मेरा सोचना.
और सोचते ही जाना.
लगातार-निर्विकार-निर्द्वंद.
त्रुटी-क्षण-युगों-कल्पों तक.

मेरा देखना.
और देखते ही जाना.
चुपचाप-आँखें फाड़- अपलक.
खिडकियों-दीवारों-बादलों-आसमानों के पार.

मेरा चलना.
और चलते ही जाना.
सतत-अनवरत-निरंतर.
गली-शहर-देश-काल से परे.

मेरा रुकना.
और रुके ही रहना.
जैसे विन्ध्य हो प्रतीक्षारत.
अगस्त्य कभी तो लौटेंगे वापस.

मेरा रोना.
और रोते ही जाना.
की इसी से मिट जाए सूखा.
"इसकी" बजाए "इसमें" मिलना हो गँगा को.

मेरा सोना.
और सोते ही जाना.
खुली आँखों से ही.
आखिर खँडहर में कपाट क्यूँ हो?

और फिर किसी दिन,
सुबह से ठीक पहले.
तोड़ देना इस पाश,
पत्थर-पलाश के ठीकरे को.

ठीक उसी क्षण,
जब की अन्धेरा.
होता है गहरा,
अँधेरे से भी ज्यादा.

फिर सब कुछ.
बिलकुल सब कुछ.
जुलाई की किसी,
सीलनाई दोपहर,
बहा देना माट्ला* में.

कोरे पन्नों की,
कविताओं के संकलन.
बंगाल की खाड़ी में,
छपते हों शायद.

बकौल तुम...
"हर बात लिख के कहना,
जरुरी तो नहीं."






माट्ला*= बंगाल की एक नदी का नाम

29 टिप्पणियाँ:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अबिनास जी… जीबन में बहुत कुछ अनकहा रह जाता है... अऊर हम्रे हिसाब से त सबसे अच्छा कबिता ओही है जो देखने में कोरा लगे...नितांत कोमल भाव के साथ अप अपना बात कहे हैं... एगो नया बिम्ब सीखने को मिला आपसे कि खुली आंखों से सोना क्योंकि खंडहर में कपाट का का काम... अबिनास जी बहुत सुंदर!!

वीना श्रीवास्तव said...

मेरा रुकना
और रुके ही रहना
जैसे विन्ध्य हो प्रतीक्षारत
अगस्त्य कभी तो लौटेंगे वापस

बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति....उम्मीद है आगे भी पढ़ने को मिलेगी

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

दो बातें:
१. काफी पढ़े-लिखे लगते हैं आप!
२. जो करते हैं बड़ा करते हैं!
शुभ कामनाएं!

अरुण चन्द्र रॉय said...

"फिर सब कुछ.
बिलकुल सब कुछ.
जुलाई की किसी,
सीलानाई दोपहर,
बहा देना माट्ला* में."
bahut bhav se likhi gayee kavita

स्वप्न मञ्जूषा said...

मेरा सोना.
और सोते ही जाना.
खुली आँखों से ही.
आखिर खँडहर में कपाट क्यूँ हो?

कपाट विहीन खंडहर ..सब देखते हैं लेकिन कितने विवश होते हैं...!
यह बिम्ब !!
कमाल कर गया है...

sanu shukla said...

बहुत सुन्दर ...!

रश्मि प्रभा... said...

saari baat likh hi di to samajhnewale kya karenge !
tumhare ankahe ko padhna aur janna bahut achha lagta hai

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

किस किस छंद की तारीफ़ करूँ ? नए बिम्बों से सजी बहुत खूबसूरत रचना ....

Udan Tashtari said...

बहुत ही सुन्दर रचना...तारीफ के काबिल!!

राजकुमार सोनी said...

अविनाशजी
बहुत ही जबरदस्त
बहुत अच्छा लगा
संगीता स्वरूप जी की बात से सहमत हूं
वाकई.. एक-एक पंक्ति शानदार है

नर्मदेश्वर पाठक '' शेरघाटीय " said...

बहुत खूब , आज एक अच्छी कविता पढने को मिली

vandana gupta said...

नायाब बिम्ब प्रयोगों से सजे कोरे पन्नों पर भी कुछ ना कुछ अनकहा रह ही जाता है चाहे कितना भी कह लो……………हमेशा की तरह एक बेह्तरीन कविता।

पारुल "पुखराज" said...

मेरा सोना.
और सोते ही जाना.
खुली आँखों से ही.
आखिर खँडहर में कपाट क्यूँ हो?


khuubsurat baat hay ye

प्रवीण पाण्डेय said...

गति और स्थिरता तो जीवन के दो अंग हैं।

Anupama Tripathi said...

''हर बात लिख के कहना ज़रूरी तो नहीं ''
बहुत गहरी सोच और अभिव्यक्ति भी .
बहुत सुंदर .शुभकामनाएं .

Manoj K said...

bahut hi sundar kavita

manoj khatri

अपर्णा said...

बहुत सुन्दर रचना ..
मेरा सोना और सोते ही जाना ...
मेरा रुकना और रुके ही रहना ...
आदि से अंत तक कविता नदी की तरह प्रवाहित होती है.

अपर्णा said...

बहुत सुन्दर रचना ..
मेरा सोना और सोते ही जाना ...
मेरा रुकना और रुके ही रहना ...
आदि से अंत तक कविता नदी की तरह प्रवाहित होती है.

अपर्णा said...

बहुत सुन्दर रचना ..
मेरा सोना और सोते ही जाना ...
मेरा रुकना और रुके ही रहना ...
आदि से अंत तक कविता नदी की तरह प्रवाहित होती है.

nilesh mathur said...

शानदार रचना , बेहतरीन! बहुत ही सुन्दर!

अनुभूति said...

कोमल भाव सुन्दर प्रवाहमयी रचना ...खुली आँखों से सोने की कल्पना छंद युक्त मर्म स्थल को अंतर तक छु लेने वाली कब्यांजलि......
अति सुन्दर....कोटि कोटि शुभ कामनाएंएवं हार्दिक अभिन्दन ....

Vinay Kumar Vaidya said...

अद्भुत गहरी सरल सी (जटिल नहीं)
दुरूह अभिव्यिक्ति ।
बधाई !

दिगम्बर नासवा said...

बकौल तुम...
"हर बात लिख के कहना,
जरुरी तो नहीं."

वाह क्या बात कही है ....
निःशब्द कर दिया ...

Amit Kumar Sendane said...

rochak............

bahad khoobsoorat........:-)

वर्तिका said...

...........

Avinash Chandra said...

आप सभी का बहुत आभार.

@आशीष जी,
मैं दोनों ही बातें नहीं समझा...वक़्त मिले तो बताएं.

Avinash Chandra said...

@वर्तिका,
तो आप लिखेंगी नहीं... :)

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

डियर अविनाश,
सीधी बात है!
मैं मूलत: एक फूहड़ किसम का आदमी हूँ....
आपकी रचना उच्चतम स्तर की लगी........
इसलिए कह दिया के काफी पढ़े-लिखे लगते हैं आप!
और मजाक करना..... ये डिफेक्ट बाई बर्थ है मुझमें:
आपका सोचना और सोचते ही रह जाना....
देखना और देखते ही रह जाना.....
वगेहरा! वगेहरा!
इसलिए कह दिया.... जो करते हैं बड़ा करते हैं!
हा हा हा.....
और आप समझ बैठे किसी पढ़े-लिखे ने बड़ी गूढ़ बात कही है!!!!!
हा हा हा....
--
www.myexperimentswithloveandlife.blogspot.com

Avinash Chandra said...

आशीष साहब,

सबसे पहले तो शुक्रिया मेरी शंका शांत करने के लिए आप वापस आए...
रचना की तारीफ़ की आपने, बहुत धन्यवाद...वैसे पढ़ा लिखा नहीं हूँ ज़रा भी, सच.
और रहा बड़ा करना तो...हेहेहे क्या कहा जाए..जब आपने सोच ही लिया है तो सर माथे है जी.

वैसे चन्दन के पेड़ों को अपना परिचय चिल्लाकर देते नहीं सुना...सो इस लिहाज से जनाब फूहड़ तो आप होने से रहे. :)
और आपका डिफेक्ट (अगर डिफेक्ट है भी, तो कायम रहे हमेशा...)
और आपकी केमिस्ट्री लैब (रसायन प्रयोगशाला) में जल्दी ही नया विद्यार्थी हाजिरी देने आएगा.

फिर से, आभार.