कल तक जो था,
सबसे सुन्दर जवान.
जीवन के पथरीले,
पथ को जिसने,
सिर्फ एक स्पर्श से,
पिघला डाला था.
समय का वेग,
आयु का उफान,
बेअसर थे सब,
जिसपर आज तक.
काली रातें, भीषण बाढ़,
शीतलहर-घनघोर अकाल.
ना खींच सके थे एक,
रोंया तक जिसका.
जिसकी परछाई भी,
अत्यंत शीतल थी,
अम्बर की भांति.
सुहासिनी पलकें और,
दिग्विजयी मुस्कान की,
जिसकी चल-अचल,
सौगंध उठाते थे.
जाने किस उन्माद आज,
संतान हुई उससे विमुख.
सूर्यमुखी का जैसे,
सूर्य खो गया.
वह सुघड़ अचानक,
वयोवृद्ध हो गया.
सौगंध सूर्य की,
मैं सूर्य तो नहीं.
पर आपको पिताजी,
रखूँगा चिर युवा.
3 टिप्पणियाँ:
कल तक जो था,
सबसे सुन्दर जवान.
जीवन के पथरीले,
पथ को जिसने,
सिर्फ एक स्पर्श से,
पिघला डाला था.
समय का वेग,
आयु का उफान,
बेअसर थे सब,
जिसपर आज तक.
BEHTREEN RACHNA
behad khoobsoorat kriti...aapko dil se naman aisaa likh sakne ke liye...
Dhanyawaad Sanjay ji...
Vartika ji....itni taareef na kariye, shukriya jo aapne bhav samjhe :)
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