अंतस में हमेशा,
घुलते हैं जो.
बंद पलकों में ही,
खुलते हैं जो.
नीरव दिवस में,
जो हैं पलछिन.
ऐसे ही होते हैं,
काठ के फूल.
जो नहीं सजा करते,
जूडे में रजनीप्रिया के.
जिन्हें नहीं कर पाते,
स्वीकार स्वर्ग के देव.
रहते हैं मुरझाये,
ना खिलते किसी दिन.
चुप चुप से रोते हैं,
काठ के फूल.
जो हर रात स्वप्न में,
देता हूँ तुमको.
हाथों से तुम्हारे,
मैं लेता हूँ जिनको.
जो हैं नितांत मेरे,
पड़ें ना दिखाई.
मेरी साँसों में जलते हैं,
काठ के फूल.
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