"तुम पलाश के अमर पुष्प हो,
मैं कडवी सी बेल करेली.
कैसे अपना नेह बनेगा?
करते क्यूँ कर हो अठखेली?"
"हे सत्वचन, सदगुणी, गुनिता!
अम्लहरिणी तुम श्रेष्ठ पुनीता.
मैं अरण्य का बेढब वासी,
तुम युग-युग उपवन में खेली."
"मंगलवर्ण, रुक्म तुम जीवक,
उत्सव-क्रीडा के उत्पादक.
मैं हूँ हेयदृष्टि की मारी,
कालिख से है देह भी मैली."
"रूपक कितने दिवस रहा है?
किसने कितना सूर्य सहा है?
तुमने हर क्षण प्रेम उचारा,
हंस कर कोटि उपेक्षा झेली."
"देव तुम्हारे वचन स्निग्ध हैं,
वेद-ऋचाओं से ही लब्ध हैं.
इतना नेह सहूँगी कैसे?
रही है निंदा बाल्य सहेली."
"गरलगंट के फन के आगे,
उचित नहीं बनना पनमोली.
आती तुम बन क्षार चंडिका,
वायु जब होती है विषैली."
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पनमोली= मीठा बोलने वाली स्त्री
गरलगंट= विषैला नाग
23 टिप्पणियाँ:
पलाश के फूल और करेली के बीच के वार्तालाप को बहुत सुन्दर भाव दिए हैं ...
."देव तुम्हारे वचन स्निग्ध हैं,
वेद-ऋचाओं से ही लब्ध हैं.
इतना नेह सहूँगी कैसे?
रही है निंदा बाल्य सहेली.
बहुत पसंद आयीं यह पंक्तियाँ ..
"गरलगंट के फन के आगे,
उचित नहीं बनना पनमोली
"गरलगंट..... शायद शिव के लिए कहा गया है.... पनमोली...मैं नहीं समझ पायी....शब्दकोष में भी नहीं मिला ...कुछ नवीन शब्दों के अर्थ भी लिख दिया करो ....हमेशा शब्दकोष छनवा देते हो ....
बहुत सुंदर...हिंदी के शब्दों का प्रयोग बहुत भाया.
अविनाश....
हर बार ..हर बार कहना मुझे भी अच्छा नहीं लगता...पर रचना मुझे मौन भी रहने नहीं देती :) ...
बेहतरीन अभिव्यक्ति....कितना स्तब्ध करोगे.. इसकी कोई सीमा नहीं है क्या.. शायद नहीं..क्यूंकि तुम्हारे लेखन की कोई सीमा नहीं ..तो उससे स्तब्ध होने की भी कोई सीमा नहीं...
दीदी का कहना सही है... शब्दकोष छानना पड़ता है .तब भी कई शब्दों के अर्थ नहीं मिलते..
बहुत सुन्दर प्रवाहमय वार्तालाप..पलाश और करेली के बीच...मन में कुछ उमड़ घुमड़ गया
शुभाशीष और स्नेह
दी
अविनाश बाबू,
क्या महत्व समझाए हैं आप दुनों का..करेली अऊर पलाश... हमरे चारों ओर समाज में दूनो का सामन्जस्य मिलता है...हर बार के जइसा कुछ नया सब्दों से परिचय भी हुआ... लयबद्ध कविता. सुईकारिए हमरा बधाई!
:) is baar bhool gaya tha... likh diya hai ab :)
बहुत ही सुन्दर रचना.
हिन्दी का ज्यादा ज्ञान तो नहीं है, पर कविता और उसकी साथ बहती भावनाओं को समझ रहा हूँ. और शायद इसलिए यहाँ टिप्पणी देने चला आया.
आभार
मनोज खत्री
बहुत ही अच्छी-अनन्य बधाई .
अविनाश,
चमत्कृत कर देने वाली भाषा है आपकी।
पिछली पोस्ट और यह पोस्ट एक के साथ दूसरी एक अलग ही संवाद प्रस्तुत कर रही हैं।
आभारी।
अपनी पोस्ट के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (9/8/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
कम शब्दों में नया चित्र खींचते हैं आप ! सुन्दर लगा यह वार्तालाप. बधाई !
बहुत सुन्दर ब्लॉग है आपका ...................उस पर रचना जैसे सोने पे सुहागा ............
बहुत बढ़िया अभिनव प्रयोग.
क्या बात है !! कमाल है ....
देव तुम्हारे वचन स्निग्ध हैं
इतना नेह सहूंगी कैसे ...
भाव भरी है बात
गरलकांत के फन के आगे
उचित नहीं बनना पंमोली ...
कई नए शब्द जाने ...
"गरलगंट के फन के आगे,
उचित नहीं बनना पनमोली.
आती तुम बन क्षार चंडिका,
वायु जब होती है विषैली."
..आज इतना अच्छा पढ़ने को मिलेगा सोचा न था.
..अद्भुत शब्द चमत्कार.
विरोधाभासों को सही प्रकार रखना रचना को निखार देता है।
भाई अविनाश इसमें कोई शक नहीं कि आपने बहुत सुंदर कविता की रचना की है। शब्दों का चयन और संयोजन भी बेहतरीन है। पर मुझे लगता है आपकी असली ताकत सहज और सरल शब्दों में कही गई बात में ही है। उस से दूर मत जाइए।
आप सभी का बहुत बहुत आभार!
राजेश जी, धन्यवाद. दूर नहीं जा रहा, यहीं हूँ, कोशिश करूँगा की आगे से आपको और सहज शब्द मिलें.
सुझाव का फिर से बहुत धन्यवाद.
उफ़...इस अपरिमित रचना सौंदर्य ने तो मंत्रमुग्ध ही कर लिया....
क्या लिखा है आपने प्रशंशा को शब्द नहीं मेरे पास....
अद्भुत.....अद्वितीय....
अद्भुत और क्या कहूँ
apko padhkar meri hindi aur acchi ho jaegi........seekhne ko milega mujhe,
आप सभी का ह्रदय से आभार.
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