चलो रे पथिक







कौन सी वेला सुखद, विश्राम की- प्रस्थान की है?
कौन सी राशि विहित, संकल्प के अभिधान की है?
कौन से स्वर है सदय, जो करते हैं उद्घोषणा?
कौन सी है रेख जिस तक, नाम अपना अंकना?

मन विचारोगे यही तो, चल न पाओगे यहाँ।
और जिसमे रुक सको, ये यात्रा ऐसी कहाँ?
बाँध लो पाथेय जो भी, हाथ आए ले चलो।
छोड़ दो साथी कहे तो, साथ आए ले चलो।

स्नेह बंधन को स्मृति में, ईश जैसा स्थान दो।
परिचयों की गाँठ खोलो, मुक्ति दे कर मान दो।
और फिर बढ़ते चलो, द्विविधाओं का संपुट खुले।
तुम झड़ो तो योग्य तुमसे, कोई किसलय दल खिले।

तुम नहीं त्राटक, नहीं अंतिम ही कोई पीठ है।
एक बस यह यात्रा है, और पथ यह ढीठ है।
कछार तोड़ो, कूल छोडो, क्रीक पग से नाप लो।
हाथ जोड़ो नद-नदी को, घूँट में या माप लो।

हरे अइपन, घृत, हरीरे,  तोरण- अगरु को भूल लो।
मार्ग काटो स्वत बनैले, करतलों में शूल लो।
ये झुलसते, ये हुलसते, मार्ग सच्चे मीत हैं।
अन्यथा है बाकी सब कुछ, वंचना है, भीत है।

है परिचय, प्रेम भी है, है कि हँसना बोलना।
किन्तु नाप नेह का, प्रतिबन्ध से क्या तोलना?
पग-पग झरें कुसुम जो, प्रेम के वही ललाम हैं।
पग बढें, बढ़ते चलें, ये श्रेष्ठ वर्तमान है।

बाँध देखो कोई भी मिस, पर तुम्हे रुकना नहीं है।
मोह जितना भी लगाओ, युत किसी टिकना नहीं है।
तो क्या तमिस्र और ज्योतित, रात्रि वेला एक है।
पथ वही, पथ की विमा भी, यात्री अकेला एक है।

किरीट-केयूर-मुद्रिका, हैं नाम और सब मोह हैं।
जबकि परिभाषा तुम्हारी, जन्म से ही द्रोह है।
भार उर पर मत ही लादो, ना किसी को और दो।
हास-अश्रु साथ बाँधो, अनुतप्त नौका खोल दो।

कर सकोगे प्राप्त प्रज्ञा, है व्यर्थ ऐसा सोचना।
संजाल से निकल सको, प्रथम यही हो कामना।
सकल सरट-सरीसृपों के, झुण्ड हैं किलोल में।
और बस यही पथ सगा है, अंतर्मन के लोल में।

हों तुमुल स्वर रंध्र से, जो रक्त पीते जा रहे हों।
तप्त मन के उच्छलित क्षण, मन से उलीचे जा रहे हों।
हाथ सारंगी उठा, कोई तार ऐसा तान दो।
कर्ण-कुहर भी तृप्ति पाएँ, उनको ऐसा गान दो।

ये कि पथ ऐसा जो अंतिम, है आदि और अबाध भी।
किस गति से चल रहे, है कितना इसके बाद भी।
मार्ग में हैं पातक-सालक, और गह्वर चण्ड हैं।
इनसे बच गए तो स्व के, विवर महाप्रचण्ड हैं।

शांति है अधिक तो, विहगों में प्रमोद-रव जगाओ।
रोर उठती हो यदि तो, शांति की भेरी बजाओ।
और चल दो मुदित मन कि, मृदुल लहरियाँ बहें।
एक ठांव रुक गए, तो पथिक ही कहाँ रहे।




आगत स्वर..



कितने दिव चले मित्र?
कौन-कौन सी दिशायें नाप,
कौन से दुर्धर विजन पथ माप,
यायावर, लौटे हो इस बार?

तुम्हारे पीछे मैं सहेजता रहा,
तलवों से बन आए गड्ढे।
देखता रहा गूलर के फल।
उनमे चोंच मारते प्रवासी पक्षी।

तुम्हारी प्रतीक्षा में ऊब,
तुम्हारे कौशल विमुग्ध,
छानता रहा सूर्य-शशि,
ताल के तलौंछ में।

बुनता रहा टपकते हरे-पीले,
झरे-टूटे-छूटे पत्तों से शब्द,
सांगोपांग सत्वर तत्पर।

कि तुम लौटोगे बन पाणिनि,
और खींच दोगे उन्हें,
हर खांचे में।
बाँध दोगे हर यवनिका,
कस दोगे मूर्त-अमूर्त हठात,
प्रत्येक निकष पर।

तुम्हारे स्वर नहीं थे,
तो एक अकेला एकांत था,
मेघों के रीते निर्घोषों के बीच,
जो बजता था घनघोर, प्रचंड।

मंदिरों से उठने वाला,
धीमा सा मंत्रोच्चार,
आर्द्र रहा करता था,
ओस की बूँदों से अहर्निश।

तथापि मुकुलित पुहुप धरे,
अक्षरा आस लगाये निःस्व।
मैं करता रहा प्रतीक्षा,
तुम्हारे लौटने की।

कि उत्तर दिशा से लौटोगे तुम,
और होगी गुंजायमान ऋचाओं से,
समस्त धरित्री, सम्पूर्ण शाद्वल वन।

खुल जाएँगे बंध स्वेच्छया,
तुम्हारे श्री दर्शन से।
प्रत्यूष हो उठेगा चटख।
हर्षित उन्मुक्त रश्मिधर!

जो लौट आए हो मित्र!
तो स्वरों को दो आकार।
मौन को कर दो श्राप-मुक्त।
ऋतुओं को करने दो हर्षनाद,
प्रतीक्षा को अपना मोल दो।

पवन में ठीक इसी वेला,
अपने मधुप वर्ण घोल दो।
सब राग स्मिता पाएँ मित्र!
आज पुनः सभी छंद खोल दो।