शलभ समान अक्षर,
जो थे सने-नहाए,
धूसरित धूल में.
पुलकित हुए देख,
तुम्हे ज्योतिशिखा.
बहती सन-सन,
वासंती रुंध गयी.
देख उत्कट अनुराग,
मंद हुई, रुक गयी.
सभी वर्ण जले,
चटचटाए नहीं,
बने शांत स्फुल्लिंग.
जैसे महेश ने,
दिया हो मोक्ष,
रोगी रागों को.
संतोष में पगे,
अग्नि कणों ने छू,
धरा को दैविक,
शब्द बीज दे दिए.
जो उपजे, लहलहाए,
झूमे, खिलखिलाए.
कार्तिक में कुछ,
वाक्य भी तो तुम्हे,
दिए थे ना मैंने.
फिर कहीं से आई,
भौतिकता की वल्लरी.
लपेटती रही-नापती रही,
समास-संधि-क्रिया.
और एक दिन,
तुमने-वल्लरी ने,
ले ली विदा.
उस दिन से प्रिय,
वहीँ है रुका,
एक अपूर्ण अनुच्छेद.
व्याकरण भूल,
जो कभी लौटो,
तो पूरा कर लूँ.
जो थे सने-नहाए,
धूसरित धूल में.
पुलकित हुए देख,
तुम्हे ज्योतिशिखा.
बहती सन-सन,
वासंती रुंध गयी.
देख उत्कट अनुराग,
मंद हुई, रुक गयी.
सभी वर्ण जले,
चटचटाए नहीं,
बने शांत स्फुल्लिंग.
जैसे महेश ने,
दिया हो मोक्ष,
रोगी रागों को.
संतोष में पगे,
अग्नि कणों ने छू,
धरा को दैविक,
शब्द बीज दे दिए.
जो उपजे, लहलहाए,
झूमे, खिलखिलाए.
कार्तिक में कुछ,
वाक्य भी तो तुम्हे,
दिए थे ना मैंने.
फिर कहीं से आई,
भौतिकता की वल्लरी.
लपेटती रही-नापती रही,
समास-संधि-क्रिया.
और एक दिन,
तुमने-वल्लरी ने,
ले ली विदा.
उस दिन से प्रिय,
वहीँ है रुका,
एक अपूर्ण अनुच्छेद.
व्याकरण भूल,
जो कभी लौटो,
तो पूरा कर लूँ.
17 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर कविता
आप की रचना 16 जुलाई के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
बहुत सुन्दर कल्पना और कृति
waah......bahut hi poorn bhawna
.
awesome !
jitni taareef kaun , kam hogi !
.
सुदृढ़ अभिव्यक्ति -
बहुत सुंदर बधाई .
अविनाश चंद्र जी, चाहे कविता लंबी हो या छोटी, आपली एक अलग शैली है। विषय कहने में आप अनूठे हैं। और सबसे बड़ी बात कि आप दूसरों से भिन्न फॉर्मेट अपनाते हैं। कविता का सलीका, तरीक़ा, रखरखाव, आपका अपना है। नई विधि-प्रविधि, जिसमें आपका चरित्र झांकता है। एक कविताकार के रूप में आप मौलिक सर्जक है। अपूर्ण अनुच्छेद... कविता इसका प्रमाण है।
जिस मनुज ने नेह का व्याकरण कंठस्थ कर रखा हो, उसे यह संज्ञा से अव्यय तक के व्याकरण कहाँ लुभा सकते हैं... सब विस्मृत हो जाता है जब प्रेम का प्रत्यय या उपसर्ग लग जाता है जीवन के साथ, एक अविभाज्य अंग बनकर, जिसे “ सिर दे सो लो ले जाई” के मंत्र को सिद्ध करने वाला ही अनुभव कर सकता है...
अबिनास बाबू एतना लिखने में हाँफने लगे हैं हम, आपका त बाते अलग है... सब्द त पानी का जईसा निकलता है आपका लेखनी से, अऊर हर भावना भोगा हुआ लगता है.. साधुवाद!!!
हमेशा कि तरह बेहतरीन कविता, भाषा पर आपकी पकड़ मुझे स्तंभित करती है ...
बहुत सुंदर कविता
awesome!
qqpki har rachna ke liye bas yahi likha ja sakta hai!
उस दिन से प्रिय
वहीँ है रुका
एक अपूर्ण अनुच्छेद
भौतिकता की वल्लरी में विदा होती .....वियोग की वेदना के ताने बाने में बुनी आपकी अद्भुत कविता ....जिज्ञासा होती है आपने कविता के लिए यही शैली क्यों चुनी ......?
आप सभी का बहुत बहुत आभार.
@मनोज जी,
मैं क्या कहूँ..अपने इतना कुछ कह दिया, इतना गुणी नहीं हूँ.
@सलिल जी,
आपके इन स्नेह वचनों का आभार व्यक्त करना कम लग रहा है... मेरे शब्दों को कीमत मिल जाती है जब कोई आत्मा से पढ़ लेता है इन्हें.
@हरकीरत जी,
यही जिज्ञासा मुझे भी है.शायद उस नदी को भी हो जो जाने किस पथ से क्यूँ बह गई.
साहित्य ज्यादा पढ़ा नहीं है..या कहें पढ़ा ही नहीं है.
शिल्प का ज्ञान व्यवहार बिलकुल भी नहीं. शब्द जैसे रिस जाते हैं, कलम उतार देती है.
ना तो उन्हें कभी दुबारा गढ़ता हूँ, ना सुधारता हूँ........बस, और तो मुझे भी नहीं पता.
बहुत ही सुन्दरता से व्यक्त बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
व्याकरण में उलझा दिया है शब्दों का सौन्दर्य।
dhanyawaad
brilliant
shukriya Deepali
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