प्रणाम..



महि पर छितरे मेरे शब्द,
जिनके वर्ण भी धूसरित हैं,
रहते हैं सदैव आकुल,
हो जाने को विलीन,
घुल जाने को निस्तेज.

अमिष अनुभूति से रचे,
मेरे अकार आक्रान्त वाक्य.
वाग्जालों में उलझ कर,
दिखते हैं संज्ञाशून्य,
अवसाद में धंसे हुए अतिरथ.

हठी प्रचेतस प्रदोष,
लगने लगता है तनिक,
और हठी, और विशाल.
विपुल विक्रांत गीत,
रमते हैं समूह क्रंदन.

अदम्य ललक औ अभिरुचियाँ,
निस्पृह हो जाती हैं नित्य.
अहिजित ह्रदय होने लगता है,
हर फुंफकार पर कम्पित,
पर्वत से बन गौरिल.

ऐसे में अनघ स्पर्श तुम्हारा,
रच देता है उल्लास पर्व.
तुम्हारा अमिष आशीष,
कर देता है प्रदीप्त,
प्रचंड धिपिन प्रद्योत.

दृष्टि का अरिहंत पुंज,
कर देता है भस्मीभूत,
शब्दों के सभी विकार.
अभीक ओज देता है,
उन्हें अघोष तेजस्वी आकार.

द्युतमान अनुकम्पा के वचन,
स्नेहिल मलय-परिमल सम,
लेते हैं स्वरुप परिण का.
और वाक्य पा जाते हैं मेरे,
हेमाभ उचित मृदु विन्यास.

ऐसे अतिपुण्य क्षणों के असीम,
उदीप क्षणों में डूबता-उतरता,
मेरे स्व का तुरंग,
बस इतना ही सक्षम है.
हर रोम-स्पंदन का प्रणाम,
स्वीकार करो तात!!




************************************
महि= धरती
अमिष= छल रहित, ईमानदार
अतिरथ= योद्धा
प्रचेतस= बल
प्रदोष=अँधेरा
विक्रांत=बलवान
निस्पृह= इच्छाहीन
अहिजित= जिसने सर्पों को जीत रखा हो
गौरिल= राई/white mustard
अनघ= पुनीत
धिपिन=उत्साहजनक
प्रद्योत=चमक
अरिहंत= शत्रुओं का नाश करने वाला
अभीक= भयहीन
द्युतमान= चमकदार/तेजस्वी
परिमल= सुगंध
परिण=गणेश
हेमाभ= सोने जैसा चमकदार
उदीप= बाढ़
तुरंग= घोडा/मन

दे सकोगे वचन...



एक दिन!
एक दिन मैं भी बैठूँगा,
इसी पथ अपलक.

करूँगा मैं भी प्रतीक्षा,
खड़ा ले पाँगुर गुच्छ,
साष्टांग, हो दंडवत.

बाँधूँगा केसरिया फेरी,
रखूँगा हाथ पर धूप,
निष्कंप, जड़-यथावत.

सभी की भांति,
मैं भी छूऊँगा सीधा,
हल्दी-गोंद-कंद-अक्षत.

करूँगा मैं भी परिक्रमा,
पीपल वटवृक्ष की,
रखूँगा आस्था से हर व्रत.

टुहुक-टुहुक मैं भी,
करूँगा स्वरीय प्रेम,
जब गाएगी मधुर पिक.

नत होऊँगा श्रद्धावश,
जब रक्तिम होगा दिगंत,
और मिहिर बनेगा चरक.

एक दिन!
एक दिन मैं भी,
छोड़ दूँगा हर रण.

धोऊँगा मैं भी,
धमनियों को गंगाजल से,
रोऊँगा शायद बिलख.

शीश नवाए माँगूंगा,
भिक्षा में क्षमा सबसे,
धरा-प्रकृति-शिख-नख.

एक दिन!
एक दिन सौंप दूँगा,
तुम्हारा ही छोड़ा,
तुमको ही धन.

ले जाओ, सिखाओ,
धर्म, दया, क्षमा,
दिपदिपाओ स्वर्ण-रजत.

उतार कर कवच,
सह लूँगा कृपाण.
बहा दूँगा गोत्र अपना,
मूक, निर्विवाद, निष्कपट.

किन्तु एक दिन,
सदाशयता के साथ,
ऊँचा भाल किये,
लेने अपने राहुल को,
सचमुच तुम आओगे?

वचन दो गौतम!!!

मेरे लिए अब तक,
तुम बुद्ध नहीं हुए.

शेष संवाद...



मैं नीलम मेघ नहीं नव्या,
जो तुम पर झम-झम कर छाऊँ.
श्वेत-शुष्क सा फाहा हूँ,
नभ का किंचित अवशेष कोई.

कोई नव लतिका का गात नहीं,
कहूँ प्रिय और प्रणय स्पर्श पाऊँ.
बस फुनगी का एक किसलय हूँ,
इससे ना तनिक विशेष कोई.

नंदन वन का मैं अलि नहीं,
जो गुंजू, गीत मृदु गाऊँ.
मैं हिम-तुषार की पीड़ा हूँ,
ना सीपी का सन्देश कोई.

ना पीत पुष्प मैं यूथी का,
जो दूँ सुगंध, झर-झर जाऊँ.
हूँ ठूँठ किसी एक बीहड़ का,
पर रखता नहीं हूँ क्लेश कोई.

युग युग का स्नेह छलक जाए,
मैं सौगंधों से धुल जाऊँ.
ऐसा तो कोई प्रमेय न था,
था स्नेह का एक निमेष कोई.

स्निग्ध शांत या हहर-हहर,
संदीप वायु सम बह जाऊँ.
निश्चय ही स्नेह नहीं रखना,
ना रखना किन्तु द्वेष कोई.

हूँ बलि नहीं, ना शिवि हूँ मैं,
जो तारक माँगो नभ लाऊँ.
हाँ कुछ ज्योति दे पाऊँगा,
ले दीपक जैसा भेष कोई.

जो मैं कपूर की गोटी हूँ,
है अतिसंभव मैं घुल जाऊँ.
किन्तु मेरे ना होने पर भी,
संवाद रहेगा शेष कोई.

यह युग...




यह युग है,
लिख देने का,
सुलगती कविताएँ.
उड़ेलने का संत्रास.

यह काल है,
जहाँ समय नहीं रहता.
नहीं दौड़ता, दौडाता है,
बन कर महाकाल.

चुह्चुहाई बूंदों से सने गाल,
और कई रात जागी,
भक्क आँखों से उठते,
भकुआए धुंएँ का.

सामीप्य के अवश्यम्भावी,
अलगाव को मानने का.
यह युग है सीपीयों से,
स्वाति छीन लाने का.

लेकर आस्तीन में,
गर्म भक्क तारकोल.
समय है रंगने का आसमान.
इन्द्रधनुष छिन्न-भिन्न करने का.

चुन-चुन के पलाश,
खांडव वन जलाने का.
वर्तमान है कपास को,
शिरा-द्रव्य से नहलाने का.

कोयलों पर टोना कर,
उन्हें मूक बनाने का.
गुलमोहर को छुटपने से,
अम्ल पिलाने का.

युग है बनने का बुद्धजीवी,
काम से समय निकाल,
मनन करने का बाईस घंटे.
स्वयं को छोड़,
प्रत्येक को कोसने का.

किन्तु इन सबसे परे,
तुम नहीं बदली तनिक.
तुम्हारा बेटा ही रहूँ माँ,
मैं यह युग, कविताई छोड़ दूँ.

महानता...



कठिन है ठीक से,
समझ पाना तुम्हे.
कितने आवरण हैं,
नेह के तुम्हारे?

आवृत्ति और पुनरावृत्ति,
के ठीक बीचों-बीच.
कहाँ-कहाँ और क्यूँ,
रुकते ठिठकते हो?

'होने' और 'लुप्त होने',
के बीच का,
तुम्हारा अजनबी प्रेम.
मृतप्राय पर हठी,
तुम्हारा आभास.
वहीँ खडा मिलता है,
लिए उद्दात असीम,
लेकिन संकुचित अपनापन.

पत्तों सी तितलियाँ,
या तितलियों से पत्तों,
के बीच का यह,
दृष्टिभ्रम अथ सौंदर्य.
तुमसे ही है या,
रचा है तुम्हारा?

मेरे पारे की चुपचाप बूंदों,
या नमकीन काँच के शरबत.
और तुम्हारी बासाख्ता,
चिल्लाती ख़ामोशी को,
जोड़ने वाले तार क्या हैं?
तुम्हारी गर्माहट से,
पिघली सलाखें या,
ठन्डे हाथों से जम चुकी,
कड़ियों वाली जंजीर?

घबराओ मत!
उत्तर की अपेक्षा नहीं है.
यूँ भी तुम्हारे,
क्रमबद्ध, संगीतमय, कवितामय,
रंगीन उत्तर मुझे,
समझ नहीं आत़े.

हाँ!
कभी मिलो क्षितिज के पार,
जहाँ तुम्हारा रंगीन,
धनुष ना हो.
काला  हो सूरज,
पिघल चुकी हो चाँदनी.

उस दिन उत्तर देना.
कितना बचा था प्रेम,
तुम्हारी हर क्षण की महानता में?