बैठे रहो,
सोचो भरसक.
मनन करो,
विचारों मुझे.
निंदा करो,
उलाहना दो.
आक्षेप निकाल,
फेंको मुझ पर.
हो क्रोधित,
भौहें चढ़ाओ.
उठाओ आस्तीनें,
फडकाओ भुजाएँ.
व्यूह रचो,
करो उपाय.
अबकी आए,
जाने न पाए.
कोसो मुझे,
शापित करो.
यज्ञ-हवन,
बाधित करो.
विष ग्रंथि,
भेजो भेंट.
शर उठा,
करो आखेट.
निशा दिवस,
ध्यान करो.
विपत्ति का,
आह्वान करो.
मलय पवन,
दूषित करो.
अधम नाम,
भूषित करो.
यदि तुमसे,
ये न होगा.
मैत्री गीत,
रव न होगा.
वरना तनिक,
कलम उठाओ.
रक्त-विष ,
उसे डुबाओ.
लिखो या,
अपशब्द मुझको.
तनिक या,
छींटे गिराओ.
मुझे भी,
मालूम रहे.
आसमान में,
दाग था.
8 टिप्पणियाँ:
"बेहतरीन,एक रवानगी थी कविता में ...साथ में गम्भीर विचार भी...."
waah, kya khoob!
शब्द संसार बहुत व्यापक है आपका...
भावाभिव्यक्ति अनुपम है...
बहुत ख़ुशी हुई है पढ़ कर...
ऐसे ही लिखते रहिये...
वाह, क्या खूब लिखा आपने! मज़ा आ गया। बधाई स्वीकारें!
Beautiful creation !
हम त सब्द रचना देखिए के दंग हैं अऊर जब भाव का चिंतन किए सब्द नहीं मिल रहा है प्रसंसा के लिए... छोटा छोटा छंद में गजब का पैनापन है!!
Aap sabhi ka hriday se aabhar
Tumne samjhaya..main samjh gaya..aur ab soch raha hun pahle kyun ni samjh paya..itna b klisht nahi tha..han par ab samjha hun to lazawab lagi ye rachna mujhe...
Post a Comment