चोखा रंग...

रोजनामचा आता है,
शाम साढ़े सात बजे.
और लगभग उसी वक़्त,
हो जाया करते हो,
तुम नितांत निजी.

तुम्हारी चुप सी चुप,
मेरे फटे होंठो से,
झाँकने की तमाम,
कोशिशों में और,
फाड़ देती है उन्हें.

खून रिसता है,
बौखलाया पिनपिनाया सा.
और तुम कह,
देते हो मुझे,
चुपचाप आदमखोर,
खबर बनाने वाले,
खबरिये की तरह.

उस चुप से जूझता,
दौड़ता भागता,
जड़ हो गया हूँ.
और इस मौसम तो,
आये हैं पत्ते भी,
मुझे पर हिना के.

अब भी खबर देखते,
तुम बालकनी से ,
चाय तो नहीं गिराते.

वो चोखा रंग नहीं,
लहू होगा मेरा.

बोलो ना...

हर शाम जंगले से,
देखता था तुम्हे,
काटते हुए तरकारी.

नीली-पीली फ्राक,
गुलाबी सूट डाले,
दिन बदल बारी बारी.

देखता था अहाते में,
खटिया चढ़ के,
धोते तुम्हे बर्तन.

और हर रोज,
थाली चाँद से,
साफ़ होती थी.

देखता था छत पर,
निहारते तारों को,
हर रात तुम्हे.

और पकड़ ही,
लेता था तुम्हे,
ध्रुव तक आत़े.

देखता था रोज,
सफ़ेद चोटियों में,
स्कूल जाते तुम्हे.

और कनखियों से,
पकड़ता था तुमने,
प्रार्थना में गाते.

देखता था उचक,
उचक पकड़ते तुम्हे,
तरोई की फलियाँ.

कल ही मैं,
तीन फीट का,
नाप कर हुआ.

अबकी राखी से,
बांधोगी मुझे भी,
एक चमचम राखी दी?

बोलो, बोलो ना?

आकांक्षा...


स्वेद से लथपथ,
दिन हों मेरे.
दूर हों स्थित,
अगणित प्रतिमान.

वचन स्वयं से,
नींद उड़ा दें.
क्षण की कीमत,
का हो भान.

सांझ के नव,
संकल्प की खातिर.
पास हो मेरे,
"मैं" का ज्ञान.

आए जब आदित्य,
गगन पर.
हाथ उठा कर,
दे सम्मान.

किन्तु धीर,
धरा ना छोड़े.
करे विवेक,
द्रूवा का ध्यान.

क्षणिकाएँ...

एक पाव...

रेवड़ी-गज़क-पट्टियों के लिए,
गुड-बादाम-तिल,
हरिया रोज लाता है.
बेच मेले में इन्हें,
अपने किसनू के लिए,
बस एक पाव,
सत्तू जुटा पाता है.





फूल...

तुम मिलते रहे, खिलते रहे,
आत़े रहे, मुस्कुराते रहे.
छेड़ते रहे, चिढाते रहे.
लौट आओ ना गुलमोहर,
देखो बेर पर फूल आया है.





जून की ठिठुरन...

मेरी सर्द पलकों,
की एवज में.
तुमने कुछ रातों,
की नींद माँगी थी.
गिनती ख़त्म होने को है,
उफ़ ये जून की ठिठुरन.






सच्चे तमगे...

उनकी पेशानी पर,
बल बढ़ते जाते हैं.
और अब्बू हैं की,
मुस्कुरा कर बताते हैं.
सच्चे तमगे सीने पर,
नहीं रखे जाते हैं.







तुम्ही ईश हो...

माँ-प्रतिमा, आरती,
धूप-सुगंध, मंत्र.
आँखें बंद और,
छोटे जुड़े हाथ.
तुम्हारी खुशबू पा,
घूम जाता था.
क्या करूँ माँ,
बचपन में दिशायें,
जान नहीं पाता था.







ख़ुशी...

कल देर रात,
सरकंडों के पीछे,
सिसकती ख़ुशी मिली.
सुबह बिखराने हैं,
सच्चे मोती उसे.
मुझसे खबर छुपाने का,
वादा भी लिया.







आठ साल बाद...

वही गुलमोहर,
वही आहाता,
वही सौराशीष.
"बडी! पास्ता खाओगे?"
"नहीं लाहिड़ी, मासी हैं?"
वही मासी, वही आँखें,
"की रे छेले, कौतो वोर्ष?
बैगून भाजा खाबो?"
"होयएँ मासी,
ओइटा देखती छिलाम."
वही चमक फिर से.



ऊपर बांग्ला लिखा क्यूंकि, जो संवाद बंगाली में हुआ उसे अनुवादित काना उचित नहीं लगा.....अनुवाद है..



"की रे छेले, कौतो वोर्ष?
बैगून भाजा खाबो?"

क्या लड़के, कितने साल हुए, बैगन की पकौड़ी खाओगे?




"होयएँ मासी,
ओइटा देखती छिलाम."

हाँ मौसी, वही देख रहा था (की आप पूछें)

कागज़ ने कहा...

तुमने नहीं लिखा,
तो लोग लिखते थे.
चिट्ठियाँ तुम्हे,
रोज, हर रोज.

तुमने लिखे गीत,
प्रणय के, प्रस्थान के.
उदय के, अवसान के.

तुमने लिखे शब्द,
मर्म के, ममता के.
क्षोभ के, अनुराग के.
जीवन के, मृत्यु की,
विषमता के.

तुमने लिखे दोहे,
चौपाई, क्षणिकाएँ,
ग़ज़ल, कविताएँ.
कहानियां और,
एक-आधे शेर.

सबने की प्रसंशा,
भूरि-भूरि, अघा,
नित्य, प्रतिदिन.

छप गई फिर,
तुम्हारी पुस्तक.
लिख रहे हैं,
समीक्षाएं समीक्षक.

अखबार के बारहवें,
पृष्ठ की सुर्ख़ियों,
में तुम्हारा नाम,
और रविवारीय में,
तस्वीर भी है.

कल पर्चे बाँटे गए,
तुम्हारे कवि सम्मलेन के.
और तुमने सबका,
मेरे सिवा सबका,
नाम गिन दिया,
धन्यवाद ज्ञापन में.

खैर!
घर के पीछे,
की बंसवाड़ी.
यहाँ वहाँ अटी,
दूब की क्यारी.
कौन देखता है,
कहो भला.

इन्ही से तो,
बना हूँ मैं.
पूर्वजन्म से है,
आदत हिकारत की.

जो कहते हैं,
बेकार कहते हैं.
हर घूरे के दिन,
नहीं बहुरते हैं.



ये कुछ लिखने की कोशिश की है तरु दी से विषय ले कर, तो उन्हें सबसे पहले शुक्रिया..

क्षणिकाएँ....

माँ...

वो आँसुओं से ही,
सब्जी धो देती है.
नमक नहीं होता तो,
माँ फूट के रो देती है.




पिता...

अपने ही स्वेद,
नींबू निचोड़ के पिया.
जीवन हवन में,
बैठा पिता.
बच्चों की आँख से,
अश्वमेघ यज्ञ जिया.





बोलती खामोशी...

वर्णमाला और क्वर्टी*,
की जरुरत तुम्हे,
पड़ी ही कब.
खामोशी तुम्हारी,
बहुत बात करती है.





दोस्त...

मेरी बदनिगाही का,
खंजर है पेवस्त,
जिसके सीने में.
वो मुस्कुरा के,
आज भी खुद को,
सिर्फ म्यान कहता है.



तुम बिन...

नैया, केवट,
और पतवार.
पाल, जाल,
नदिया की धार.
तुम बिन है,
सब सूखा थार.




उसे फर्क नहीं पड़ता...

मिले किसी यज्ञ,
तुम्हारा भगवान तुम्हे,
तो पूछना.
आजकल,
कहाँ रहता है?
"चौक वाली मस्जिद में"
शिव मंदिर वाला खुदा,
तो मुझसे,
यही कहता है.




दोस्ती....

उठो!
हर बार तुम ही आओ,
जरुरी तो नहीं.
आज उठ कर कमल,
वायु में हिलने आया है.
चावल निकालो सुदामा,
द्वार पर दामोदर,
मिलने आया है.




*क्वर्टी= QWERTY keyboard

क्षणिकाएँ... (भूख)

भूखी भूख...

भूखी भूख से,
देख बिलखता.
चिड़ियों की,
अम्मा थी हुलसाई.
आखेटक का,
शिल्प नहीं था.
जाल तक,
भूख खींच ले आई.





हम तीन...

छोटा था तो माँ,
तीन रोटियाँ खाती थी.
पिछले बरस तक दो,
आज मैं तीन,
माँ एक रोटी.
माँ, मैं और भूख,
सच में तीन,
बड़ा अपशगुनी है.






कर्म और भूख...

कनखजूरा, मच्छर,
रक्त-पिपासु जोंक.
दिन भर के ब्राम्हण को देती,
भूख रात में झोंक.





खोट जीवन...

सूखी अंतड़ियाँ,
दिखती हड्डियाँ.
दस का वो,
तुड़ा-मुडा नोट.
सम चांडाल,
भूख के आगे.
हर क्षण जीवन,
जैसे खोट.

प्रीत से शब्द.
जीत से शब्द.
हार से शब्द.
आभार से शब्द.
विरोधी से कुछ,
अधिभार से शब्द.

हँसते खिलते,
फूल से शब्द.
शूल से शब्द.
भूल से शब्द.
लोटते धरा में,
धूल से शब्द.

कच्चे मटर की,
फली से शब्द.
अलि से शब्द.
कली से शब्द.
मीठे गुड की,
डली से शब्द.

बेढब हों या,
कुशल बहुतेरे.
एक भी इनमे,
नहीं हैं मेरे.
अम्मा ने जब,
साँस भरी है.
निकले साँस की,
नली से शब्द.

गूलर के फूल...

पिताजी हर रात,
ठीक है, अमूमन,
अमूमन हर रात,
देर तक जागते थे.
मुझे देते थपकियाँ,
आँखों ही आँखों,
तारों के पीछे,
रोज भागते थे.

सुबह रख देता था,
तकिया सिरहाने कोई.
बाबू जी नहीं,
होते थे वहाँ.
होते थे कुछ,
सपने-औ-अरमान.
सच, पूरे, साक्षात.

कैसे? कहाँ से?
ना पूछा, ना बताया.
फिर से अरमान,
फिर से सपने.
फिर से हकीकत,
रोज, हर रोज,
देखे, सहेजे, कुबूले.

जगह बदलने से मुझे,
नींद नहीं आती.
कल रात नहीं,
सो पाया फिर.

कल मैंने भी रात,
दूर तक तारे निहारे.
कल रात मैं भी,
सुबह तक जागा.

पिताजी, माँ.
रे छुटके, तू भी.
सपने देखो, सजाओ.
मेरे दोस्त तुम भी,
कुछ ख्वाब बताओ.

कुछ सच कर दूँगा.
या कम से कम,
पहनूँगा सपनों के जूते,
तो तेज दौडूंगा.

जागती आँखों के राज,
कुछ मैंने भी जाने हैं.
सिरहाने सुबह अरमान,
कुछ मुझे भी सजाने हैं.

रात जो देखे मैंने,
अलौकिक वो,
गूलर के फूल,
मुझे भी तोड़ लाने हैं.



मिथक है, कहावत है...पर नानी की जुबानी है तो सच मानता हूँ, गूलर के फूल करते हैं ख्वाब पूरे, मुश्किल से मिलते हैं, मैं जानता हूँ.

क्षणिकाएँ...


माँ...

फागुनी धूप,
तुम्हारी बतियाँ.
काली बदरी,
तोरी अँखियाँ.
अम्मा तेरी,
गोद बिछावन.
तेरी थपकी,
मेरी निंदिया.





लिखो...

एक रोज मिलो,
तो गीत लिखो.
जो रोज मिलो,
तो गीत लिखो.
जो मिलना,
मुश्किल हो जाए.
मेरी धड़कन,
पर प्रीत लिखो.






फन्ने खाँ....

वनिला-चाकलेट,
केसर-पिस्ता.
काजू अखरोट,
कप-कोन-स्लाइस.
इन सबके बीच,
जाने मेरी बर्फमलाई,
फन्ने खाँ आईसक्रीम,
कहाँ गुम गई?







असर...

आओ! जोर से छू लो,
मेरी पलकों को.
कुछ रोज इन पर,
तुम्हारी तस्वीर रहे.
तुम्हारी अँगुलियों पर हो,
मेरी बेरंग रोशनाई.









मैं और अब्रक...

लपेट बदन पर अब्रक,
कितने रोज धूप में काटे.
चौंधिया गए थे तुम,
फिर से ना देख पाए.
दोपहरी भी हंसती है,
नाकामी पर हमारी.





कर्फ्यू...

आज दुकान भी खुली थी,
थैला भी था साथ,
दुकान पर खिलौने भी.
क्या जवाब दूँगा टिंकू को?
बात बेबात आज,
कर्फ्यू क्यूँ नहीं लगता?








नशा...

वक़्त-बेवक्त के,
तुम्हारे किस्से.
वो हंसी-ठिठोली.
अब ढूंढता हो,
बदहवास हूँ.
उफ़! ये नशा,
तुम पर तो,
वैधानिक चेतावनी,
भी नहीं लिखी थी.






रंग भर दो...

लिखे कुछ शब्द,
कोरे से तुम्हारे नाम.
रंग भरो.
तुम्हारे रंगों का,
हमेशा से ही,
मुरीद हूँ मैं.


मैं रोष यदि दिखला देता,
हर तर्क में विजय पा लेता.
तो खो देता मैत्री तुमसे,
सह वचनों को झुठला देता.

जो तुमको हर्ष नहीं देता,
मीठा सा स्पर्श नहीं देता.
तो कैसे कहता मित्र तुम्हे,
अनमोल ये जीत गँवा देता.

तुमको विचलित तो कर देता,
मैं बल को चित्रित कर देता.
किन्तु मन कानन ले कर के,
मैं हिय का मोर भुला देता.

मैं तोल पराक्रम तो देता,
विष्णु-शिव तक को भ्रम देता.
किन्तु गँगा को क्या कहता,
इर्ष्या में प्रेम घुला देता.

मैं मित्र से हारा राजा हूँ,
इस स्वर्ग का एक दरवाजा हूँ.
वो धरती मुझको खा जाती,
जो जीत के तुमको पा लेता.

अल्ल सवेरे,
नहीं उठ पाता हूँ,
हमेशा ही मैं.

आज उठा, चला.
घूम फिर आया.
रास्ते में ख़ास,
सड़क से दायें,
किसी गली में,
अनायास ही घुसा.

रोक नहीं पाया,
आगे बढ़ने से,
कमबख्त क़दमों को.
बड़े दिनों से,
देखीं नहीं न,
चींटियों की बांबीयाँ.

हज़ारों चींटियाँ,
जमा थीं एक,
सूखे अखबार पर,
सोचा चीनी होगी.

बमुश्किल हटा के देखा,
लिखा था छोटा सा.
लुहार का खून,
वयस्क खंजर ने किया.

कौन खबर छुपानी है,
नेक रिश्तों को बचाने.
दानिशमंद चींटियाँ,
सब जानती हैं.

रोटियाँ!!
नहीं होती सफ़ेद-काली.
अगर होती सिर्फ,
खा लेने के लिए.

होती हैं कागज़,
ताकि लिखे जा सकें,
आत्मा के ग्रन्थ,
शांत पेट में.

जो नहीं खाते रोटियाँ,
चावल सफ़ेद होते हैं,
उन लोगों के भी.

किसी भी महाग्रंथ का,
करना पड़ता है,
अनुवाद उस भाषा में,
जो आ सके समझ,
आम आत्मा के.

और वो हो पाता है,
केवल रोटियों,
या चावल पर,
भरे हुए पेट में.

पर यह सारी स्थितियां,
बैठती हैं सटीक,
सिर्फ हाशिये पर बैठे,
कुछ लोगों पर.

इकलौता बेरोजगार बेटा,
माँ जैसी बड़ी बहन,
तीन बेटियों के बाप,
नहीं कर पाते अनुवाद.

अनपढ़ों के गले में,
स्याही जम जाए तो,
नीला विष हो जाती है.

और पन्नों पर रखे ये,
बहुसंख्यक जीव,
नीलकंठ भी नहीं बन पाते,
बनते हैं गरलगंट.

काश! करैत ने,
शिवपुराण पढ़ा होता.

दहकते शब्द...


बड़हर* की गाँठ से शब्द,
लिखे नहीं जीवन भर मैंने.
लिखता आया हमेशा ही,
धोती पर हल्दी से पीत शब्द.

उल्टियों की सारी कड़वाहट,
रोके रखी अंतड़ियों में ही.
भेड़िये को उल्टी नहीं होती,
मैं भेड़िया नहीं था पर.

रो देता तो क्या होता,
बढ़ जाता हिन्द का पानी.
आ जाती एक और सुनामी.
डूब जाते कुछ,
सीप=घोंघे-कछुए-लोग.

टूटती चूड़ियों-बर्तनों को,
मैंने नायिका के घुँघरू लिखा.
ठीक है की झूठ लिखा.
पर क्या घुँघरू रोते नहीं?

कितना कहा था दोस्तों,
अंतयेष्टि ना करना मेरी.
किसी बंजर जमीन में,
दफन कर आना मुझे.

सड़ के खाद बनूँ तो,
शायद लहलहाए यहाँ,
हंसी की नई फसल.
जमीन तो तुम्हारी,
यूँ भी किसी काम की नहीं.

पर तुम नहीं माने,
उठा लाये हिन्दू,
और ब्राम्हण बता.
पीले बबूल को ख़रीदा,
चन्दन समझ.

दे दी मुखाग्नि?
मिल गया स्वर्ग मुझे?
जाओ! सब चले जाओ.
सुबह आना.
मेरे शब्द मिलेंगे,
दहकते अंगारों में.

सहेज लेना.
घर में सजा लेना.
मीमांसा करना उनकी.
पर जल जाएँ हाथ,
तुम्हारे बच्चों के.
तो दोष ना देना.
पहले ही सचेता था,
संभला नहीं करते,
आसानी से दहकते शब्द.



बड़हर = एक खट्टा-मीठा पर बेढब गठीला फल है उत्तरप्रदेश-बिहार और बंगाल का.

प्रीत? अम्मा
जीत? अम्मा
स्नेह? अम्मा
रोष? अम्मा
स्वर? अम्मा
लहर? अम्मा
रक्त? अम्मा
स्वेद? अम्मा
श्वास? अम्मा
विश्वास? अम्मा
हास? अम्मा
परिहास? अम्मा
तू? अम्मा
तेरी प्यास? अम्मा
तुझे तो मैं,
माँ से यूँ भी,
नहीं छीन सकता.
जा तुझसे माँ भी,
नहीं छीनूँगा.

पाषाण कहो..

जो रो दूँगा फूट फूट के,
कैसे मुझे पाषाण कहोगे?
झड जाऊँगा झट जो टूट के,
कैसे पर्ण का प्राण कहोगे?

प्रीत की वेदी, स्नेह की ज्वाला,
अपनेपन के घृत का हाला.
अगर पढूँगा वेद ऋचाएं,
कैसे उसे अवसान कहोगे?

अगर मनु सम नहीं मरूँगा,
और भृगु सम नहीं डरूँगा.
नहीं हसूंगा लंकाधीश सम,
कैसे फिर हे राम! कहोगे?

मुझमे सौ रत्नाकर सोये,
कोटिश घट हैं गरल के खोये.
किन्तु जो नीला पड़ जाऊं,
कैसे शम्भू नाम न दोगे?

शोक से भरे अरण्य विराजें,
हिय में बस संताप ही साजें.
किन्तु मुख पर कांति न लाऊं,
कैसे पगा अभिमान कहोगे?

जिव्हा पर अनुराग समाया,
निहित दृगों में निश्छल छाया.
हर इन्द्रिय मैं जो ना ढक लूँ,
दुर्मति कह, अपमान न दोगे.

संभव होता तो मैं रोता,
कंधे तेरे अश्रु से भिगोता.
किन्तु इससे मन बिलखेगा,
मन के चाहे काम न होंगे.

बाँध के तुमसे गाँठ मैं कोई,
जीवन धारा मोड़ तो लेता.
लेकिन इस संसार से बाहर,
तुम संसारी कहाँ रहोगे?

शोक मैं अपना तुम्हे दिखाऊं,
उर के घाव तुम्हे भी लगाऊं.
इससे अच्छा ढांप लूँ खुद को,
मेरे दुःख तो नहीं सहोगे.

कुछ लांछन खाना संभव है,
पत्थर कहलाना संभव है.
मेरी आँखें फट जायेंगी,
तुम पत्थर तो नहीं रहोगे.

धूमिल गीत...

मेरे गीतों का लक्ष्य प्रिय,
ना कतई तुमको पाना है.
मैं तो पथ का एक कंकड़ हूँ,
मुझे पथ पर ही रह जाना है.

नहीं शिशिर, आदित्य नहीं,
ना बन के घटा सा छाना है.
बन के एक छोटा सा फाहा,
धूमिल-धूसर हो जाना है.

पुष्प-पराग या खिलती डाली,
श्वेत हंस या कोयल काली.
प्रसंगहीन हैं सब बिन तेरे,
यह इन सबको समझाना है.

जितने मुख हैं उतनी बातें,
मूषक दिन और हथ सी रातें.
रात-रात भर गीत लिखे हैं,
नींद को दिया बहाना है.

आंसू से ही स्याही घोली,
लवण न छलके, पलक ना खोली.
शब्द मेरे पर सब जुगनू हैं,
भोर में सब उड़ जाना है.

तुमको रजनी नाम नहीं दें,
तजा मुझे इल्जाम नहीं दें.
काँटें नहीं समझेंगे बेर के,
अलग से इन्हें बताना है.

होता प्रिय तो बहुत अघाता,
बना अलि हर क्षण इतराता.
किन्तु यह प्रस्ताव नहीं है,
स्वप्न का ताना-बाना है.

जल के तुमको छाया देता,
सूख के देता खाद तुम्हे.
किन्तु मलिन हैं तत्त्व ही मेरे,
सो रखा इन्हें अनजाना है.

जो दृष्टी से एक क्षण गुजरें,
तो अधरों पर विश्राम करें.
आलिंगन का अवलम्ब नहीं,
क्षणभंगुर एक ठिकाना है.

हाँ कहा है तुमको अग्निशिखा,
बन शलभ तुम्ही पर गीत लिखा.
किन्तु कीर्ति की चाह नहीं,
बस भस्म यहीं हो जाना है.

मेरे गीतों का लक्ष्य प्रिय,
ना कतई तुमको पाना है.

ज़ायज नाराज़गी...

नहीं गाये नए गीत,
तुम्हारी याद में.
नहीं लिखीं तुम्हारे लिए,
कविता कनैल के पत्तों पर.
नहीं खरीदीं वो,
ताँत की चुन्नियाँ.
नहीं पढ़ी कोई,
अरदास तेरे लिए,
जा कर दुरुद्वारे में.
हजारीबाग के पलाश,
से कुमकुम भी,
नहीं बनाता अब.

बीते सात दिनों से,
नहीं लिखी तुम्हे,
एक भी चिट्ठी मैंने.
तुमने भी तो,
नहीं लिखी है,
सात बरसों से.

थमी ही नहीं,
सात दिनों से,
बारिश यहाँ.
तो क्या की,
तुम रहते हो,
चेरापूँजी में.
मेरी भी नाराज़गी,
ज़ायज है अपनी जगह.

सुनता था बचपन से,
वक़्त नहीं ठहरता कभी.
तुम भी नहीं ठहरे.
सोचा तुम खुद भी,
वक़्त ही होगे.
तुम बुरे तो थे ही नहीं,
बहुत अच्छे थे.
और किताबों ने सिखाया था,
"अच्छा" वक़्त आएगा.
शंका के साथ रोते,
धीरज संग चुप होते.
अरहर की आँच जला,
बैठा रहा धीरज के साथ.

कहते हैं मेरे पास,
अब ज्यादा वक़्त नहीं.
कभी वक़्त मिले तो,
दोनों साथ में आ जाना.
एक नज़र देख लूँ,
शायद वक़्त ठहर जाए.
तुम तो तब भी,
नहीं ठहर पाओगे ना?

राहु...

मैंने सूर्य की,
छाती पर जब.
तेरा नाम,
उकेरा था.
कोपल का एक,
हार बना के.
तुमने मुझको,
घेरा था.
एक प्रहर को,
आज जो तम ने.
की दिनकर पर,
छाया है.
कौन हूँ मैं,
मुझसे पूछा है.
राहु मुझे,
बताया है.

क्षणिकाएँ (पिता)...

जीवन हवन...

धूप की जलन,
शीत की चुभन.
नहीं जानते पिता,
जिनका जीवन-हवन.




इबादत...

वो जो हर हँसी,
मुझे बाँट देता है.
वो जो मेरे लिए,
अपने भाग्य की,
रेखाएँ काट देता है.
उस पिता की इबादत में,
खुदा भी हर रोज,
बन्दों का साथ देता है.





मूर्ति का पाया....

अम्मा मेरी,
स्नेह की मूरत.
पिता हैं मूर्ति,
का पाया.
माँ के चरणों,
झुका मैं जब जब.
उन्हें अति,
हर्षित पाया.






बाबूजी...

सर्दी की रजाई,
गर्मी का पँखा.
आषाढ़ की छतरी,
बाबूजी.
त्याग के माने,
फ़र्ज़ का परचम,
जीवन पटरी,
बाबूजी.





उसके आँसू..

लू के थपेड़ों पर जब,
असर नहीं करती थी दवा.
सर चूमता था रात कोई,
और ढलका देता था एक बूँद.
कोई बुखार उस बाढ़ से,
आज तक बचा नहीं.




छाले...

ताकि  सकें मेरे,
बेरोकटोक निवाले.
मेरे पिता ने उगा लिए,
हाथ ना जाने कितने छाले.
मैंने दूर के मंदिरों में,
जाना छोड़ दिया है.





मेरा मक्का...

आज हज का,
इरादा किया है.
मक्का जाने की,
मंजूरी भी ले ली.
कल तडके ही,
अब्बा से मिलूंगा मैं.





तकिये...

पिता का कन्धा,
सदा रहा इस,
सर के नीचे.
डनलप के तकिये,
देखूँ क्यूँ भला?






शक्ल मिलती है...

सिकुड़े माथे के बल,
आयतें हैं मेरी.
सफ़ेद होती दाढी,
गीता जैसी है.
तन जाता है सीना,
जब कहते हैं लोग बाग़.
शक्ल तेरी भी जरा,
पिता जैसी है.







मुस्कान...

थका हारा वो,
रोज ही आया करता है.
आराम था दोपहर में,
हमसे बताया करता है.
पिता बच्चों को देख,
हर हाल मुस्कराया करता है.






पिघलता पिता...

जब भी बिजली नहीं होती,
और देखता हूँ,
चहक चहक कर,
जलती मोमबत्ती को.
अब्बू कुछ ज्यादा ही,
याद आत़े हैं.

क्षणिकाएँ (भोर)...

काली भोर...



रात रागिनी,
फुसफुस शोर.
आँख का मालिक,
हिय का चोर.
छितरा सपना,
काली भोर.





सूरज और पत्ते...


हर सुबह,
तुम, सूरज,
मैं और पुरवाई,
खेलते थे पत्ते.
अब ना तुम हो,
ना पुरवाई.
मैं हूँ और,
मेरी तन्हाई.
पागल सूरज अकेला,
पत्ते खेलता है.




अम्मा...


अम्मा तेरा,
आँचल बादल.
गोटे उसके,
तारे हैं.
और जहाँ है,
झीना थोड़ा.
दिनकर वहीँ,
हमारे हैं.



सुबह नहीं होती...


पौ फटते जो,
आ जाते थे,
मुझको ख्वाब तुम्हारे.
पूरे हुए नहीं कोई भी,
टूटे तिल तिल सारे.
अच्छा है कल से,
नाश्ते के पैसे बचेंगे.




बदली सुबह...


सुमधुर कलरव,
क्रंदन गान.
शंख पिता का,
गंगा स्नान.
चंदन, तुलसी,
शिव-शालिग्राम.
आज सुबह बस,
एक अलार्म.




माँ भोर है...


रात कितनी ही,
काली हो भले.
भोर कभी भी,
बेवफा नहीं होती,
माँ जो है.
देती है दुआ,
बच्चों से कभी,
खफा नहीं होती.




हालात...


दुखी दुपहरी,
कड़वी साँझ.
भोर सुलगती,
परेशां रात.
तुम बिन हैं,
ऐसे हालात.

क्षणिकाएँ...

रंगरोगन...



तुम्हारी यादों के छींटे,
मिटते ही नहीं.
सोचता हूँ दिल पर,
रंगरोगन करा लूँ.
सुनो!
चूना पीने को,
खुदकशी तो नहीं कहते?









मिठास....


जिस दायें कंधे,
सर रखकर रोये तुम.
कल रात वहीँ,
मच्छरों ने काटा.
उफ़! कितने मीठे थे,
आँसू तक तुम्हारे.









नब्ज़...


काश थाम पाते तुम,
नब्ज़ मेरी कभी.
बसा करती है जो,
तुम्हारी ही पलकों में.
फडकी तो होंगी ही,
रात मेरी मौत से पहले.








लाल रंग...


तुम्हारे इल्जाम,
की फीकी है मेरी हंसी.
सह लिए चुपचाप.
अब तुम जो नहीं,
आँख से खून बहा.
तुम फिर भी ना आये.
क्या वाकई पसंद था,
लाल रंग तुम्हे?






मदर्स डे...


माँ बहुत ऊपर है तू,
तुझे राम नहीं बना सकता.
रामनवमी जन्माष्टमी ठीक है,
मैं मदर्स डे नहीं मना सकता.





साढ़े चार रुपये...


डेढ़ जेबखर्च औ,
तीन पंचर के.
अब्बू आज भी,
आपके साढ़े चार रुपये,
मेरी सबसे बड़ी अमीरी है.





बवंडर...


कल शाम के बवंडर में,
आँखों में धूल पडी.
धुंधला गयी तस्वीर तुम्हारी.
सोचता हूँ मुकदमा कर दूँ,
दिल्ली मौसम विभाग पर.
चेतावनी तो देते,
गोया चश्मा भी नहीं पहने था.





छुटके...


इतना क्यूँ सोचता,
है रे छुटके?
देख अगले जन्म भी,
लक्ष्मण ही बनना.
ये बलराम-कृष्ण का,
कॉन्सेप्ट जमता नहीं मुझे.






फक्र...


जब भी गिरा,
थामते नहीं थे अब्बा.
हाँ उठा कर धूल,
झाड देते थे.
अब्बा कसम अब,
चाँद से भी कूद सकता हूँ.




काँटें...

तुम्हारे लिए मैंने,
कागज़ के गुलाब को,
खून से भिगाया.
सूखे फूल का,
टूटा काँटा आज,
मेरे बहुत काम आया.




बेवकूफ़...

बहुत खुश हैं वो,
जो कहते थे जी,
नहीं सकते मेरे बिना.
बाबा क्या कहा,
खुश हो लिया.
बेवक़ूफ़!
बरगद भी ना...

ओजस्वी कर्ण....

रश्मिरथी था, महारथी था,
नहीं कर्ण अभिमानी था.
भान था उसको ही नियति का,
केशव तक से ज्ञानी था.

किये समाहित वक्ष के अंदर,
रखता था वह गरल समंदर.
सूतपुत्र का लांछन सहता,
गंगा माँ का पानी था.

आग लगाता अपने महल को,
चीर के देता स्वर्ण देव को.
दे सकता था वर जो माँ को,
इकलौता वो दानी था.

ब्रम्हा की नियति ना तोड़ी,
मित्र धर्म की लाज बचाने,
गाँठ सुयोधन से ना तोड़ी.
एक वही बस धनुपाणि था.

धो सकता था धरा लहू से,
स्वर्ग जीतना था संभव पर,
जिसने सब कुछ त्याग दिया,
प्रखर सूर्य वो बलिदानी था.

कूकर और श्रृगाल में बैठा,
कृष्ण के छल व्यवहार में बैठा.
शांतचित्त शार्दूल के जैसा,
अजब अनोखा वह प्राणी था.

आया छल के बीच धरा पर,
छल में ही प्रस्थान किया.
गांडीव की टंकार पर हरदम,
हँसे ठठा कर वो, वाणी था.

काला निशान...

अब तो मुझे,
नज़र लगाने का,
इल्जाम ना दो.
डॉक्टर कहता है,
ब्लैक स्पाट है,
मेरे रेटिना पर.






मेरे जख्म.....

कल रात चार बजे,
थमी आँखों की सुनामी.
काश सुबह,
मेरे जख्मों को,
कोई गोद ले लेता.







बोला खुदा...

रात अकेले में,
मस्जिद में बोला खुदा.
मुहोब्बत नहीं करता,
दिल टूटा तो ,
आदमी बन जाएगा.







तुम्हारी शिकायत...

सूरज, ताल, पहाड़ सभी,
पर्यायवाची हैं तुम्हारे.
फिर भी शिकायत है,
तुम्हारा नाम नहीं,
मेरी नज्मों में.







तुम्हारे लिए...

एक रोज शब भर घुला,
अबाबील पी गए मुझे.
दो बूँदें छिटक गयीं,
तुम्हारे आँगन में.
ये बांसों का झुरमुट,
मैं ही तो हूँ.
तुम्हे बाँसुरी पसंद,
है ना बहुत?








माँ...

ए माँ!
जलता है.
इतनी तेज मिर्च.
परवल में छौंका,
डाला है ना.
फोन रखो वरना,
यहीं छींक पडूँगा.







कहानी...

हर कहानी का,
अंत सुखद हो,
जरुरी तो नहीं.
तुम हो,
तुम्हारी कहानी है,
सुखद है.
खुश है फिर,
मेरी जिंदगानी भी.