समंदर के अन्दर...
जाने कितने सीप-मोती,
छुपाये है अपने अन्दर.
नदियों से रोज छीन कर,
खारा साहूकार समंदर.
अन्दर का समंदर....
बहुत रोज से जमा था,
पूरे बदन के अन्दर.
आँखों से बहाता हूँ,
मैं आज ये समंदर.
अपने कहे के लिए अक्खडपन रखना मेरा नियत व्यवहार है, किन्तु आलोचना के वृक्ष प्रिय हैं मुझे।
ऐसा नहीं था कि प्रेम दीक्षायें नहीं लिखी जा सकती थीं, ऐसा भी नहीं था कि भूखे पेटों की दहाड़ नहीं लिख सकता था मैं, पर मुझे दूब की लहकन अधिक प्रिय है।
वर्ण-शब्द-व्याकरण नहीं है, सुर संगीत का वरण नहीं है। माँ की साँसों का लेखा है, जो व्याध को देता धोखा है।
सोंधे से फूल, गुलगुली सी माटी, गंगा का तीर, त्रिकोणमिति, पुरानी कुछ गेंदें, इतना ही हूँ मैं। साहित्य किसे कहते हैं? मुझे सचमुच नहीं पता।
स्वयं के वातायनों से बुर्ज-कंगूरे नहीं दिखते। हे नींव तुम पर अहर्निश प्रणत हूँ।
3 टिप्पणियाँ:
अरे वाह आप तो खूब लिखते हैं खूब सारा भी और बहुत खूब भी ..शुभकामनाएं ॥
behad khoobsurat rachnaa,sir........
समंदर के अन्दर... :) अन्दर का समंदर.... ;)
the intelligently chosen titles just add to the beauty of these two ...
samandar ko खारा साहूकार bataane kaa khayaal mujhe bahut pasand aaya...
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