गूँथ ले गौरिल, गिरि बना,
तू मार्तण्ड को झीरी बना.
लिख पौरुष सरि के कण-कण पर,
हर एक चपला को केक बना.
हे मनुवत्स, यामाहंता!
तू उदक माँग सुरसरि से ला.
धो दे सैकत का हर खल कण,
उस पर प्रकाश का विपिन उगा.
पद पादप सब कुसुमासव हों,
चल अचला का कुछ पुण्य चुका.
तू देख न बाट पिनाकी की,
ले कालकूट और स्वयं पी जा.
कुंजर के नम्र निवेदन पर,
कब कूकर कहीं लजाता है?
वह देख दिगंत जो गोचर है,
गम्य-अगम्य पर ठेठ-ठठा.
अपने अस्त्रों के यौवन पर,
नित दनुज-दैत्य की बलि चढ़ा.
कुछ सीख ले बन्धु अनल से तू,
छिटपुट खाण्डव सब हटा-बढ़ा.
शांति के गीत की देवपगा,
समृद्ध गेह में बहती है.
हलधर की सूखी सरसी में,
दुर्धर्ष कृशानु ही रहती है.
हर शिला तोड़ दे तू अभीक.
कब बना कहीं भीरू दबीत?
जो प्रचुर प्रचेतस अर्जित है,
बन जा पवान्ज, रिद्धिमा बहा.
रख क्षमा ह्रदय में पेरूमल सी,
किन्तु ललाट को अशनि बना.
पहचान मृषा और अहिमन को,
पाखंडों के सिर हवन चढ़ा.
नरपतियों का इतिहास सही.
सैनिक मिथ्या आभास सही.
किन्तु वसुधा के वक्षमोह,
हर एक वह्नि में तू जल जा.
गूँथ ले गौरिल गिरि बना,
तू मार्तण्ड को झीरी बना.
होगा हर ऋण से उऋण वही,
जो कंचन-रेणु धुरि बना.
***********************************
***********************************
गौरिल= राई/white mustard
सरि= नदी
चपला= बिजली
केक= मोर
उदक= पानी
सुरसरि= गँगा
सैकत= रेत
पादप= पेड़/वृक्ष
कुसुमासव= शहद/मधु
पिनाकी= शिव
कुंजर= हाथी
देवपगा= गँगा
गेह= घर
सरसी= पोखर/ताल
दुर्धर्ष= मजबूत
कृशानु= आग
अभीक= भयहीन
दबीत= योद्धा
पवान्ज= हनुमान
पेरूमल= विष्णु
अशनि= वज्र
मृषा= झूठ
अहि= सर्प
वह्नि= आग
लिख पौरुष सरि के कण-कण पर,
हर एक चपला को केक बना.
हे मनुवत्स, यामाहंता!
तू उदक माँग सुरसरि से ला.
धो दे सैकत का हर खल कण,
उस पर प्रकाश का विपिन उगा.
पद पादप सब कुसुमासव हों,
चल अचला का कुछ पुण्य चुका.
तू देख न बाट पिनाकी की,
ले कालकूट और स्वयं पी जा.
कुंजर के नम्र निवेदन पर,
कब कूकर कहीं लजाता है?
वह देख दिगंत जो गोचर है,
गम्य-अगम्य पर ठेठ-ठठा.
अपने अस्त्रों के यौवन पर,
नित दनुज-दैत्य की बलि चढ़ा.
कुछ सीख ले बन्धु अनल से तू,
छिटपुट खाण्डव सब हटा-बढ़ा.
शांति के गीत की देवपगा,
समृद्ध गेह में बहती है.
हलधर की सूखी सरसी में,
दुर्धर्ष कृशानु ही रहती है.
हर शिला तोड़ दे तू अभीक.
कब बना कहीं भीरू दबीत?
जो प्रचुर प्रचेतस अर्जित है,
बन जा पवान्ज, रिद्धिमा बहा.
रख क्षमा ह्रदय में पेरूमल सी,
किन्तु ललाट को अशनि बना.
पहचान मृषा और अहिमन को,
पाखंडों के सिर हवन चढ़ा.
नरपतियों का इतिहास सही.
सैनिक मिथ्या आभास सही.
किन्तु वसुधा के वक्षमोह,
हर एक वह्नि में तू जल जा.
गूँथ ले गौरिल गिरि बना,
तू मार्तण्ड को झीरी बना.
होगा हर ऋण से उऋण वही,
जो कंचन-रेणु धुरि बना.
***********************************
***********************************
गौरिल= राई/white mustard
सरि= नदी
चपला= बिजली
केक= मोर
उदक= पानी
सुरसरि= गँगा
सैकत= रेत
पादप= पेड़/वृक्ष
कुसुमासव= शहद/मधु
पिनाकी= शिव
कुंजर= हाथी
देवपगा= गँगा
गेह= घर
सरसी= पोखर/ताल
दुर्धर्ष= मजबूत
कृशानु= आग
अभीक= भयहीन
दबीत= योद्धा
पवान्ज= हनुमान
पेरूमल= विष्णु
अशनि= वज्र
मृषा= झूठ
अहि= सर्प
वह्नि= आग
18 टिप्पणियाँ:
संग्रहणीय, मैंने कॉपी कर रख ली है
शब्दों का अलौकिक प्रबंधन ....
बेमिसाल रचना ....!!
"रख क्षमा ह्रदय में पेरूमल सी,
किन्तु ललाट को अशनि बना.
पहचान मृषा और अहिमन को,
पाखंडों के सिर हवन चढ़ा"
अविनाश, अनिवर्चनीय आनंद....
पढ़ते गये और भाव गंगा में बहते गये, बस।
ऐसा लगा "उठो पार्थ, गांडीव संभालो" का त्रेता वर्ज़न पढ़ रहे हों जैसे। बहुत अच्छे।
शुभकामनायें।
अपनी पुरानी डायरी की एक कविता 'सुलगन' के अंश याद आ गए:
निराश मनों के घायलों से, तू सिहरनों की खोज ले ले।
बुझी बुझी सी राख से भी, जा वह्नि का तू तेज ले ले।
पुष्पगर्विता साख से भी, जा कंटकों की सेज ले ले।
... कभी पोस्ट करता हूँ। लेकिन उस कविता में यह शब्द सौन्दर्य कहाँ! यह प्रौढ़ता कहाँ!! ऐसा अर्थ सौन्दर्य कहाँ?
कविता से ही याद आया, 'वहिन' होता है या 'वह्नि'?
ब्लॉग डैशबोर्ड पर जा कर Design पर क्लिक कीजिए और blog message या ब्लॉग सन्देश के Edit पर क्लिक कर
Reactions, Funny, Interesting, Cool को क्रमश: प्रतिक्रिया, साधारण, रोचक, उत्कृष्ट कर दीजिए ताकि प्रतिक्रिया के लिए ये विकल्प मिलें। इस ब्लॉग के लिए funny शब्द तो एकदम अनुपयुक्त है।
आप का ई मेल आइ डी नहीं है, इसलिए यहाँ लिख रहा हूँ।
धन्यवाद गिरिजेश जी,
"वह्नि" ही सही है. पर मैं तनिक दुविधा में था कल से और कहीं से पता भी नहीं चला. आपने बता दिया बहुत आभार.
ठीक करता हूँ.
बाकी भी करता हूँ अभी.
पद पादप सब कुसुमासव हों,
चल अचला का कुछ पुण्य चुका.
तू देख न बाट पिनाकी की,
ले कालकूट और स्वयं पी जा....
बहुत गहरे भाव ... कुछ नए विचार उठाये हैं आपने इस रचना में ... लाजवाब ...
बेहद गहन अर्थों को समेटती एक खूबसूरत और भाव प्रवण रचना. आभार.
सादर,
डोरोथी.
आपकी रचना हमेशा ही हटकर होती हैं......कहाँ से लाते हैं ये शब्द.....
बहुत अलग और बेहतरीन पोस्ट. शब्दों के माया जाल में उलझ गयी हूँ
मुझे पूरा यकीन है की ये कविता बेहतरीन होगी ... मुझे आप पर और जिन्होंसे टिपण्णी दी है .. उनके ऊपर पूरा भरोसा है .. :).. मैंने दो बार पड़ी पर ...!! ... पता नहीं आप शब्द कहाँ से लाते हैं ... इतने भारी भरकम ....
अविनाश ! आपकी रचनाओं पर टिप्पणी करने के लिए हमेशा अपने आप को असमर्थ पाती हूँ .
अद्भुत शब्द विन्यास होता है
उत्कृष्ट रचना.
वाह! वाह! वाह!
(आपके लिए)
हा हा हा.....
(अपने ऊपर!)
आपकी क्लास बहुत दूर है मुझसे.... लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है!
आशीष
--
पहला ख़ुमार और फिर उतरा बुखार!!!
अविनाश जी,
बहुत खूबसूरत है वीर-रस मैं डूबी ये कविता.
अगर आपने शब्दार्थ न दिए होते तो कविता की पूरी गहराई तक मैं तो नहीं उतर पाता.
वीर रस से ओत प्रोत अत्यंत प्रभावी रचना.शब्दों का चयन हमेशा की तरह सुन्दर और सटीक.शुभकामनायें.
वाह अद्भुत शब्द विन्यास , गूढ़ अर्थ वाली कविता . सचमुच संग्रहनीय. प्रवीण जी से सहमत . आभार
आप सभी का बहुत आभार!
बहुत ही ऊंची मयार की कविता जो हिन्दी पाठ्यक्रमों में शामिल होने का मद्दा रखती है।
Post a Comment