गंडक-कोसी बह जाने दो.
आए निदाध तो आने दो.
जो लोल व्यथा की क्रीडा है,
उसको मल्हार बजाने दो.
सुरधनु सजें या नहीं सजें,
द्रुम सुमन उगें या नहीं उगें.
हो जीर्ण-विकीर्ण यदि नभ भी,
उरगों को गल्प सुनाने दो.
राका हर दिवस के बाद में हो,
हर वृन्त सदा आह्लाद में हो.
यह हर्षिल विभ्रम नहीं पालो,
सत को सिगड़ी सुलगाने दो.
आमोद-प्रमोद को मथ डालो,
आँधी-पानी में रथ डालो.
और गोत्र तनिक जो बहता हो,
उसको सहर्ष बह जाने दो.
अमर्त्य अराति विद्रूप कहे,
हर क्रीत विभा परित्यक्त रहे.
दग्ध व्रणों से भीत न हो,
जीवन तनिका तन जाने दो.
बस बहुत हुआ संध्या चुम्बन,
आरव-आरुषी का आलिंगन.
अब यह ललाट कुछ कलित करो,
दिनकर का तेज लजाने दो.
सोमिल लोचन में क्रोध भरो,
असि के विटपों पर क्षोभ धरो.
अतिरेक प्रगल्भा मूक रहे,
अहिअभ्रों को तोय लुटाने दो.
यदि एक टिटिहरी जिला सको,
जीवन का परिमल बहा सको.
अथ काल भी आड़े आ जाए,
शिख से नख तक जल जाने दो.
दुर्धर्ष मृषाओं से लड़ कर,
अति अनघ ऋचाओं को पढ़ कर.
नाहर से ऊँची श्वास भरो,
पितरों को तनिक गर्वाने दो.
यह जिजीविषा सम्मान रहे,
जीवन से ऊँचा नाम रहे.
उत्ताल भाल यदि देख वसु,
थर्राते हों, थर्राने दो.
22 टिप्पणियाँ:
हर शब्द तो नहीं समझ पाया, पर कविता की लय व ताल उम्दा है ! कृप्या मेरे ब्लोग पर भी आएं व फ़ोलो करें ! मैं आप को फ़ोलो कर रहा हूं !
इस आह्वान पर न्यौछावर होने को जी चाहता है!!
राका हर दिवस के बाद में हो
हर वृन्त सदा आह्लाद में हो
यह हर्षिल विभ्रम नहीं पालो
सत को सिगड़ी सुलगाने दो…॥
"जयशंकर प्रसाद……"
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आमोद प्रमोद को मथ डालो
आँधी पानी में रथ डालो
और गोत्र तनिक जो बहता हो
उसको सहर्ष बह जाने दो…
बस बहुत हुआ संध्या चुम्बन
आरव आरुषि का आलिंगन
अब यह ललाट कुछ कलित करो
दिनकर का तेज़ लजाने दो…
"रामधारी सिंह दिनकर…"
किस किस की झलक दिखी हर छन्द के बाद उसकी एक बानगी भर देने की कोशिश की है…आर्य!
"मौन शब्दकोश उपलब्ध मेरे
हैं शब्द खड़े स्तब्ध मेरे…
वन्दन में मेरा मौन मुखर
एक श्रद्धा-पुष्प चढाने दो…"
नमन !
अद्भुत, अद्वितीय और ना जाने क्या क्या....
एक एक शब्द का चुनाव सटीक....हालांकी सारे शब्द अभी भी नहीं समझ पाया हूँ
"दुर्धर्ष मृषाओं से लड़ कर,
अति अनघ ऋचाओं को पढ़ कर.
नाहर से ऊँची श्वास भरो,
पितरों को तनिक गर्वाने दो.
यह जिजीविषा सम्मान रहे,
जीवन से ऊँचा नाम रहे.
उत्ताल भाल यदि देख वसु,
थर्राते हों, थर्राने दो."
तुम्हारी पोस्ट पर कम से कम दो विज़िट तो लगते ही हैं अपने, पहली विज़िट पर तो सिर्फ़ मुदित,चकित, प्रगल्भित होकर लौट जाता हूँ, लगभग हर बार। कमेंट लिखने में भी सर्दी में पसीने आ जाते हैं दोस्त, कि कम से कम पोस्ट के पासंग तो दिखे। और फ़िर काव्य का यह रंग, चुंबक की तरह खींचती है मुझे।
आदि से अंत तक बहुउउउउत अच्छी लगी यह ललकार।
वैसे निदाध बोले तो...?
सर जी,
निदाध = गर्मी/ताप/धूप
zara ruko...mujhe dictionary laane do....! :P ;)
kyun itni mushkilein badhate ho, make life simple baba! hihihihi
ok honestly, aap khud jaante ho kavita kitni acchi hai, kehne ki zarurat nahin. kuch shabd nahin samajh aaye, par samajh loongi...in total, bhavaarth....bohot hi accha hai...lovely :)
आपकी प्रवाहमयी कविता पढ़ जाना एक साहित्यिक यात्रा है।
आपकी कविता सुन्दर अभिव्यक्तियों का गुलदस्ता है,असली फूलों वाला !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बहुत खूब , शुभकामनायें !
हमेशा की तरह लाजवाब और मुश्किल शब्दों से भरी समझना भी मुश्किल
भावना प्रधान रचना
प्रवाहमयी अभिव्यक्ति में मन हिलोरे ले गया.
what to say abt your vocab...simply fab....jitni bhi samajh aayi...wo acchi lagi...:)
अविनाश चन्द्र जी
नमस्कार !
इस बार मुलाकात को अरसा हो गया …
वैसे मैं दो-तीन बार आया हूं … बस, उपस्थिति के हस्ताक्षर नहीं कर पाया ।
आपकी अन्य रचनाओं की ही तरह गरिमामय शब्द-सम्पदा संजो कर सृजित इस रचना ने भी अत्यधिक प्रभावित किया
बस, कहूंगा-
सामर्थ्य कहां मम शब्दों में
भावों में ही बह जाने दो !
अविनाश-सृजित कविता-सलिला
जी भर कर आज नहाने दो !!
…लेकिन आपका अंदाज़ ही अनोखा है …बधाई !!
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
आपकी कविता पढना एक सुखद अनुभूति होती है .
बस बहुत हुआ संध्या चुम्बन,
आरव-आरुषी का आलिंगन.
अब यह ललाट कुछ कलित करो,
दिनकर का तेज लजाने दो.
अद्भुत .....!!
उफ़ क्या लिखते है आप, शब्दों का ऐसा चयन,सब तो नहीं समझ पाएं. इसके लिए बार-बार आना पड़ेगा आपके ब्लॉग में.
यदि एक टिटिहरी जिला सको,
जीवन का परिमल बहा सको.
अथ काल भी आड़े आ जाए,
शिख से नख तक जल जाने दो.
...बहुत खूब ।
आप सभी का ह्रदय से आभार
ओह...क्या कहूँ...
अनुपम...अद्वितीय !!!!
wah. bahut sunder.
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