उस एक क्षण में...

साँझ के उस पार,
पैर लटकाए हुए तुम
क्या क्या बड़बडाये जाते हो।
और जब चिढ कर,
लगाता हूँ तुम्हे आवाज!
कर्कश!
तो पलट कर टिका देते हो दृष्टि,
बाँध देते हो चितवन


मैं पलकों के संपुट खोल,
सहेजने लगता हूँ तुम्हारी दीठ

मेरा स्व मुझसे हार जाता है
विवाद प्रतिवाद सभी वादों में

मैं उस ऊँचे नीले वितान पर
आँज देना चाहता हूँ यह रूप


मेरी सारी सम्वेदनायें
गुम्फित हो उठतीं हैं

मेरा मैं विस्मृत!
मेरा संचित अदृश्य

मेरा प्राप्य अलभ्य!
मेरा ईष्ट समीप!

तुम्हारे अधर हिलते हैं
मैं समझ लेता हूँ,
सुन नहीं पाता


तुम्हारा क्षण भर का स्पर्श
करता है संचरित राग-महाराग

जीवन अपनी गति छोड़
करने लगता है विश्राम

चिरकाल से नभ में फैला प्रकाश,
समा जाता है चेतना में

वेदना की काई घुल कर,
निकल आती है पोरों से


मेरे भीतर बस बचते हो
तुम, तुम्हारा प्रेम,
उसकी विरल अभिव्यक्ति

और वह अलौकिक चित्र,
जिसे कोई तूलिका चित्रित नहीं कर सकती

वह संगीत जिसे रचने में,
सारी वीणाएँ-वेणु अक्षम हैं