हिमालय की तराई,
लद्दाख के किसी दर्रे से।
माँ ने किसी सर्दी में,
मंगाए थे किसी से,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।
बिंधे नहीं थे,
ताजे थे ना एकदम।
मानो शम्भू ने कैलाश पर,
स्वयं ही दिए हों,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।
कील नहीं लगवाती माँ,
लोहा-तेल-शनि खूब,
मानती हैं माँ।
छिदवाती कैसे कील से,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।
सात महीने- पापा कहते हैं,
माँ ने कुछ नहीं खर्चा।
बनवाने चांदी की कील।
छिदवाए शिवरात्री पर,
बीज कुछ रुद्राक्ष के।
तब से आज तक माँ को,
यकीन है महादेव पर।
शंकर को भी यकीनन होगा,
माँ ने जो उनके नाम लिए।
बीज कुछ रुद्राक्ष के।
शिव का तो नहीं पता मुझे पर,
गंगा स्नान रोज हो जाता है।
जब पानी गुजरता है होकर इनसे,
और लहराते हैं ग्रीवा पर मेरी,
बीज कुछ रुद्राक्ष के.
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