देख रहे हो मित्र?
लालित्य अटा पड़ा है,
हर पुष्प-वृंत-निकुंज पर|
सुथराई अलसाई है,
दूब के बिछौने पर|
चींटियों की जिप्सियाँ,
लगी हैं फिर खोदने,
जडें महुआ की|
चटकने लगे हैं,
कपास के बिनौले,
शनैः शनैः चट-चटाक|
पारस-पीपल और मधु-मालती,
ले लेना चाहते हैं,
हरसिंगार से कीर्तिध्वज|
फूल उठने को हैं सब,
गेंदे-गुलाब की घाटियाँ|
कछारों से लौट,
आए हैं सभी द्विज|
ले कर कुछ नए,
प्रवासी खग-विहग|
सुनते हो ना?
इनका अस्फुट-मीठा,
क्रंदन-कलरव-कोलाहल?
धुंधलके का रव,
कहीं से भी तनिक,
रीता नहीं है|
हृदय से स्वर मिलाता,
धवल गीत सुनो|
चैतन्य विभायें नभ की|
उद्दाम विभावरी स्वयं,
जो पोंछ गई है,
तारकों के आँचल से,
तनिक और स्वच्छ हैं|
सुदूर हिमाद्री और,
सतपुड़ा के अरण्य में,
उतारने लगे हैं भुजंग,
केंचुलियाँ, अहो यौवन!!
माँ गिन रही है,
फंदे-गोले-सलाइयाँ|
अमरुद के गाछ,
झुक आए हैं,
तुलसी के बिरवे तक|
हुलस आया रे मन!
बांसुरियों की लहरियाँ,
निकलने लगी हैं स्वतः|
है मुदित आलाप यह,
बाँस के झुरमुटों का,
अनिल का स्पर्श पा|
नहीं क्या मित्र?
उन्मत्त पुहुप लालायित हैं,
अलि-भ्रमर अतिहर्षित|
पिक-अबाबील की निरंतर,
कुहकन-टुहकन के स्वर,
पायस अनुभूति हैं,
स्मितित आनंद की|
प्रणयविभोर भास्कर की,
नव्या विभायें|
त्याग कर रोष क्लेश,
हो गई हैं हेमाभ|
पुण्य नगेश से मिल कर,
लौटे मित्र हेमंत!
करो स्वीकार स्वागत,
महि-व्योम के हर कण का|
35 टिप्पणियाँ:
हाए....किन्नी प्यारी है....
चींटियों की जिप्सियां...महुआ की जड़ें, सलाइयां उन के गोले, अमरुद, कपास....उफ्फ्फ्फ़...मज़ा आ गया...बोहोत ही खूबसूरत नज़्म है दोस्त, सर्दियों की दस्तक पर सुबह गरम गरम चाय जैसी...चुस्कियां भर रही हूँ आज, वैसे चाय नहीं पीती, तो नज़्म मुहय्यिया कराने के लिए शुक्रिया...:)
agree wid saanjh
avi its a beautiful piece of art.. Keep goin
..
तुरंत संशोधन कर लें :
— कीर्तिध्वज
— द्विज
— अस्फुट
— सतपु+ड़ा [ इसे इस तरह टाइप करें : [sat pu daa] जब ओपशंस में सही वर्ण आ जाए तो उन्हें जोड़ लें.
— सलाइयाँ [ बहुवचन में प्रायः ईकारांत वाले शब्द इकारांत हो जाते हैं.] जैसे दवाई [ईकारांत] बहुवचन में ... दवाइयाँ [इकारांत]
— उन्मत्त
..
धन्यवाद प्रतुल जी!
आज सीधे ही पोस्ट कर दिया, बहुत ज्यादा त्रुटियाँ थीं टंकण की.
आप सही समय पर आ गए बचाने.
सर्दी ने भी नहीं सोचा होगा की उसकी दस्तक को इतने खूबसूरत शब्द मिलेंगे ....बहुत अच्छी रचना ...
aahten kitni mohak hain
सुन्दर अभिव्यक्ति..
शीतकाल का आगमन हो चुका है..
बहुत बधाई..
आभार
खूबसूरती से किया स्वागत -
बहुत सुंदर कविता -
अनेक शुभकामनाएं
सुन्दर शब्दों के साथ भावविभोर करती प्रस्तुति ।
भाव विभोर कर दिया।
bahut hi pyari rachna
mun khush ho gya
kabhi yaha bhi aaye
www.deepti09sharma.blogspot.com
सुन्दर बिम्बों के साथ एक उत्कृ्ष्ट रचना। बधाई।
अजी इस तरह से स्वागत करेंगे तो हेमंत तो क्या जिसे भी बुलाएँगे आ जायेगा. जरा सावधान रहें !!!!......
शुक्रिया बताने के लिए की शीत ऋतू आ गयी है...:):):)
हां मित्र, देख रहे हैं। लालित्य अटा पड़ा है ऐड़ी से चोटी तक।
वैसे मौसम का ही इतना भीना स्वागत कर रहे हो ना, या फ़िर ...?
"धुंधलके का रव,
कहीं से भी तनिक,
रीता नहीं है|
ह्रदय से स्वर मिलाता,
धवल गीत सुनो"
ऐसे गीत अनसुने नहीं रहते।
सच में अविनाश, शब्दों के चितेरे हो।
शुभकामनायें।
शरद ऋतु के आगमन की दस्तक देती आहटों को बेहद खूबसूरती से उकेरती प्रवण रचना. आभार.
सादर,
डोरोथी.
बहुत सुन्दर कविता है अविनाश जी.
वैसे तो मै किसी की टिप्पणी से सहमत कम ही होती हूँ पर यहाँ "मो सम कौन" जी की टिप्पणी से सहमत हूँ ।बस साथ मे ये भी कहना चाहती हूँ कि ---posted by Avinash Chandra at 10:16 AM on Nov 12, 2010
यहाँ अविनाश चन्द्रा के आगे "मो सम कौन " लिख सकते हो-----
सच मे --पता नही कहाँ से लाते हो ऐसे शब्द और कर लेते हो उनका ---संयोजन ...
अंत मे शुभकामनाए --- "मेरे मन से"
प्रकृति का उद्दात चित्रण
ज्यादा समझ नहीं आयी मुझे पर पढ़ने में भली सी लगी :)
इतना सुन्दर ऋतु-वर्णन !(कभी पढ़े हुए आदि- कवि के दृष्य साकार होने लगे ).
कवि-मानस की रमणीयता
से भरे अनूठे शब्द-चित्र -
'चैतन्य विभायें नभ की|
उद्दाम विभावरी स्वयं,
जो पोंछ गई है,
तारकों के आँचल से,
तनिक और स्वच्छ हैं|'
लगा जैसे कोई मोहक-सी उजास छा गई !
भावविभोर करती ... सुन्दर शब्दों से सजी ... जैसे कोई जादू हो रहा हो ... बरखा तो अपने आपमें प्राकृति का जादू ही है ..
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 16 -11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
प्रकृति के चित्रण में आपने अपनी कलम से रंग भर दिया , अद्भुत शब्द विन्यास और भाव पूर्ण अभिव्यक्ति .
लालित्य अटा पड़ा है,
हर पुष्प-वृंत-निकुंज
बिलकुल अलग शैली ....
चींटियों की जिप्सियाँ,
लगी हैं फिर खोदने,
जडें महुआ की|
नए बिम्ब ...
अमरुद के गाछ,
झुक आए हैं,
तुलसी के बिरवे तक|
.नई सोच ...
और प्रभाव पूर्ण रचना .....
कोमल, नर्म, मुलायम. कुछ न होते हुए भी घटित होता सा.
चीटियों की जिप्सियां फिर खोदने लगीं जड़ें महुआ की। बहुत ही सुन्दर बिंब , इक नये कलेवर की बेहतरीन कविता, आभार व बधाई।
करो स्वागत महि व्योम के हर कण का।
दिल को छूने वाली पंक्तियां। बधाई।
सुन्दर बिम्बों से सजी सुन्दर रचना ,बहुत बधाई !
माँ गिन रही है,
फंदे-गोले-सलाइयाँ|
अमरुद के गाछ,
झुक आए हैं,
तुलसी के बिरवे तक|
हुलस आया रे मन!
....sundar manbhawan chitran
बहुत दिनों बाद एक अच्छी कविता पढ़ने को मिली|मन प्रफुल्लित हो उठा|निर्मल काव्य-रस में डुबकियाँ लगवाने के लिए आभार|ढेरों शुभकामनायें भी|
-अरुण मिश्र.
@साँझ..
चाय तो मैं भी नहीं पीता हूँ, पर आपको चाय पिला सका, ये अच्छा लगा.
लोग नहीं कहेंगे की घर आए तो चाय तक नहीं पूछता.. :)
शुक्रिया आपका, मुझे झेलते जाने का. :)
@दिपाली
thanks a lot, your words count :)
@रचना जी और संजय जी,
मौसम ही है :)
@अर्चना जी,
आपसे आशीर्वचन मिले, धन्य हुआ.
संजय जी की टिप्पणी उनका नेह है, मैं योग्य नहीं :)
कृतज्ञ हुआ जो आपने इस योग्य समझा, आभार.
@डिम्पल जी,
कुछ तो कमी रही ही होगी, आपका वक़्त लगा, माफ़ी चाहूँगा..
आपका आना अच्छा लगा.
@प्रतिभा जी,
आदि-कवि का आह्वान करने में सक्षम हुई कविता, मूल्य मिला इसे.
आप सरीखे किसी से ऐसे वचन सुनना सूर्य की रश्मि के समान है...
प्रणाम!
@दिगंबर जी,
क्षमा चाहूँगा यदि मुझसे त्रुटियाँ हुईं, बहुत होती हैं बेहिसाब होती हैं. तभी संभवतः आपने बरखा समझ लिया हेमंत को.
आभार!
आप सभी का बहुत आभार!
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