अम्मा जानती हो,
आज शहर की,
सबसे ऊँची इमारत,
की छत पर खडा,
लिख रहा हूँ.
कोई दो-तीन सौ,
फीट ऊँची है.
चींटी जैसे है,
सब लोग सामान,
नीचे सड़क पर.
लेकिन माँ पता है,
इतनी ऊँचाई से,
डर नहीं लगता है.
बल्कि ऊँचाई महसूस,
तक नहीं होती.
बचपन में अपने,
घुटनों मुझे उठा,
जाने कितने ही,
आसमान दिखाए,
तुमने अम्मा.
बच्चा था अम्मा,
बस खिलखिला भर,
देता था मन मेरा.
तेरे साथ डर तब भी,
नहीं लगा कभी.
अच्छा अम्मा अब,
इतनी ऊपर हूँ तो,
कह लूँ जरा,
खुदा को शुक्रिया,
खुदा के लिए.
खुद से खुद निकाल,
जाने कैसे दिया,
होगा उसने मुझे.
हाँ माँ मेरा खुदा,
तुम ही तो हो.
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