स्वायत्त प्रशमन करते,
मेरे उद्धत शब्द।
नवोन्मेषण हेतु संघनित,
आलोड़ित होते हैं।
करना चाहते हैं सर्जना,
वे स्वयं के गीत की।
स्व-सायुज्य विचार मधुकरों से,
संपृक्त वह गीत विग्रह।
सान्द्र प्रशंसा केलि की,
उत्फुल्ल स्पृहा लिए,
झांकना चाहते हैं वातायनों से।
विहस उठना चाहते हैं।
किन्तु क्या मधुमास का,
निरभ्र आना संभव हुआ है?
स्वयं से रचे शब्द,
उत्स से विगलित हो उठते हैं।
स्वयं से ही विमुख,
अभिप्रेत, प्रसूत, विछिन्न।
उच्चारों की श्रेयस विभाएँ,
गह्वरों में कांपती हैं, कुंठित।
व्याकरण का केसरी सौंदर्य,
नहीं सुहाता नासापुटों को।
प्रांजल शब्द होते जाते हैं,
परिवर्तित शृंगीभालों में।
इन विचारों के झुरमुटों से,
उन्नयन करता कडवापन।
इस मधुप संकुल में,
प्रच्छन्न विशद अवसाद।
यह संदेह की दस विमायें,
अंततः किसका इंगित हैं?
ऐसा तो संभव नहीं कि,
मेरे गीत चले गए हों,
किसी अगत्यात्मक देश के,
उत्पल दलों में डूबने।
किसी अलसाई झिप में धंस,
प्रतानों में नाहक फंसने।
बेलौस झूमते रहने से,
श्लथ निर्वाकपन तक।
मेरी समझ से की उन्होंने,
उन्मीलन की ही क्रिया।
क्या मेरी अहर्निश अनिमेष दृष्टि,
किंचित निमीलित हो गई थी?
निश्चय ही!
संभवतः अपने ऋजु आख्यान में,
नहीं कर पाया गणना।
तुम्हारी अहेतुक वीथिकाओं की,
जो तुमने जीवन पाथेय में बांधी थीं।
नहीं रख पाया मन व्रणों को,
स्वच्छ, धवल, गंधहीन।
नहीं सुन पाया सोपानों से,
विप्लव के मादल का स्वर।
तुम्हारी मृदुल मोहक संसृति,
जिसमे पहले से रहना था विनत।
उस पूजार्ह अस्तित्व के आगे,
अब शब्दों के साथ प्रणत हूँ।
इस आर्जव प्रेम सरिता में,
मेरे शब्द मोक्ष पायें।
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निरभ्र= स्वच्छ/ बिन बादलों के
विग्रह= देव प्रतिमा
प्रसूत= दूसरी वस्तु से लिया
संपृक्त= डूबा/घिरा
नासापुट= नथुने/नसिका
वातायन= खिड़की
अभिप्रेत= अवांछित
विमा= आयाम/dimensions
सान्द्र= गाढ़ा
विगलित= पिघला
उत्पल= कमल
पूजार्ह= पूजनीय
श्लथ= थका
निर्वाक= चुप
अहर्निश= दिन-रात
विप्लव= विनाश
मादल= ढोल
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16 टिप्पणियाँ:
मन को तृप्त करने वाली इस कविता में शांत बुनावट है, कहीं कोई हड़बड़ी या अतिरिक्त आवेश नहीं है।
विचार शब्दों को इतनी शक्ति दे दें कि वह जागें और मोक्षगत हों।
शंका और फिर आराध्य के आगे समर्पण से राह। सही कहा मनोज जी ने - शांत बुनावट।
@
नहीं रख पाया मन व्रणों को,
स्वच्छ, धवल, गंधहीन।
व्रण घाव को कहते हैं न? उनके प्रति इतनी ममता! सहेज कर स्वच्छ, धवल और गन्धहीन रखना!!
बस ऐंवे ही बुद्ध प्रसंग याद आ गया - उस कोढ़ी को मुक्ति दिए जो घावों से गिरते कीड़ों को उठा कर फिर घाव में रख देता था ताकि कीड़ों को कष्ट न हो।
बुद्ध या ईसा मसीह?
वाह !
मन को तृप्त करने वाली कविता|
"स्वायत्त प्रशमन करते,
मेरे उद्धत शब्द।
नवोन्मेषण हेतु संघनित,
आलोड़ित होते हैं।
करना चाहते हैं सर्जना,
वे स्वयं के गीत की।"
हो तो रहा है सृजन, यूँ ही कलम चलती रहे। बस बीच बीच में कभी थोड़ा गर्जन विधा का भी प्रयोग करते रहना। आखिर वक्त जरूरत द्रविड़ भी तो शैली की विविधता का प्रयोग करते रहे हैं:)
कोई दूसरा ब्लॉग होता तो ब्लॉग हैडर की तारीफ़ पहले कर देते, लेकिन यहाँ नहीं - बस इतना ही कि तलवार की धार ज्यादा मायने रखती है, म्यान भी खूबसूरत है तो सोने पर सुहागा।
अपने वातायनों से बुर्ज-कंगूरे.........। वाह!
मन में देर तक झंकृत होता शांत मद्धिम संगीत, सुंदर भावप्रवण प्रस्तुति. आभार.
सादर
डोरोथी.
शब्दों के मोक्ष की अभिलाषा ....बस यूँ ही सृजन होता रहे ..
विचारों का मंथन कर अमृत निकाला है तो मोक्ष भी मिल जायेगा ...
सुन्दर भावाभिव्यक्ति
आपके द्वार पर आकर शब्द साथ छोड़ देते हैं मेरा और वह शब्द जिससे मैं हमेशा घृणा करता रहा हूँ(इस आभासी जगत में)प्रेमवश हृदय से स्वतः प्रस्फुटित हो जाता है.. अद्भुत!!
उद्धत शब्द, गीत सर्जना और अंततः प्रेम सरोवर में शब्दों के मोक्ष की कामना!! आपके शब्द कालजयी हों,हमारी बस यही मंगलकामना है!!
जब इस धरा पर ही आपके शब्दों का अमृत मिल रहा हो देव,तो फिर मोक्ष और कहाँ। काश हम भी शब्द हो सकते तो आपकी कलम का सानिध्य ही हमारा मोक्ष होता।
वन्दन!
umeed hai moksh ki prapti ho hi jayegi.
शब्दों का मोक्ष - गहन या सान्द्र अर्थमयता जिसकी परा या पश्यंती तक पहुँची भूमिका , जहाँ शब्द का कलेवर विसर्जित होकर भी, भाव का संपूर्ण संप्रेषण (अबाध-अनायास)संभव हो !
- क्या सही समझ पाई हूँ,अविनाश जी ?
@गिरिजेश जी,
ध्यान तो ठीक से मुझे भी नहीं है, पर एक चुनना ही हो तो यीशु।
@प्रतिभा जी,
निश्चय ही।
आप सभी का बहुत आभार।
आपकी कविता के बारे में कुछ लिखूँ ..इस काबिल नहीं हूँ मैं.....बस ये कह सकती हूँ कि पढ़ती हमेशा हूँ...और समझने की कोशिश भी करती हूँ..
आपको नूतन वर्ष के लिए शुभकामनाएं........
हरकीरत ' हीर' जी ने कहा..
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सोंधे से फूल, गुलगुली सी माटी, गंगा का तीर, त्रिकोणमिति, पुरानी कुछ गेंदें, इतना ही हूँ मैं। साहित्य किसे कहते हैं? मुझे सचमुच नहीं पता।
ये बात आप जैसा साहित्य का गुणी ही कह सकता है .....
प्रेम दीक्षायें नहीं लिख जा सकती थीं,....लिख ...??
अपने कहे के लिए अक्खडपन रखना मेरा नियत व्यवहार है, किन्तु आलोचना के वृक्ष प्रिय हैं मुझे।
जब अपने आप पर अधिक विश्वास हो तभी कोई ऐसा कर सकता है ....
कविता तो हमेशा ही तारीफ से परे होती है .....
शायद इसलिए कमेन्ट की जरुरत नहीं उसे .....
नववर्ष की शुभकामनाएं ........
हरकीरत जी आप ये टिप्पणी मेरे दूसरे ब्लॉग पर लिख आयीं थीं, इसे मैंने यहाँ रख दिया है।
'लिख' की गलती सुधार ली है मैंने।
आप गुणी लोगों ने बहुत बार बचाया है, गलतियों से मुझे।
आपके स्नेह का सदैव आभारी।
आपके लिए नववर्ष मंगलमय हो।
अविनाश
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