अतीत की काश्तकारी,
सिर्फ हाथ की लकीरों,
पेशानी के बलों,
लटों की रंगत तक रहती.
तो कौन कहता उसे,
जादुई, छलावा, बाजीगर?
वो तो चुपके से उठाता है,
पुख्ता और बेरहम हथौड़ा.
और सधे हाथों से,
छिलता-फाड़ता जाता है,
रूह की छत-ओ-दीवार.
तुम्हारी सकुचाई सी याद,
भागने की फिराक में,
हर कोने से टकराती है,
टूटती है, खोती है.
जड़ों से छूट कर खो जाना,
नियति है शायद.
पलकों के पुराने किवाड़,
भींचते-भिड़ाते भी,
निकल आता है थोड़ा लोहा.
चेहरा यूँ ही तो सख्त,
नहीं दिखता मेरा.
भोर से ठीक पहले तक,
बिना हिचकियों के,
कोशिश करता हूँ रो लूँ.
आवाज से सन्नाटा,
ना जाग जाए कहीं.
सुनो!
पाँगुर के फूल नहीं आत़े,
अब किसी भी दरख़्त.
हाँ! तालाब में वो,
तुम्हारी हमनाम मछली,
अब भी है.
सतह पर सरसराती है,
मैं दिमाग पर जोर देता हूँ.
कुछ तो याद रह जाए.
पानियों के निशान,
ज़िंदा नहीं रहते.
उस एहसास में,
छिटक जाती है,
एक और बूँद,
तुम्हारी याद की.
कुछ और अधूरा सा है,
मेरा अक्स आईने में.
और ताल का पानी,
कुछ-कुछ तुमसे मिलता है.
बिलकुल भी तो नहीं,
तुममे मेरा हिस्सा सा...
24 टिप्पणियाँ:
बहुत ही सुन्दर
मनोज खत्री
पलकों के पुराने किवाड़,
भींचते-भिड़ाते भी,
निकल आता है थोड़ा लोहा.
चेहरा यूँ ही तो सख्त,
नहीं दिखता मेरा
आवाज से सन्नाटा,
ना जाग जाए कहीं.
बहुत सुन्दर ...
तुम्हारी सकुचाई सी याद,
भागने की फिराक में,
हर कोने से टकराती है,
टूटती है, खोती है.
जड़ों से छूट कर खो जाना,
नियति है शायद.
अविनाश जी,
बहुत ही सुंदर प्रयोग नयी उपमाओं का. आपकी कवितायेँ तो झकझोर के राख देती हैं. आपको स्वतंत्रता दिवस पर ढेरों शुभकामनाएं.
अविनाश ......
शब्दहीन...इस कमाल पर ....शुभाशीष...
मुदिता
उनकी यादों का सहेज और कौन रख पायेगा,
गर वे कहें भी, कि रहना मुमकिन नहीं।
तुम्हारी सकुचाई सी याद,
भागने की फिराक में,
हर कोने से टकराती है,
टूटती है, खोती है.
जड़ों से छूट कर खो जाना,
नियति है शायद...
अविनाश जी ... गहरी बात को सहज से लिख दिया है ... जड़ों से खो जाना नियती तो है ... पर दर्द बहुत होता
उनकी यादों का सहेज और कौन रख पायेगा,
गर वे कहें भी, कि रहना मुमकिन नहीं।
उनकी यादों का सहेज और कौन रख पायेगा,
गर वे कहें भी, कि रहना मुमकिन नहीं।
बहुत सुन्दर रचना
bhor se theek pehle hi bina hickiyon ke ro loon..........
behad samvedansheel rachna.......
shubhkamnaayein
वो तो चुपके से उठाता है,
पुख्ता और बेरहम हथौड़ा.
और सधे हाथों से,
छिलता-फाड़ता जाता है,
रूह की छत-ओ-दीवार.
....झिंझोड़ती है ..अतीत की काश्तकारी.
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आप एवं आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ!
अविनाश,
अपनी वय से बहुत ऊपर के स्तर पर पहुंच चुके हो,शब्द-प्रयोग चकित कर देता है।
आयु से बेशक मुझसे छोटे हो, लेखन स्तर के अनुसार आभार के पात्र हो।
आभार।
चेहरा यूँ ही सख्त नहीं दिखता ...
पानियों के निशाँ जिन्दा नहीं रहते ...
सुन्दर शब्द प्रयोग ...!
हम तो मानते हैं कि अतीत भी एक ज़माना होता है और ज़माना कभी हल्का नहीं होता...ओतने बेरहम होता है जेतना आप लिखे हैं..अब उ बेरहम ज़माना के चंगुल में कोनों याद फंस गया तो बचता फिरेगा ही..
अबिनास जी कहाँ से लाते हैं ऐसा बिचार!!
आप सभी का बहुत आभार.
bahut sundar...
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आपकी रचनाएँ अंदर तक झंझोड़ती हैं .... गहराई लिए होती हैं ...
पलकों के पुराने किवाड़,
भींचते-भिड़ाते भी,
निकल आता है थोड़ा लोहा.
चेहरा यूँ ही तो सख्त,
नहीं दिखता मेरा
भैया मेरी टूशन की बात की या नहीं...वर्ना में कमेंट्स नहीं दूंगी...हाँ कहे देती हूँ.
बहुत सुंदर हमेशा की तरह .
Anamika di,
Meri itni himmat??
:) :)
कमेन्ट बेशक न दीजिये...पर कुछ गड़बड़ लगे तो जरुर कहियेगा..मैं उसी के लिए बैठा हूँ. :)
dil mein aata hai ise chori kar lun
:)
sure :)
hmmm,
yun hi puraani kavitaayein padhne aayi thi...yeh waali fir se padh li..bina kuch likhe raha nahin gaya......
bahut hi khoobsoorat ehsaas hain Avinash....bahut hridaysparshi......
:)
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