ना दो मुझको सौम्य सरोवर,
मुख पर स्थायी कांति का वर.
स्नेह तरु विस्थापित कर दो.
ना दो किसी विपत्ति का हल.
रेंग-रेंग के नहीं माँगता,
मैं तुमसे अमरत्व का फल.
तीसी के पिघलेपन सा है,
दृगों का मेरे हीरक जल.
सौ युग के ग्रंथों का राजा,
हर पूजा में पुष्प जो साजा.
पुण्य कोटि गोदान के जितना,
मंदाकिनी का शीतल जल.
मुक्ताफल अनुनाद तरंगी,
मिहिर व्योम छटा सतरंगी.
इनकी जगह प्राप्य हो मुझको,
प्रपात का भीषण कोलाहल.
मृदु पुष्पों के कोमल उपवन,
सुर-स्वर का मीठा एकाकीपन.
रजत-स्वर्ण सा दिप-दिप करता,
रेणु-पथ बन कर कंचन दल.
ऐसे गीत नहीं गुनने हैं,
सपने पीत नहीं बुनने हैं.
अणु-अणु से उर्वर होना है,
जेठ के ढीठ प्रभाकर जल.
घंटा औ घड़ियाल ध्वनि,
नव मधु का जो उच्चार बनी.
नव्या सी यह प्रातः बेला,
जो सुरभित से सपनो ने जनी.
इन मेहुल स्वाति बूंदों में,
नहीं है जाना मुझको घुल.
भीषण रण चिंघाड़ निहित है,
अजित भुजाओं का अतिबल.
स्मित सुख से कुसुमित जीवन,
मिलन-इंदु सा सुख-वैभव धन.
और विरह की बेकल झंझा,
मुखर कल्पना भरे अधर.
मेरी गति को नहीं चाहिए,
ऐसे सीले नैन युगल.
तम को जो कर जाए तिरोहित,
हो वो हिय में ज्वालादल.
अवसान नहीं अवनति कोई,
है प्राण-वायु की गति कोई.
लम्बे पर भंगुर जीवन से,
अच्छा है बह जाऊं कल-कल.
देवों तुम अपने तक रखो,
यज्ञजनित यह पुण्य के फल.
मेरा पौरुष निष्कूट जलेगा,
नित संघर्ष के दावानल.
रेंग-रेंग के नहीं माँगता,
मैं तुमसे अमरत्व का फल.
तीसी के पिघलेपन सा है,
दृगों का मेरे हीरक जल.
16 टिप्पणियाँ:
अवसान नहीं अवनति कोई,
है प्राण-वायु की गति कोई.
लम्बे पर भंगुर जीवन से,
अच्छा है बह जाऊं कल-कल.
इस कविता में प्रतीकों ने निश्चय ही सार्थक कलात्मकता और सांकेतिकता प्रदान की है।
अन्तर्जगत् के यथार्थ को लक्ष्य और बहिर्जगत की लक्ष्योन्मुख दौड़ती वास्तविकता को गहराई दी है।
avi ...kavita padhi ...kai bar to samjh nahi aayi hindi ke alpgyan ke karan...hehe par thodi mehnat se samjh aa hi gayi ...shandaar hai...kavita..aur ye bat to tum bhi jante ho ..aur kya kahun ... kal rakhi hai ....dher sari shubhkamnayen ...
गजब अर्थ और प्रवाह निकाल कर लाये हैं आप इस कविता में।
गजब का गुहार है आपका..सार्थक गुहार... लेकिन हम भी पागल हैं गजब त हम बेकार में लिख गए..आपका कबिता तो हमेसा गजब का होता है..शब्द का जादू अऊर अर्थ का गहराई दूनो गजब!!!
रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ.
हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसमें हमारे देश की सभी भाषाओं का समन्वय है।
आपकी कलम नित नए नए आयामों का स्पर्श कर रही है.यूँ ही लिखते रहिये.शुभकामनायें.
मेरी गति को नहीं चाहिए,
ऐसे सीले नैन युगल.
तम को जो कर जाए तिरोहित,
हो वो हिय में ज्वालादल.
देवों तुम अपने तक रखो,
यज्ञजनित यह पुण्य के फल.
मेरा पौरुष निष्कूट जलेगा,
नित संघर्ष के दावानल.
बहुत भाव प्रधान रचना ....अतिसुन्दर
बेहतरीन रचना!
ऐसे गीत नहीं गुनने हैं,
सपने पीत नहीं बुनने हैं.
अणु-अणु से उर्वर होना है,
जेठ के ढीठ प्रभाकर जल. ...
वाह अविनाश जी ... उर्जावान, प्र्वाह्मय रचना ...
बहुत ही ग़ज़ब लिखा है ... बहुत खूब ...
मेरी गति को नहीं चाहिए,
ऐसे सीले नैन युगल.
तम को जो कर जाए तिरोहित,
हो वो हिय में ज्वालादल.
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति..
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Awesome !
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अविनाश, अविनाश
आलौकिक आलौकिक!!
कुर्बान हो जाने का मन करता है दोस्त, कीप इट अप।
अजब बात कहते हो
और क्या गज़ब की गति है...
हम तो बस मौन हो रहे हैं ..
शब्दविहीन....!!
आपके लेखन काफी अलग है औरों से..............शब्दों का चयन भी.........जो इसे दूसरों से अलग बनाता है..............
badiya rachna....shukriya share karne k liye...
Meri nayi kavita : Tera saath hi bada pyara hai..(तेरा साथ ही बड़ा प्यारा है ..)
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आप सभी का आभार
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