संदेह....
बहा दो आज या,
भर दो शिराओं में.
हो जाओ स्नेहिल या,
होने दो मुझे दिवंगत.
ना रखो या रखो मुझमे,
अब यह संदेह गरल.
विष-स्वभाव....
सिर्फ करैत या,
गेहुंमन ही नहीं.
विषैले अधिकतर,
होते हैं विचार,
इर्ष्या, द्वेष और,
कटुता-हीनता के.
बच सकता है मनुज,
रखे अगर एंटीडॉट,
धीरज और स्नेह की.
घनत्व.....
या तो प्रेम या विद्वेष,
मेरे गीत एक रंग हैं.
आखिर अलग है घनत्व,
मेरी स्याही, तुम्हारे विष का.
भले एक दवात में,
रखे एक संग हैं.
रूप.....
जो हो कटु,
आवश्यक नहीं की,
हो जहर ही हमेशा.
परिस्थितिवश कभी-कभी,
मनीषियों की होती है,
करेले सी वेशभूषा.
अंतर....
अंतर है रखने,
और करने में धारण,
भले ही मामूली.
समस्त चराचर मगर,
इसी अंतर के चारण.
विष रखें है सभी,
करें बस शम्भू धारण.
अम्मा....
तुममे विष तो ,
है नहीं लेशमात्र भी.
हाँ पीते गरल,
देखा है तुम्हे अक्सर.
तंतु तुम्हारे प्रेम के,
बना देते हैं उसे सुपाच्य.
हलाहल भी अक्षम है,
तुम्हे नीलकंठ बनाने में.
1 टिप्पणियाँ:
आपकी भाषा और इन कविताओं का शिल्प दोनो ही मुझे अच्छा लगा ।
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