पत्र विन्ध्य को....


महसूस ही नहीं होता,
तुम्हारा होना ना होना.
पठार तक भी तो,
नहीं बचा है तुम्हारा.

सपाट गांगेय मैदानों से,
तनिक ही कठोर हो.
फिर भी गेंहू ना सही,
वृक्ष सानिध्य में हो तुम.

सच ही तो बस,
ऊपर से ही कठोर थे तुम.
पहले भी जब तुमने,
उंचा उठने की हठ की थी.

कितनी सुघढ़ थे तुम,
अकेले दम पर खड़े.
तुम्हे कब चाहिए थी,
श्रृंखलाएं मेरी तरह.

बालक था मैं भैया,
अब समझ पाता हूँ.
जब तुम उठने लगे थे,
सूर्य से भी ऊपर.
वह दंभ-हठ नहीं था,
जम्बुद्वीप बचाया था तुमने.

यों तो ना जा पाता,
मैं तुमसे ऊपर कभी.
तो तुमने ही रचा,
आगमन अगस्त्य का.

तोड़ सकते थे तुम,
वचन अपना किसी क्षण.
परन्तु मनीषियों के देश को,
बचाए रखा तुमने वक्ष पर.

काश तुम उठते भाई,
अगस्त्य वापस ना आयेंगे.
परन्तु नहीं कहूंगा,
तुमसे तोड़ने को मर्यादा.

झुक के चरण छू लूँ,
इतना सामर्थ्य भी नहीं.
समर्पित करता हूँ अश्रु,
चरणों में मानसून भेजा है.

.........आपका अनुज, हिमालय

2 टिप्पणियाँ:

रश्मि प्रभा... said...

तुम्हारे शब्दों में एक आग होता है,बहुत बढिया

P.N. Subramanian said...

बहुत अच्छा लगा. लगता है विन्ध्य पर्वत श्रंखला किसी वोल्कानिक एरुप्शन से बनी थी. यहाँ समुद्र था. प्रमाण स्वरुप कर्पा नाम की पहाड़ियों के ऊपर शंख के फोस्सिल पाए जाते हैं. कुछ तो मेरे पास भी हैं. कभी पोस्ट करूँगा.