क्षणिकाएँ.....


छत का प्लास्टर...

एक बटा आठ,
सीमेंट-बालू से नहीं.
तुम्हारे बाबूजी के,
पसीने-अरमानों से,
अब तक जुड़ा था.
वो जो टूट जाएँ,
मैं भी फूट झडूं.



यादें...

गुल्लक में सहेज रखी,
तुम्हारी तमाम यादें.
किसी भी आलपिन से,
निकलती ही नहीं.
एक रोज ये साँस छूटे,
तो ये गुल्लक फूटे.



काले धब्बे...

आधी रात के जश्न में,
रोत़ी कविताओं का दर्द,
ठठाते शब्दों में सुनना.
चिराग तले अन्धेरा,
यूँ ही तो नहीं कहते.




तरुवर...

पल्लव!
रुकना तनिक,
पल्लवित होना.
निखर जाओ पूरे,
और मैं पुलक जाऊं,
तो करना प्रतिरोध.
आशीष दे, जाने दूँगा,
लोग पिता कहते हैं मुझे.




बोधिसत्व...

मेरी साँसें महान नहीं हैं,
कोई सत्व मिले मुझे,
ऐसी आकांक्षा भी नहीं.
तुम्हारी आँखों को दूँ रोशनाई,
तो त्रिज्ञ नहीं बनना है मुझे


त्रिज्ञ= बुद्ध

19 टिप्पणियाँ:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अविनाश ,

छत का प्लास्टर...बाबूजी के खून पसीने से बना ...बहुत संवेदनशील ..हर नारी की ज़िंदगी का सत्य है..नारी ऐसे ही पति को संबल देती है और पति के संबल से खुद को जोडती है ...बहुत सुन्दर


यादें..
अंत तक गुल्लक साथ रहती है...खूबसूरत क्षणिका

काले धब्बे.
रोटी कविताओं का दर्द जश्न के बीच में भी महसूस करना ...बहुत खूब

तरुवर.
एक पिता के एहसास...हर पिता अपने बच्चों को फलते फूलते देखना चाहता है ..और वक्त के साथ बच्चे आज कल प्रतिरोध भी करते हैं ...सब बातों को बखूबी कलम से उतारा है

बोधिसत्व...
गहन विचार वाली रचना

कुल मिला कर सारी क्षणिकाएं प्रभावित करती हैं

रश्मि प्रभा... said...

गुल्लक की यादें गुल्लक में ही रहे... बाहर निकालकर कहीं बासी न हो जाये, खो न जाये !
तुम्हारी कलम सच कहती है, हर क्षणिका करीबी एहसास

प्रवीण पाण्डेय said...

अविनाश जी, छत का प्लास्टर भावुक कर गयी।

Apanatva said...

kshanikae sabhee ek se bad kar ek hai aur ek gahre vyktitv kee samvedansheel abhivykti ko ujagar kartee hai.........

Apanatva said...

kshanikae sabhee ek se bad kar ek hai aur ek gahre vyktitv kee samvedansheel abhivykti ko ujagar kartee hai.........

अंजना said...

बहुत सुन्दर क्षणिकाएं.

अनामिका की सदायें ...... said...

कितना गहरा गहरा लिखोगे अविनाश ....सब कुछ तो यूँ लगता है सामने ही घटित हो रहा है.

सुंदर अति सुंदर.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अबिनास जी,कसम खा लिए हैं का कि हमको निःसब्द करिए के छोड़िएगा... छत का प्लस्तर तो अबाक कर देता है, गुल्लक में भरा हुआ याद, जीबन का सचाई, काले धब्बे त ऊ मसहूर मुहावरा को एक नया माने दिया कि हर कबिता पढने के पहले सोचना पड़ेगा, तरुवर हमको पटना ले जाता है याद में, आज भी ऊ बूढा पेड़ आसीस देता है हम सबको, अऊर गुलज़ार साहब का एक कबिता आम का पेड़ के बारे में, अऊर बोधिसत्व भी एक अनूठा भाव प्रस्तुत करता है. टोटल ईम्पैक्ट एकदम सन्नाटा... बस!!

परमजीत सिहँ बाली said...

सभी क्षणिकाएं बहुत बढिया हैं बधाई स्वीकारे अविनाश जी।

मनोज कुमार said...

कविता काफी अर्थपूर्ण है, और ज्‍यादा समकालीन ।

दीपक 'मशाल' said...

मनमोहक क्षणिकाएं...

राम त्यागी said...

सबसे बेहतरीन लगी - यादें

बहुत अच्छा लिखा है

Avinash Chandra said...

आप सभी का आभार

अनामिका की सदायें ...... said...

आप की रचना 30 जुलाई, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com

आभार

अनामिका

चैन सिंह शेखावत said...

कमाल की रचनाएं हैं ...एक-एक पंक्ति लाजवाब...भाव मानो बूँद-बूँद कर टपक रहे हैं...भाषा अत्यंत सुगठित..
बधाई अविनाश जी....

Avinash Chandra said...

aap sabka shukriya

vandana gupta said...

बेमिसाल क्षणिकायें……………………बडे गहरे भावों से लबरेज़्………………सभी एक से बढकर एक्।

Manoj K said...

छत का प्लास्टर सचमुच बहुत ही बढ़िया लगी,

हिंदी का ज्ञान बहुत कम है, technical details ज्यादा नहीं जनता पर वह बात जो दिल को छू ले वह अच्छी लगती है, फोलो करना शुरू कर रहा हूँ.

मनोज खत्री

Avinash Chandra said...

शुक्रिया वन्दना जी

मनोज जी,

ज्ञान तो मेरा भी बहुत कम है...पर मेरी बातें आपके दिल तक पहुंची..तो लिखना सार्थक हुआ.
धन्यवाद!