आक्रोश चाप पर,
धीर धरा.
मैंने आँखों में,
शूल भरा.
सौ गजों सी,
एक चिंघाड़ भरी.
और बीच समर,
में पाँव धरा.
कितने ही शत्रु,
काट दिए.
कोटि सर धरा पर,
पाट दिए.
नहा लहू के,
सोते में.
मैं चन्द्रप्रभा में,
रहा खडा.
हाँ देवों मुझको,
रक्ष कहो.
मानव हैं मेरे,
भक्ष कहो.
किन्तु इस सिंह,
ने बहुत दिवस.
था कूकर से,
अपमान सहा.
जो कहा तुम्हे,
माने ही नहीं.
पस की पीड़ा,
जाने ही नहीं.
अब हा, हा,
करते फिरते हो.
जो ज्वाला सेतु,
टूट बहा.
चुप था तो,
मुझे कायर जाना.
विवेक को पौरुष,
हत माना.
कर जोड़ विनती,
क्यूँ करते हो?
जब ध्रुव ने,
सूर्य पे पाँव धरा.
7 टिप्पणियाँ:
sundar abhivyakti
सुन्दर रचना।
सौन्दर्यशालिनी, उत्तमा कविता ।।
धन्यवाद:।
http://sanskrit-jeevan.blogspot.com/
ek ek shabda prabhaavshaali hai........badhiya
meri to nasen fadakne lageen avi... :)...
उत्तम रचना .. अच्छा शब्द संयोजन ....
aap sabhi ka shukriya
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