मेरी नाल जुडी थी इनसे,
दूध से सींचा कभी लहू से।
बहुत ही प्रिय हैं हिय को मेरे,
अधम मैं लेकिन नहीं सहूंगी।
मैंने तो तुलसी बांटी थी,
व्रत में दी घी की बाती थी।
जप भी मेरा खली हुआ तो,
पापी रब को नहीं कहूँगी।
हाँ मन दुखी द्रवित तो होगा,
क्षण दो क्षण को भ्रमित भी होगा।
आग लगा दूँगी ममता को लेकिन,
पल पल अब मैं नहीं मरूंगी।
संस्कारों का पाप लगे जो,
मान के गलती मैं सर लूँगी।
किन्तु किसी भी सूर्यस्थिति में,
पक्ष मैं उनके नहीं रहूंगी।
तुम सा पाप ना मुझसे होगा,
भले हृदयविहिना नाम सहूंगी।
तुम धृतराष्ट्र भले बन जाओ,
मैं गाँधारी नहीं बनूँगी.
0 टिप्पणियाँ:
Post a Comment