हे वचन अब टूटने में,
ही तेरा सम्मान है.
लांछनों का घाव खाकर,
जीने में क्या मान है.
मुई आँखें, छुई बातें,
छुईमुई सी साँझ-रातें.
ढल गई हैं, बुझ गई हैं,
मूक हैं, निष्प्राण हैं.
कोयलें अब नहीं गातीं,
विधुर दिया, विधवा है बाती.
पर कुमुदिनी के भी जैसे,
सूर्पनखा के कान हैं.
मैंने जो बैराग माँगा,
उसने मेरा साथ माँगा.
मन उसी में रम गया था,
मूढ़ है, अज्ञान है.
मेढ़कों के टेरने से,
मैंने जो सावन बसाया.
सलिल की एक बूँद से भी,
आज तक अनजान है.
जब की सृष्टि सती होगी,
अग्नि जल के मति होगी.
ना तजूँगा मैं ये पाणि,
जो की तन में प्राण हैं.
ऐसी जो सौगंध खाई,
नियति की नियति भुलाई.
भूल गया था समय को,
सबसे जो बलवान है.
कोई काल था या काल मेरा,
जिसने उसे घूम घेरा.
उसके किसी गीत अब,
नहीं मेरा नाम है.
पर्ण अब अवशेष ही है,
वृंत जो निष्प्राण है.
हे वचन अब टूटने में,
ही तेरा सम्मान है.
11 टिप्पणियाँ:
बहोत अच्छा लिखा है आपने
बहुत गहरे भाव लिये सुन्दर अभिव्यक्ति। आभार।
छा गए गुरु .... क्या बात है ... बहुत ही सुन्दर कविता है ...
जब की सृष्टि सती होगी,
अग्नि जल के मति होगी.
ना तजूँगा मैं ये पाणि,
जो की तन में प्राण हैं.
अविनाश,
कितने गहराई से लिखते हो, पर ऐसी सोच क्यों? वचन टूटने में सम्मान क्यों?
रचना बहुत भावपूर्ण है....शुभकामनायें
ना तजूँगा मैं ये पाणि,
जो की तन में प्राण हैं.
The faith in poet's heart is quite evident in the above two lines.
A moment can make him weak but the ever fresh soul in him is reflected in the beautiful creation .
सचमुच विदा वचन हैं।
आपकी प्रतिबद्धता और शब्द सँयोजन ईर्ष्याजनक है..
बहुत ही डूब कर लिखी गयी रचना !
सुन्दर कविता .....
aap sabhi ka bahut bahut aabhar
@Sangeeta ji,
Vida ke vachan ki soch aisi hi to higi na...har vachan ki niyati me poora hona kahan niyat hota hai. :(
@Divya ji,
:) hmm, hmm...
@Amar ji,
irshyaa?
Ashish nahi denge :)
Pranam sabhi ko
yahan to har baar aana hoga :)
shukriya Parul ji :)
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