब मात्र मेरे स्वप्नों का,
कोरा संकेत नहीं है।
फिर क्यों नित्य कहा करते हो,
किंचित प्रेम नहीं है।

संघर्ष पथ में...



गंडक-कोसी बह जाने दो.
आए निदाध तो आने दो.
जो लोल व्यथा की क्रीडा है,
उसको मल्हार बजाने दो.

सुरधनु सजें या नहीं सजें,
द्रुम सुमन उगें या नहीं उगें.
हो जीर्ण-विकीर्ण यदि नभ भी,
उरगों को गल्प सुनाने दो.

राका हर दिवस के बाद में हो,
हर वृन्त सदा आह्लाद में हो.
यह हर्षिल विभ्रम नहीं पालो,
सत को सिगड़ी सुलगाने दो.

आमोद-प्रमोद को मथ डालो,
आँधी-पानी में रथ डालो.
और गोत्र तनिक जो बहता हो,
उसको सहर्ष बह जाने दो.

अमर्त्य अराति विद्रूप कहे,
हर क्रीत विभा परित्यक्त रहे.
दग्ध व्रणों से भीत न हो,
जीवन तनिका तन जाने दो.

बस बहुत हुआ संध्या चुम्बन,
आरव-आरुषी का आलिंगन.
अब यह ललाट कुछ कलित करो,
दिनकर का तेज लजाने दो.

सोमिल लोचन में क्रोध भरो,
असि के विटपों पर क्षोभ धरो.
अतिरेक प्रगल्भा मूक रहे,
अहिअभ्रों को तोय लुटाने दो.

यदि एक टिटिहरी जिला सको,
जीवन का परिमल बहा सको.
अथ काल भी आड़े आ जाए,
शिख से नख तक जल जाने दो.

दुर्धर्ष मृषाओं से लड़ कर,
अति अनघ ऋचाओं को पढ़ कर.
नाहर से ऊँची श्वास भरो,
पितरों को तनिक गर्वाने दो.

यह जिजीविषा सम्मान रहे,
जीवन से ऊँचा नाम रहे.
उत्ताल भाल यदि देख वसु,
थर्राते हों, थर्राने दो.