तुमने कितने ही रच डाले,
मीठे-कडवे सुगठित प्याले.
मेरी अनगढ़ सी मिटटी की,
सोंधी सी महक पर कहाँ गई?
अब मैना बहुत फुदकती है,
तोते को मंतर आते हैं.
लेकिन जो मैंने छोड़ी थी,
भोली सी चहक पर कहाँ गई?
पत्थर की चिकनी छाती पर,
कितने डनलप के गद्दे हैं.
लेकिन जो पहले मूज की थी,
वो मेरी खटिया कहाँ गई?
पैनकेक है ओवन में,
और ग्रिल पर गार्लिक पिज्जा है.
पर हरी वो लहसुन की बाती,
वो जली रोटियाँ कहाँ गई?
इस सर्दी को दो मास हुए,
गुड़ का न कोई ठिकाना है.
अब आँख दोपहर खुलती है,
'गुड़ मार्निंग' जाने कहाँ गई?
माँ के जंतर-रक्षा गंडे,
'रिप्लेस' हुए 'रिस्टबैंडों' से.
पर माँ को गले लगाने की,
अब मंशा तक भी कहाँ गई?
3 टिप्पणियाँ:
:) ekdam aapke style ki....soundhi soundhi si khushbu liye hue pyaari si rachnaa...
Sanjay ji bahut shukriya
Vartika ji, Kya kahun???
haan..........bas,,
Rahne dijiye... :)
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