समस्त पराक्रम,
निचोड़ के रख तो दूँ.
खोल दूँ प्रत्यंचा, कवच
मोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु विकट तम आए तो,
मुझे हिंसक कहने वाले,
शांति के पुरोधाओं!
असि उठा लोगे?
कालरात्रि के जुगनू,
जो सहेजे हैं युगों से.
पेटी में उनके पँख,
तोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु जब मिहिर ना आए,
राहु ही परम विजयी हो.
तो कुठार को जान,
मसि, उठा लोगे?
उतार के खडग,
उठा लूँ खुरपी.
नरमुंडों की जगह बीज,
गोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु जब अन्याय हो,
त्राहिमाम न करोगे.
तोड़ उसकी अतिक्रूर,
हँसी, ठठा लोगे?
ऋचाएँ नहीं पढ़ी हैं,
धर्मभीरू भी नहीं हूँ.
गायत्री मंत्र लेकिन हाथ,
जोड़ के पढ़ तो दूँ.
किन्तु आवश्यक हो जाए तो,
घृत लोबान झोंकने वालों!
यज्ञ में स्वयं का ही,
शीश कटा लोगे?
आचमन कर नहीं खाया,
मूज से बस धनुष बाँधा.
हो जाऊं तुमसा, सब,
छोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु जब विषैले नाग,
ना सुने प्रवचन कोई.
बन पाओगे विकराल?
अपने युगों के पुण्य पर,
एक क्षण ही कहो,
देव, क्षत्रियता लोगे?
23 टिप्पणियाँ:
कुछ पंक्तिया चुनकर टिपण्णी में लिखता , तय नहीं कर पा रहा , कौनसी लूँ ,,,सम्पूर्ण रचना लाजबाव है ,,,अच्छा शब्द संयोजन ..वीररस से सराबोर लेखन ,,,मापतोल के गणित में कहूँ तो ' 10 में से 10 नंबर '
खुरपी तो गाँव में या देहात में काम में ली जाती है ,,,आपको इसका ज्ञान है ,,, शब्दकोष का बेहतरीन अनुभव ....जो काबिलेतारीफ़ है ....!!
संवादधर्मिता, कथ्य और रूप दोनों स्तरों पर .. कवि कहीं स्वयं से संवाद करता है, कहीं दूसरों से। यों ये दोनों स्थितियां परस्पर पूरक ही कही जाएंगी।
एक दर्शन समेट कर रख दिया शब्दों में। शैली पर निशब्द हो गये। कृति को प्रणाम।
कई बार पढ़ा.इस सार्थक और प्रभावी रचना के लिए बधाई.
धीरे धीरे आपके पुजारी होते जा रहे हैं हम... एक बार कोनो डाकू से कोई पूछा था एगो सवाल अऊर ऊ रत्नाकर डाकू से बाल्मीकि बन गया, अईसहीं एक सवाल के जवाब में कोई अंगुलिमाल खडग त्याग कर भिक्षु बन गया था... एगो सवाल का जवाब राजकुमार को बुद्ध बना देता है... अबिनास जी! सवाल ही सवाल भरा हुआ है, जवाब केकरो पास नहीं है. धन्य हैं आप अऊर आपका कृति!!
बढिया रचना
athah hai tumhara shabd bhandar....mere jaisa admni to spchne lagta hai ki yaar ye shabd kiska prayaayvachi hai ...heheh ... kshatriyta ki behad shandar paribhasha batayi tumne ....
प्रश्न झकझोर जाएँ तो कुछ योद्धा उठ खड़े हों ...
अविनाश,
कितनी बार लिखूं कि हर बार हतप्रभ रह जाती हूँ तुम्हारे भावों को शब्दों में पिरोने की कला को देख कर....ईश्वर इस लेखनी को और दृढ़ता प्रदान करे... शुभाशीष सहित
दी
अविनाश ,
आज कि यह रचना अद्भुत है...वैसे सारी ही होती हैं ..पर यह झकझोर देने वाली....प्रश्नों को समेटे हुए ....एक एक छंद जैसे मार करता हुआ ....बहुत अच्छी रचना ...
aapki kavitaye pad 'nirala' ji yaad ate h.
कालरात्रि के जुगनू,
जो सहेजे हैं युगों से.
पेटी में उनके पँख,
तोड़ के रख तो दूँ.
किन्तु जब मिहिर ना आए,
राहु ही परम विजयी हो.
तो कुठार को जान,
मसि, उठा लोगे?
@ भ्रान्ति प्रायः स्थूल अथवा बाह्य गुणों में एकरूपता पर होती है. पर यहाँ कुठार और मसि में वैसी कोई समानता नहीं दिखती.
हाँ, यदि 'मसि' शब्द द्वारा लेखनी से आपका अभिप्राय है तो काबिले-तारीफ़ है आपकी रचना.
शान्ति के पुरोधाओं, झोंकने वालों,
@ संबोधन के समय बिना अनुस्वार के ही लगाएँ.
— पुराधाओ!
— वालो!
आपकी यह रचना ओज गुण से लबालब. आपके पाँव कविता के भाव- और कला-पक्ष में काफी गहरे जमे हैं. उखड़ेंगे नहीं. हिलाने की कोशिश बेकार हो यह शुभकामना है. लेकिन मेरा स्वभाव इस शुभकामना के विपरीत कार्य करता है.
प्रतुल जी,
असीम धन्यवाद आपका..
यहाँ "मसि" शब्द सिर्फ लेखनी और उसकी कोमलता का प्रयोजन लिए हुए है..आपने ठीक समझा.
और आप अपने स्वाभाव के अनुरूप ही रहे तो मेरा मंगल है...पाँव उखड़ेंगे तभी फिर जमेंगे..बिना तप किये अंगद कब बना है कोई?
ज्ञानी तनिक भी नहीं हूँ सो अच्छा लेखन नहीं है मेरा इसका भान भी है मुझे , किन्तु निंदा यदि उचित है तो शिरोधार्य करने का सामर्थ्य रखता हूँ.
आपका अनेकानेक आभार!
aap sabhi ka bhaut bahut aabhar
इस रचना ने बस यही कहा कि क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो
लाजवाब रचना. इतना सब कुछ सब ने कह दिया मैं इस रचना के शब्द संयोजन को देख हैरान हूँ.हमेशा के तरह निशब्द कर देती हैं तुम्हारे रचनाएं.
:) शुक्रिया शुक्रिया
अप्रतिम रचना...बधाई...
नीरज
shukriya
क्या कहूँ ... मन्त्र मुग्ध हूँ आपकी रचना और रचनाधर्मिता पर ... अभी थोड़ा उबर लूँ तो कुछ और कहूँ
बहुत बहुत धन्यवाद
मो सम कौन का आभारी हूँ जो इस ब्लॉग का लिंक मिला।
आप को शुरू से पढूँगा। बहुत जान है! बहुत!!
बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
आभार।
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