मैं लौट सकता हूँ...


दधिची नहीं हूँ मैं,
ना कोई पुण्यात्मा हूँ.
परन्तु अगर मेरे लहू से,
मिलती है शान्ति तुम्हे.

तो तैयार हूँ मेरे मित्र,
निचोड़ लो मेरी हर धमनी.
या कहो तो मैं ही,
खींच दूँ शिरायें अपनी.

मगर बस मेरा ही,
लहू हो अंतिम गिरा.
इसके बाद ना रंगनी चाहिए,
फिर से ये लाल धरा.

मद में ना आना,
सज्जन-परिहास ना करना.
मैं नहीं हूँ सोच कर,
बेवजह अट्टाहास ना करना.

वरण मेरे धीरज की राख,
उठ खड़ी होगी उसी क्षण.
उनका ताप प्रचुर है,
उन्ही में तुम्हे मिलाने को.

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