अब तक तो शायद,
तैयार हो गई होंगी,
चने की हरी फलियाँ.
आलू-मटर रोज,
भूनते होंगे मामा,
अंगीठी अलाव पर.
मामी ने भी तो,
डाल दी होंगी बड़ियाँ.
और गईया ने दी होगी,
नई फिर एक बछिया.
तुम लगा चश्मा,
उसके दांत गिनती होगी.
सरसों के साग,
मामा की बिटिया,
अब भी जलाती है?
तुम भोर में ही,
नहाती हो अब भी,
सूरज के पहले?
यादें धुंधलाने लगी हैं,
मौसमी अचार की नानी,
एक बरनी भिजवा दो.
5 टिप्पणियाँ:
बहुत बढ़िया......पारिवारिक सजीवता है हर ख्याल में
:)
Aap dono ka bahut bahut shukriya
behtreen.rachnaa........
हूँ ....कई बरस पीछे की ज़िन्दगी के कुछ पल फिर से जीने का अवसर मिल गया। वे पल जीवित हैं अभी, पर वो ज़िन्दगी कहाँ खो गयी, पता नहीं ? खोजता हूँ पर मिलती नहीं। शायद विकास के जंगल में खो गयी है कहीं।
Post a Comment