उतार दिया तरकश,
खोल दी प्रत्यंचा.
रोष तो था ही नहीं,
क्षोभ भी बहाने लगे.
अपने कष्ट रख दिए,
तनिक ताक पर.
बैठ कर राम बेर,
शबरी के खाने लगे.
अंतस प्रसन्न न था,
पेशानियों पर छुपाया मगर.
जब देख निरीह स्नेह,
हुए विह्वल औ मुस्काने लगे.
जल उठे थे गीत,
हिय में शबरी के,
जले-बुझे हर दीप,
उस दिवस गाने लगे.
जब होती है क्षमा,
दया, मिठास ह्रदय में.
हर रात दिवाली सी,
झमक जगमगाने लगे.
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