शरद से प्रेम...

जब जब शरद के चौथ की,
साँझ उतरती है।
हहर जाता हूँ मैं,
कचोटता है मन।

क्या इतना कठिन है,
इतना पीडादायी?
विगत अनंत वर्षों से,
तुम्हे भुलाना।

जब हलकी सर्दी छाती है,
और रजनी कोई,
चुस्कियां चाय की लगाती है।
हरी-फूशिया चादर में।
हद हो जाती है,
आकुलता की।
विस्मृत पसीना भी,
चुहचुहा जाता है।

क्या सही में,
इतना?
इतना तो नेह,
नहीं था अपना।
के मेरी पेशानी के बल,
बदल गए झुर्रियों में।

पर यह ह्रदय,
और किसी से।
नेह लगा भी तो,
नहीं पाता है।
उम्मीद है किसी,
सुबह मिलो तुम।
शरद से प्रेम है,
मुझे चौथ के अलावा.

कुछ तुम तड़पो,
कुछ हम तड़पें।
साथ नहीं ,
साथ साथ सही।

कुछ तुम जलो,
कुछ हम जलें।
साथ नहीं,
साथ साथ सही।

कुछ तुम फूटो,
कुछ हम फूटें।
साथ नहीं,
साथ साथ सही।

अग्नि स्फुलिंग,
एक तुम बनो,
एक हम बनें,
साथ नहीं,
साथ साथ सही।

पवन में ही
आलिंगन हो।
समा जाएँ,
धरा में फ़िर।
साथ नही,
साथ साथ सही..

मैंने खुद को कहा मेघ कब,
कब तुझको कोयल जाना।
वृक्ष नहीं समझा है खुद को,
न तुझको वल्लरी जाना।
न मैं तिमिर का अंत प्रहर हूँ,
हरसिंगार की न तुम माला।
ना ही अमर फूल मैं पौष का,
न तुम अबाबील माना।
फिर भी कभी किसी प्रणय का,
तुमसे है ये अनय निवेदन।
जब भी मेरा दीप बुझेगा,
देना तुम अंतिम संबोधन.

एक सिरा दो तुम,
के पा जाएँ हम।
एक सिरा लो तुम,
के दुःख हो ज़रा कम।
ज्यादा की आस न दो,
कुछ ज्यादा अहसास न दो।
बस दो एक मधुरिम,
अदेही सम्बन्ध।

ना सागर नदी सा,
ना वृक्ष वल्लरी सा।
मुझे प्रेम न दो,
कलि और अलि सा।
बस इतना नेह रखो,
नदी के किनारे।
चलते चलते जो,
नजरें मिला लें।
चेहरे पर,
खिले मुस्कान।
दोनों अधरों पर,
हो प्रेम छन्द....

शुभकामनायें....

दीप जलें, चमके कंदीलें।
चमचम और लड्डू के टीले,
स्वयं गणेश और लक्ष्मी आयें,
सब तारे आँगन छितरायें,
सारी खुशियाँ अब ये बोलें,
आज तुम्हारे ही घर जी लें।


साईंस.....

आईंस्टीन साहब ने,
बड़ा परेशान किया।
प्रकाश का भार में,
बदलना बता कर।
अब बिजली का बिल,
यकीन दिलाता हैं।


उसकी आँखें..........

शोर में प्रपातों के,
ढूंढती न्यास मेरा है।
जहां छोडा था उसे,
मिलूँ वहीँ काश....


तुम्हारा यकीन......

पहाड़, नदी,
वृक्ष, मकान,
तुम, वह,
तुम्हारा आपसी,
प्रेम अनुराग।
सब काँप गया।
मेरे नदी में एक,
पत्थर मारने का,
यह प्रभाव।


दीपक......

अनकहा ही सही,
प्रेम दोनों तरफ पलता है।
पतंगे पर हम लिखते ग्रन्थ,
दीपक बिन कहे जलता है।

नर की लडाई...

आसान राह वो राही चुने,
जिसको चलना ना आता हो।
या फिर उसको भी भा जाए,
जो मृत्यु से घबराता हो।
मुझको तो देना राह वही,
जिस पर तू भी ना जाता हो,
तू भी तो देखे भाग्य नर का,
नर का नर स्वयं विधाता हो।


विजय.......

विजय दीप्ती की नहीं,
नहीं विजय सत्य की है,
विजय धर्म की नहीं,
नहीं विजय उस परम की है।
मृत्यु पर भी हँसे ठठा कर,
विजय उसी जीवन की है।


मेरा रक्त.....

जल जाऊं यूँ ही,
बंधा धमनियों में?
सूख जाऊं यूँ ही,
जमा शिराओं में?
या काम आऊं रंगने ,
किसी का कागज़?
या कपडा किसी,
गरीब रंगरेज का।
यूँ ही पूछ बैठा मुझसे,
एक दिन मेरा लहू।


खारा सागर, मीठी नदी.....
सागर: मैं तुम पर,
बहुत यकीन नहीं करता।
जितना ऊपर उठो,
गिरने की आशंका,
उतनी ज्यादा है।
नदी: मैं तुम पर,
बहुत यकीन करती हूँ।
जितना डूबो उतना कम है।
मुझे चाहत है और,
डूबने की, और समाने की।


अश्वमेघ का अश्व .....

शत्रुघ्न का धर्म,
राम का यश,
लव की वीरता,
वाल्मीकि का व्रत,
सीता का शील,
कुश का उदय,
इन सब में मैं,
कहाँ गुम हो गया?


जिनके दिल जले......

बचपन से ही लिखा,
"दिवाली अमावस को होती है"
लोग होते आहत,
"तुझसे ख़ुशी से शुरुआत नहीं होती?"
अब युधिस्ठिर से कितना ही कह लो,
वो तो यही कहेगा,
"अश्वत्थामा हत, नर नहीं हथ।"

ईश वन्दना...

पिता की...

शिवी का तन,
हड्डियां दधिची।
पिता हमारे,
स्वयं ब्रम्हर्शी।
जिम्मे उनके,
अरबों काम।
अधरों पर ,
हरदम मुस्कान।
शिव सा पीकर,
परम हलाहल।
हमें कराते,
अमृत पान।
छोटे सारे ,
वेद पुराण।
क्षणभंगुर ,
गीता का ज्ञान।
क्या है मदीना,
क्या गुरु साहिब।
वो ही मेरे,
चारो धाम।

माँ की......


दीप्ती अनल है,
भाव विह्वल है।
देख मुझे जो,
बहुत सरल है।
आँचल के ,
साए में छुपाये।
मुझको पीती,
स्वयं गरल है।
नेत्र तरल हैं,
दृष्टि विरल है।
जिसको बेटा,
सदा कमल है।
प्रेम अचल है,
स्नेह अटल है।
इस जीवन का,
घ्रुणन पटल है।
नित वंदन,
उस माँ को मेरा।
हर धमनी,
तेरा ही बल है.

I pray… I really do

O thou mother! O fount of love.

Your son yearning, standing bestowed.

Touch my spirit, please do touch.

Not from the top, but from the bottom.

Your tender child, cries in isolation.

Let my spirit forth, till them began.

Over my shrine, let them take oath.

The human heart, cannot refrain,

Its’ after all, above all your pain.

Partaking is untold, let them hold.

Make them feel as thou hast felt,

Let my soul shine and melt.

Chop me into pieces, O holy mother,

Or let them crucify me oven again.

Wash my wounds with your tears.

Bless them away and blow their fears.

I’m no Christ nor am thee.

But want to share pain,

Once was in he.

Let me die in torments,

Allow them to slain me,

For their sins.

Mingling tears and mourning for,

Those loved me, and those were Czar.

Till I live for those years.

Let me mingle with their tears,

For all the sorrow sharing,

For all the bitter anguish bearing.

Let the sword pass me.

Forgive my fellow,

I love them hearing.

O mother fairy, love destine

Do love me, and do stand alone.

Beholding the pangs of your dying son.

I know your soul begotten,

Heart rust, you are highly blest.

But I wish you be one,

Who would not weep.

Just hold your tears,

Keep miseries buried deep.

With old scourges rent,

Let me face the torment.

For the sins they do,

Let me get hanged.

My spirit is yours’

I’ll come again.

Sustain your tears O dearer Mom,

To die for them I was born.

Let me live to my latest breath,

Let me be the son of thou.

Let my body bear the death,

Let be share the grief divine.

O virgin mother, hear this request,

Love me, leave me, don’t be blest.

Fire on the flames and let me burn.

Let my blood fill all their wounds.

Make me victorious in thee shrine

Make me stand their crude and divine.

Chop my body and send soul back,

Let me die for them again and again.

In mansions of glory and sparkling delight,

I never want heaven which is so bright.

Do I ever ask any crown?

Let them burn me again and frown,

Never had I wished a Calvary’s tree.

What I loved was love to thee.

Don’t knot me a tie,

But don’t let me down.

I need thorns to wear,

And a deep black gown.

O my gracious redeemer,

Everyone’s savior art thou,

Fulfill my only dream

For their sinful,

Give them smile.

Do impart me everyone’s sin

Amen………………

उसका ख़त लिखना......

वो ख़त लिखती है,
काली स्याही से.
पिछले साल उसे एक,
नीली कलम दी थी.
मीठी मुस्कान के साथ,
कलम उसने ली थी.
पर अब ये क्या?
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही में.

दिखते नहीं शब्द मुझे,
पर आंसू के १३ धब्बे,
पढ़ लेता हूँ मैं.
तब भी पढ़ लेता था,
जब वो नहीं लिखती थी.
पर अब ये क्या?
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही में.

वही उसकी चाची की,
चिक चिक और चिरौरी.
देना उसको गुड की भेली,
खुद खाना गरम कचौडी.
तब भी दर्द समझता था,
समझता हूँ अब भी.
पर अब ये क्या?
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही में.

बाँध देती है वो,
मुर्गे को कमरे में.
ना उठे चाची बांग से,
चिट्ठी लिखने से पहले.
बैरंग आती है चिट्ठी,
तब भी आती थी.
पर अब ये क्या?
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही में.

आज यों ही दवात में,
खून गिरा तो जाना.
शहर ने भुला दिया,
नीले में लाल मिलाना.
काले रंग का यूँ बन जाना.
प्रेम वही है पर,
भाव कम से हो गए हैं.
मेरे , उसके नहीं....
अब समझा क्यूँ????
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही में.

असली सुपरस्टार.....

"अम्मी, अम्मी
सुपरस्टार कैसा होता है."
"जा देख ले,
अपने अब्बू को."
तब नहीं समझा,
सच नहीं माना.
अब दस गुनी,
तनख्वाह में,
आधा घर नहीं चलता,
तब जाना.
तुम सच कहती हो अम्मी.


चिराग तले अँधेरा...

अपनी सूनी पलकों पे,
लेके यादों के दिए,
उनको दिखायी राह,
वो दूर चल दिए.

ना उनकी थी खता,
न उनको था पता.
उनकी यादों के दीयों ने,
नयन नम किये.


रिश्ता........

भैया !!! मेरा समोसा ??
टिंकू ने मेरा बैट,
तोड़ दिया.
आईला!!! तुम कितने,
दुबले हो गए हो.
पंजा लड़ाओगे,
मुझसे अब?
चिपट के कहता,
की भाभी पर गयी.
"वो घर में नहीं,
परसों आना, मिलेंगे."

हर उथले गहरे पल को,
जीता एक वर्ष हूँ.
अवसाद का परम शत्रु,
मैं हर्ष हूँ.

रोते हैं जो सन्नाटे में,
नींद नहीं आने से परेशान,
जीवन के कंटको से व्यथित ,
लोगो को मीठा परामर्श हूँ,
मैं हर्ष हूँ.

घंटो जिस पर सर फोडो,
मैं ऐसा कोई विचार नहीं,
मन के सारे अंगो को,
पंगु कर दे वो विकार नहीं.
चैन से सो सको जिस पर,
मैं वो आनंद फर्श हूँ,
मैं हर्ष हूँ.

ना बुझती वो प्यास नहीं,
यूँ तो कोई ख़ास नहीं.
हरे कस्ट जो ईश नहीं.
पर मैं ईश विमर्श हूँ,
मैं हर्ष हूँ.

अब शोर बहुत करता है,
चिल्लाता बहुत है.
तुम्हारे नहोने पर,
मौका क्यूँ गवांये,
ये सन्नाटा.....

मेरे कान फट जाते हैं,
हाथ लहुलुहान,
बदर पसीने से.
क्यूँ न अब जलाए,
ये सन्नाटा.....

प्लेटफार्म पर भी ,
बेफिक्र फिरता हूँ.
इंजन का हार्न,
क्यूँ अब सुनाये,
ये सन्नाटा....

लेटी तुम वहाँ हो,
और कोमा में मैं हूँ.
कोई क्यूँ पर सुने,
जलते मेरे दिल के,
जख्म क्यूँ दिखाए,
ये सन्नाटा......

मेरे पड़ोसी...

तीन फर्लांग दूर,
मेरे घर से ,
बशीर चचा रहते हैं।
कसम से चची ,
गजब के पकौडे,
बनाती हैं।

पिछवाडे रेशमा,
आपा रहती हैं।
जब उनकी दवात,
को लाता हूँ स्याही।
झोली भर भर ,
बलाएं लेती हैं।

रहमत गली का,
सबसे अच्छा,
बल्लेबाज है।
और रिजवान ,
मेरे दिल के ,
बहुत पास है।

कसम माँ दुर्गा की,
बरकत से बढ़िया,
मुर्तिसाज़,
शहर में नही।

माँ की बीमारी में,
रोटियाँ सलीम के,
घर खाई हैं।
हर ईद मैंने भी,
टोपियाँ चिकन की,
सिलवाई हैं।

बस यही नही,
अविनाश गीत गाता है,
आशुतोष अव्वल है,
पढ़ाई में।

मरियम का कत्थक,
और हरी की ,
चित्रकला कमाल है.
सुखविंदर अगला,
भूटिया है।

विजय पंडित जी,
के बिना अधूरी है,
हर पूजा।

आपको कुछ,
अजीब लगता है क्या??

बताता चलूँ,
मेरे भारत में,
पड़ोसी हिंदू नही,
मुसलमान या,
सिख नही होता।

मेरे भारत में पड़ोसी,
भारतीय होता है,
बस भारतीय............................