बीती बाईस रातों से,
खिड़की नहीं खोली मैंने.
क्या पता कब कैसे,
चले आयें यहाँ,
तुम्हारे ख्वाब-एहसास.
और जाना पड़े मेरी,
नींद को पलक छोड़ कर.
पर कमबख्त नींद भी ना,
अकेले रहना चाहती है.
पसंद नहीं उसे घर में,
रखा किसी का सामान.
आज मौक़ा पाकर मैंने,
कर ही डाली सफाई जरा.
याद मिली है तुम्हारी.
दो दिन से खडा हूँ,
दरवाजा खोलो ज़रा.
लो अपनी याद संभालो,
मुझे नींद चाहिए मेरी.
या खोलो अपनी खिड़की,
दे दो एक झलक भी.
मैं नींद से किनारा कर लूँ.
खिड़की नहीं खोली मैंने.
क्या पता कब कैसे,
चले आयें यहाँ,
तुम्हारे ख्वाब-एहसास.
और जाना पड़े मेरी,
नींद को पलक छोड़ कर.
पर कमबख्त नींद भी ना,
अकेले रहना चाहती है.
पसंद नहीं उसे घर में,
रखा किसी का सामान.
आज मौक़ा पाकर मैंने,
कर ही डाली सफाई जरा.
याद मिली है तुम्हारी.
दो दिन से खडा हूँ,
दरवाजा खोलो ज़रा.
लो अपनी याद संभालो,
मुझे नींद चाहिए मेरी.
या खोलो अपनी खिड़की,
दे दो एक झलक भी.
मैं नींद से किनारा कर लूँ.
1 टिप्पणियाँ:
बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में
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