ओ स्वेद की बूंदों बह जाओ,
अब धरा ही देगी नेह तुम्हे.
इतने दिन रक्त से क्या पाया,
क्या दे पाई यह देह तुम्हे.
क्या जिजीविषा, क्या माँसल तन,
और क्या धीरज के विरले क्षण.
ये सब कवि की भ्रामकता है,
अब भी है क्या संदेह तुम्हे.
उद्यम-उद्योग और नाना श्रम,
पाणि-हल-हँसिया, खांटी क्रम.
अब रूप हैं भोग की धातु के,
ये क्या देंगे श्रद्धेय तुम्हे.
जो नेत्र सलिल से रीता हो,
मन खाँस-खाँस के जीता हो.
तो कौन ललाट पे छाओगे,
कहेगा ही कौन अजेय तुम्हे.
जो कंधे सूर्य-उजाले थे,
तुम बहते जहाँ मतवाले थे.
स्वयं उनका ही अवलम्ब नहीं,
देंगे क्या और प्रमेय तुम्हे.
बस एक धरा ना बदली है,
माँ है, वैसी ही पगली है.
बैजयंती पुष्प खिलाएगी,
दे कर जीवन का ध्येय तुम्हे.
24 टिप्पणियाँ:
माँ ..... यानि प्यार, आशीष, दुआ, शक्ति, नींद, सुकून.... वह कैसे बदल सकती है अपने जाये के लिए !
नवल कवि मित्र अविनाश चन्द्र जी,
आपकी कविता से प्रेरित होकर मसि-सहेली ने कुछ कहा ...
सुनो स्वेद! तुम बह जाओ.
'श्रम-सीकर' रखकर नाम कहीं.
सूरज की तपिश अकारण ही
तेरा अपमान करायेगी.
है बिना निमंत्रण के आना.
आना फिर आते ही जाना.
ओ स्वेद! बने तुम हठधर्मी
आमंत्रण पर अच्छा आना.
अतिशय श्रम बिंदु आभूषण
गति भय पर हो जाते दूषण.
रति के करते एकांत भ्रमण
मति के बन जाते अन्वेषण.
............ आपकी कविता के भाव उत्तम, आपने स्वेद के तमाम क्षेत्र सोच डाले. यही कल्पनाशीलता की शक्ति है. जिसके पंख जितने मज़बूत उतनी ऊँची उड़ान. और यह उड़ान कोरे हवा के करतब नहीं हैं.
जो नेत्र सलिल से रीता हो,
मन खाँस-खाँस के जीता हो.
तो कौन ललाट पे छाओगे,
कहेगा ही कौन अजेय तुम्हे...
humesha ki tarah hi uccha koti ki rachna.
jyada kya likhun, kavi-man ki udaan bahut vyapak hai.
अविनास जी, पसीना अऊर धरती का संबंध बताने के लिए आपका आभार... एक एक छंद लाजवाब है.. अऊर पसीने का वेदना बयान करता है... सच बताएँ त पहिला बार पसीना का आँसू देखने को मिला है... पसीना का ठौर बस धरती के पास ही है...
भावपूर्ण रचना।
उद्यम-उद्योग और नाना श्रम,
पाणि-हल-हँसिया, खांटी क्रम.
अब रूप हैं भोग की धातु के,
ये क्या देंगे श्रद्धेय तुम्हे.
बहुत खूबसूरत भवों से भरी रचना
नहीं प्रेम श्रम-धरा से उसके तन से क्या स्वेद झरे
पूज्य वे तन-वस्त्र है जो श्रम-स्वेद की अमित गंध भरे
जो नेत्र सलिल से रीता हो,
मन खाँस-खाँस के जीता हो.
तो कौन ललाट पे छाओगे,
कहेगा ही कौन अजेय तुम्हे.
अविनाश बस एक ही शब्द है अद्भुद !!!!!!!!!!!!!!!!
Shabdon ki jadugiri.Shilp aur kathya dono hi dristi se uttam.
@रश्मि जी,
:)
@प्रतुल जी,
मैं स्वयं को मसि-सहेली से वार्तालाप करने योग्य नहीं पाता. मेरी लेखनी पर यह मधु स्नेहिल, पुष्प-किसलय सम शब्द दिए आपने, लेखन को निर्वाण अनुभूति मिली.
मसि-सहेली प्रिय कर्ण-प्रिया,
दक्ष, मधुप, अति अति-नव्या.
करूँ सुशोभित किस संज्ञा से,
दूँ तुमको उपमान मैं क्या?
विनम्र निवेदन है की यदि त्रुटियाँ हो भविष्य में तो अवश्य अवगत कराएँ..
आभार.
@दिव्या जी,
आप नित यहाँ तक आती हैं, मेरी हर रचना पर समय देती हैं, और क्या माँगू?
@सलिल जी,
बहुत बहुत धन्यवाद.
@मनोज जी,
आभार
@संगीता जी,
धन्यवाद
@अमित जी,
सत्य वचन, वही पूज्य है. आप आए, हर्ष हुआ.
@रचना जी,
अद्भुत लिख सकूँ, इतना सामर्थ्य नहीं है मुझमे. वो तो बस क्षितिज है, जिसके लिए हर अबाबील गतिमान है.
@ संध्या जी,
अनेकानेक आभार.
मंगलवार २० जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत सुन्दर ! हमेशा कि तरह ही एक बेहतरीन रचना ...
ओ स्वेद की बूंदों बह जाओ,
अब धरा ही देगी नेह तुम्हे.
इतने दिन रक्त से क्या पाया,
क्या दे पाई यह देह तुम्हे.
lagta hai main khud pseene ki boond hun ..hehe..padh ke gussa aa gaya avi ....mast hai
doosra para bhi bahut zabardast laga avi./...bad me flow kuch gadbada gaya..pahle dono para jitna nahi mila..lekion bahut pyari rachna hai
aap sabhi ka aabhar
@Swapnil bhaiya
Kami hogi, tabhi nahi pasand aai.
Koshish karunga aage se behtari ki.
अरे में अब तक न पहुची
इन बूंदों को पोंछने
बहुत सुंदर पोस्ट सुंदर शब्द सुंदर एहसास.
avi ...this iss just superb... mujhe flow bhi bahtu hi acchaq lagaa aur thoughts aur rat to hain hi.... kuch dino pehle hi padh li thi...infact sun li...par net nahin chal raha tha to comment nahin kar paaye ... par yaad thaa,.... :)
padh li samajh aaya...
Sun li?
wo kaise?
waise jo bhi kiya..shukriya.
Padha ye jyada important hai mere liye..comment waqt mile to theek..na mile to bhi theek :)
itna pyaara likhte ho.. Kaise?? Main hindi kavitayein bahut kam padhti hun, par urs r jst amazing..
kaise ka pata nahi, kuchh likh deta hun...log padh lete hain..aap jaise log pasand kar lete hain..bas aur kya
अविनाश जी, स्वेद की नन्ही बूंदे अनमोल हैं....उनका अंतिम ठौर धरा ही है, जो जननी है...बहुत ही अच्छी व सार्थक रचना...
आपके ब्लॉग की तरह बेहतरीन रचनाएँ हैं आपकी...बधाई...
नीरज
dhanyawaad
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति --
.................प्रशंसा के लिए
शब्द नहीं हैं --सुंदर रचना के लिए बधाई .
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