जीत ही जाना,
जरुरी तो नहीं।
जरुरी है जीत का,
प्रयास किया जाए।
बिफर तो कोई भी,
सकता है।
जरुरी है जरा,
अपमान पिया जाए।
खुशियों का जश्न,
सब मना लेते हैं।
कभी तसब्वुर में,
किसी ग़मगीन को फूल,
दिया जाए।
अंजुमन के कहकहे,
अच्छे तो लगते हैं।
जरा तन्हाई का,
शोर सुना जाए।
रोज़ उखाड़ते हो,
पंखुडिया गुलाब की।
कभी क्यूँ ना,
कांटें चुने जाएँ।
फिल्म संगीत,
यारों के लतीफे,
छोड़ कर क्यूँ न,
कभी किसी निरीह,
अबोध को सुना जाए।
यूँ तो शहरों में,
मकानों की कमी नहीं।
पर कभी जरा,
अंधियारे बियावान ,
में रहा जाए।
खुशनुमा दोपहरी,
यूँ तो बड़ी हसीन है।
कभी क्यूँ ना,
मौत की रातों,
को जिया जाए.
चार बरस, नहीं!!!
चार बरस, तीन महीने,
बीत गए, उससे मिले।
भूल गया, शायद!!!
नहीं, यकीनन।
हाँ यकीनन।
भूल गया था,
उसके बारे में।
कल अचानक ही,
किसी अपने ने,
यूँ ही कुरेद दिया,
दिल का कोई कोना।
परदे उड़ चले ,
यादों के झरोखों से।
वो याद पर गयी,
बरबस ही आज।
हरिणी सी मासूम आँखें,
बाल जो शायद,
कभी रेशमी रहे हों।
पैरों में चप्पल???
चप्पल नहीं बिवाइयां।
हाय!! नौ साल की,
उम्र में बिवाइयां।
ट्रेन के रुकते ही,
खिड़की के बाहर,
वो मिली, नहीं!!!
उसकी काली सूखी हथेली।
"भैया कुछ खाने,
को दो ना"
मैं नुमाइंदा नहीं,
कोई नेकी का।
पर भाई कहलाना,
बड़ा पसंद है मुझे।
"गुडिया तेरे घर,
कौन कौन है??"
वाह रे!! अभागन से,
उसका घर पूछता है।
" कोई नहीं भैया जी,
माँ मर गयी,
बाप का पता ही नहीं।"
वो मगन थी,
बिस्कुट में थैले में।
क्या कहता,
पूछा"तेरा नाम?"
"आशी भैया॥"
निशब्द मैं था,
के गाडी ने सिग्नल दिया।
"तुझे मतलब पता,
है तेरे नाम का ?"
"नहीं तो, क्या?"
ट्रेन चल पड़ी।
आज भी खुदा से,
एक ही दुआ है।
जब उसे देना,
तो सबसे आखिर में,
आशी का मतलब!!!
कलम लिखती ही,
तब तक है।
के जब तक,
शब्द जिन्दा हैं।
मौत इश्क की,
हुई है बस।
शब्द जरा,
शर्मिन्दा हैं।
वफा...
प्यार जब,
लगने लगा गुनाह सा।
हर लाल फूल,
दिखने लगा स्याह सा।
हमने फोड़ ली आँखें,
वफ़ा को न मरने दिया।
माँ...
पानी पीती हो वही,
रोटियाँ मुझसे एक,
कम ही खाती हो।
रहती हो वहीँ,
उसी गंगा में नहाती हो।
फिर इतना स्नेह कैसे???
इतना प्यार,
कैसे लुटाती हो???
खोखलापन.....
वादी का हर दरख्त,
मुझ सा हो चुका है।
जाने कश्मीर सरकार के,
दीमक रोकथाम अभियान,
को क्या हो गया?
ए बबूल....
आओ भाई,
सुख दुःख बांचें।
सुने तुम्हारी,
कुछ हम उवाचे।
गाँव के बाहर,
अकेले में ज़रा।
अदा....
हमारी हर तन्हाई,
अंजुमन का पता है।
आदत को आदत,
कहना भी तो,
अदा है।
सजदा...
किसी रोज मैं भी,
दवात में पिताजी के,
पैरों की धूल,
भर लाऊंगा।
उस दिन लिखेगी,
कलम महाग्रंथ कोई।
मैं भी वाल्मीकि,
बन जाऊँगा।
विक्रम-बेताल....
माँ बड़ी या बाबूजी??
विक्रम को बेताल ने,
जब फरमाया होगा।
निशब्द हुआ होगा विक्रम,
बेताल उसी रोज़,
पकड़ में आया होगा।
पाकीजापन मेरा....
वो मांगते हैं सुबूत,
मेरी नीयत के पाकीजापन का।
हम उन्हें तुलसी का,
चौरा दिखा पाते हैं बस।
फातिहा.....
मेरी मौत का ,
मातम मत मनाना।
रोना मत कब्र पर,
फूल ना चढाना।
मेरी मौत कोई क़यामत नहीं,
है नए एक जनम का,
फातिहा।
माँ फिर से....
सोचता हूँ प्रेम पर लिखूं,
या लिखूं किसी सुवर्णा पर।
या प्रकृति का गुणगान करूँ,
गीत लिखूं किसी केवट पर।
या दुनिया का हाहाकार लिखूं।
दारुण करूँ कोई पुकार लिखूं?
लेकिन ये कलम तो,
बस तुझसे बंधी है माँ..
ज़रा मिटटी फटती है,
कुछ कांटे चुभते हैं।
माली का पसीना बहता है,
तब जा के कहीं,
कोई फूल खिलता है।
जलन होती है धूप में,
पर होठों पर मुस्कान और,
दिल को सुकून मिलता है।
राह चलते सुबह,
हाथ फेरने से किसी,
गरीब बच्चे के सर,
कुछ जाता नहीं अपना,
वो जरा खिलखिलाता है,
दिल को सुकून मिलता है।
बसों में सीट,
मिल ही जाती है,
पर किसी वृद्ध महिला को,
सीट देने पर।
जब पढ़तीं हैं वो दुआ,
चमक जाती हैं आखें,
दिल को सुकून मिलता है।
बिल्ली के रास्ता,
काट देने पर जब।
खड़ी हो जाती है,
लड़की कोई सरेराह।
उसके सामने से,
गुजर जाने पर।
मरता नहीं मैं बल्कि ,
उसकी आँखों में,
बहन सा प्यार पलता है.
हर रोम पढता है दुआ,
दिल को सुकून मिलता है.
देर हो जाती है,
जब दफ्तर से आते।
और राह पूछते मिलते हैं,
दक्षिण भारतीय सज्जन कोई.
पांच मील और घूमता हूँ,
उन्हें घर पहुँचने को.
क्या हुआ के खुद का दरवाजा,
ज़रा देर से खुलता है.
दिल को सुकून मिलता है.
ढाबे पर कभी लड़का,
गिरा देता है दाल।
"सरदार दाल बड़ी अच्छी है,
एक और भिजवाओ"
कहता हूँ तो लड़का,
कमल के फूल सा खिलता है।
दिल को सुकून मिलता है.
जब कभी अपना कोई,
सूना देता है जली-कटी।
सुन लेता हूँ गीता की तरह,
भले ही वो जीतता है।
मैं हार जाता हूँ पर,
जवाब नहीं देने पर.
दिल को सुकून मिलता है.
जब जब संकट ने जाल बुना,
नर ने पौरुष का वार चुना.
यूँ शय्या पर जी कर क्या हो?
उसने मृत्यु अधिकार चुना.
विद्युत सम तलवार लिए,
तडीतों को अपने तुरीन धरे.
लगा गाँठ जनेऊ में,
भरकर भीषण हुंकार चला.
कितने रत्नाकर लाँघ दिए,
अगणित सेतु भी बाँध दिए.
माँ के वचनों की रक्षा को,
अग्नि में कुंदन लाल जला.
ना विषधर की ही चिंता की,
न सिंहो का सिंहनाद सुना.
जब राह रुकी पर्वत कुचला,
वो वेग पवन का बाँध चला.
ले अक्षय आशीष पितरों का,
और साहस का अधिकार चला.
देखी संकट ने जब ऊष्मा,
हा हा करता चीत्कार जला.
तुम मेरे साथ,
गंगा के किनारे।
घुटने तक पानी,
दीन दुनिया बिसारे।
क्या फर्क पड़ता है,
कोई देखे तो?
किसी की बातें,
रोक तो नहीं सकते।
जब किसी और ने,
अपना नहीं माना।
मेरे धीर को,
बस तुमने पहचाना।
और मैंने भी तो,
तुमसे उतना ही,
प्रेम किया।
सदैव साथ ही,
तो हैं हम।
कितने एक से,
बिम्ब- प्रतिबिम्ब।
एक क्षितिज से,
गंगा गायत्री से।
लगता है न,
हमारा साथ।
युगों-कल्पों के,
हर नियम बंधन के,
पार-अपार है।
मैं ठीक कह रहा हूँ न,
तन्हाई?
बन जाऊँगा,
बरगद का पेड़।
नहीं आने दूंगा ,
सूर्य की तपिश।
रोक लूंगा वर्षा भी।
भय न हो हवा का,
तान दूंगा लताएं।
डरती हो,
जंगली जानवरों से?
भय मेरे साथ भी?
चिंतित न हो,
स्वयं को खा लूंगा,
एक कोटर बनाऊंगा,
वक्ष पर ही।
रह लेना वहीँ
भूख ???
अरे मेरे अमर,
फल खा लेना।
वरना पकड़ लूँगा,
किसी गिलहरी को।
वो बो देगी आम,
एक भुजा पर मेरी।
आम तो पसंद हैं ना?
सर्दी की चिंता,
मत करो तुम।
तुम चिंतित,
अच्छी नहीं लगती
तुम्हारी तपिश को,
मैं अस्थियाँ जलाउगा।
तुम बस एक बार,
ह्रदय से कहो तो.
ठंडी हवा का,
मनभावन झोंका।
नहा के ओस में ,
खिड़की से आया
"उठो अनुज"
हवा मेरी बड़ी,
बहन है।
झर गए रात,
अगणित फूल,
गुलमोहर के
" अरे भाई!
मेरी प्रेयसी न,
आएगी इस राह।"
नटखट डालियों ने,
बरसा दी कुछ,
बची, संजोयी,
ओस की बूँदें।
शुभ्र, शांत, धवल।
वृक्ष, मस्त मंद,
सुगन्धित वायु।
चिडियों का,
गान अगान,
और सूर्य ,
वर देता किसी,
देवता की भांति।
नीले गगन पर,
खडा अकेला विजेता।
और कुछ चारण,
सफ़ेद,
भूरे बादल से।
मधुरिम सुबह ,
दिसम्बर की।
अहा कितनी,
सुन्दर थी.
शैतान को खौफ है उससे,
खुदा भी रंज रखता है।
इस मिटटी की दुनिया में,
वो ही महफूज रहता है।
कब्र पर नाम खुदते हैं,
गलत पिता के।
मौत होती है औलाद की,
पिता उसकी रगों में बहता है।
भाई....
जब भी मुझे शक हुआ,
खुदा की इबादत पर।
भगवान् के अस्तित्व पर।
देखा तुझे और,
यकीं हो आया।
कम से कम सच था,
लक्ष्मण और भरत का होना।
बहना.....
क्या मिलता है,
इक्यावन रुपये में?
रोरी चन्दन के टीके,
एक रसमलाई,
एक रेशमी धागा।
अरबों दुआएं,
करोडों बालाएं।
बहन की मुस्कान,
और वो इक्यावन,
रुपये तहे हुए,
बटुए में।
के भैया को,
कष्ट न हो ,
राहखर्च का।
माँ.....
दिया दिखाना दिनकर को,
मना है।
मशाल ले चलना पूनम को,
मना है।
अग्नि से पवित्र उम्मीद करना,
मना है।
तो कैसे लिखूं,
तुम्हारे बारे में माँ??
मैं.....
आदि हूँ, अनंत हूँ।
साधनारत संत हूँ।
जब भी गिरा धरा पर,
यूँ अकड़ कर खडा हो गया।
तारों को दी चुनौती,
पर्वतों से बड़ा हो गया.
जब जब शरद के चौथ की,
साँझ उतरती है।
हहर जाता हूँ मैं,
कचोटता है मन।
क्या इतना कठिन है,
इतना पीडादायी?
विगत अनंत वर्षों से,
तुम्हे भुलाना।
जब हलकी सर्दी छाती है,
और रजनी कोई,
चुस्कियां चाय की लगाती है।
हरी-फूशिया चादर में।
हद हो जाती है,
आकुलता की।
विस्मृत पसीना भी,
चुहचुहा जाता है।
क्या सही में,
इतना?
इतना तो नेह,
नहीं था अपना।
के मेरी पेशानी के बल,
बदल गए झुर्रियों में।
पर यह ह्रदय,
और किसी से।
नेह लगा भी तो,
नहीं पाता है।
उम्मीद है किसी,
सुबह मिलो तुम।
शरद से प्रेम है,
मुझे चौथ के अलावा.
कुछ तुम तड़पो,
कुछ हम तड़पें।
साथ नहीं ,
साथ साथ सही।
कुछ तुम जलो,
कुछ हम जलें।
साथ नहीं,
साथ साथ सही।
कुछ तुम फूटो,
कुछ हम फूटें।
साथ नहीं,
साथ साथ सही।
अग्नि स्फुलिंग,
एक तुम बनो,
एक हम बनें,
साथ नहीं,
साथ साथ सही।
पवन में ही
आलिंगन हो।
समा जाएँ,
धरा में फ़िर।
साथ नही,
साथ साथ सही..
मैंने खुद को कहा मेघ कब,
कब तुझको कोयल जाना।
वृक्ष नहीं समझा है खुद को,
न तुझको वल्लरी जाना।
न मैं तिमिर का अंत प्रहर हूँ,
हरसिंगार की न तुम माला।
ना ही अमर फूल मैं पौष का,
न तुम अबाबील माना।
फिर भी कभी किसी प्रणय का,
तुमसे है ये अनय निवेदन।
जब भी मेरा दीप बुझेगा,
देना तुम अंतिम संबोधन.
एक सिरा दो तुम,
के पा जाएँ हम।
एक सिरा लो तुम,
के दुःख हो ज़रा कम।
ज्यादा की आस न दो,
कुछ ज्यादा अहसास न दो।
बस दो एक मधुरिम,
अदेही सम्बन्ध।
ना सागर नदी सा,
ना वृक्ष वल्लरी सा।
मुझे प्रेम न दो,
कलि और अलि सा।
बस इतना नेह रखो,
नदी के किनारे।
चलते चलते जो,
नजरें मिला लें।
चेहरे पर,
खिले मुस्कान।
दोनों अधरों पर,
हो प्रेम छन्द....
शुभकामनायें....
दीप जलें, चमके कंदीलें।
चमचम और लड्डू के टीले,
स्वयं गणेश और लक्ष्मी आयें,
सब तारे आँगन छितरायें,
सारी खुशियाँ अब ये बोलें,
आज तुम्हारे ही घर जी लें।
साईंस.....
आईंस्टीन साहब ने,
बड़ा परेशान किया।
प्रकाश का भार में,
बदलना बता कर।
अब बिजली का बिल,
यकीन दिलाता हैं।
उसकी आँखें..........
शोर में प्रपातों के,
ढूंढती न्यास मेरा है।
जहां छोडा था उसे,
मिलूँ वहीँ काश....
तुम्हारा यकीन......
पहाड़, नदी,
वृक्ष, मकान,
तुम, वह,
तुम्हारा आपसी,
प्रेम अनुराग।
सब काँप गया।
मेरे नदी में एक,
पत्थर मारने का,
यह प्रभाव।
दीपक......
अनकहा ही सही,
प्रेम दोनों तरफ पलता है।
पतंगे पर हम लिखते ग्रन्थ,
दीपक बिन कहे जलता है।
नर की लडाई...
आसान राह वो राही चुने,
जिसको चलना ना आता हो।
या फिर उसको भी भा जाए,
जो मृत्यु से घबराता हो।
मुझको तो देना राह वही,
जिस पर तू भी ना जाता हो,
तू भी तो देखे भाग्य नर का,
नर का नर स्वयं विधाता हो।
विजय.......
विजय दीप्ती की नहीं,
नहीं विजय सत्य की है,
विजय धर्म की नहीं,
नहीं विजय उस परम की है।
मृत्यु पर भी हँसे ठठा कर,
विजय उसी जीवन की है।
मेरा रक्त.....
जल जाऊं यूँ ही,
बंधा धमनियों में?
सूख जाऊं यूँ ही,
जमा शिराओं में?
या काम आऊं रंगने ,
किसी का कागज़?
या कपडा किसी,
गरीब रंगरेज का।
यूँ ही पूछ बैठा मुझसे,
एक दिन मेरा लहू।
खारा सागर, मीठी नदी.....
सागर: मैं तुम पर,
बहुत यकीन नहीं करता।
जितना ऊपर उठो,
गिरने की आशंका,
उतनी ज्यादा है।
नदी: मैं तुम पर,
बहुत यकीन करती हूँ।
जितना डूबो उतना कम है।
मुझे चाहत है और,
डूबने की, और समाने की।
अश्वमेघ का अश्व .....
शत्रुघ्न का धर्म,
राम का यश,
लव की वीरता,
वाल्मीकि का व्रत,
सीता का शील,
कुश का उदय,
इन सब में मैं,
कहाँ गुम हो गया?
जिनके दिल जले......
बचपन से ही लिखा,
"दिवाली अमावस को होती है"
लोग होते आहत,
"तुझसे ख़ुशी से शुरुआत नहीं होती?"
अब युधिस्ठिर से कितना ही कह लो,
वो तो यही कहेगा,
"अश्वत्थामा हत, नर नहीं हथ।"
पिता की...
शिवी का तन,
हड्डियां दधिची।
पिता हमारे,
स्वयं ब्रम्हर्शी।
जिम्मे उनके,
अरबों काम।
अधरों पर ,
हरदम मुस्कान।
शिव सा पीकर,
परम हलाहल।
हमें कराते,
अमृत पान।
छोटे सारे ,
वेद पुराण।
क्षणभंगुर ,
गीता का ज्ञान।
क्या है मदीना,
क्या गुरु साहिब।
वो ही मेरे,
चारो धाम।
माँ की......
दीप्ती अनल है,
भाव विह्वल है।
देख मुझे जो,
बहुत सरल है।
आँचल के ,
साए में छुपाये।
मुझको पीती,
स्वयं गरल है।
नेत्र तरल हैं,
दृष्टि विरल है।
जिसको बेटा,
सदा कमल है।
प्रेम अचल है,
स्नेह अटल है।
इस जीवन का,
घ्रुणन पटल है।
नित वंदन,
उस माँ को मेरा।
हर धमनी,
तेरा ही बल है.
O thou mother! O fount of love.
Your son yearning, standing bestowed.
Touch my spirit, please do touch.
Not from the top, but from the bottom.
Your tender child, cries in isolation.
Let my spirit forth, till them began.
Over my shrine, let them take oath.
The human heart, cannot refrain,
Its’ after all, above all your pain.
Partaking is untold, let them hold.
Make them feel as thou hast felt,
Let my soul shine and melt.
Chop me into pieces, O holy mother,
Or let them crucify me oven again.
Wash my wounds with your tears.
Bless them away and blow their fears.
I’m no Christ nor am thee.
But want to share pain,
Once was in he.
Let me die in torments,
Allow them to slain me,
For their sins.
Mingling tears and mourning for,
Those loved me, and those were Czar.
Till I live for those years.
Let me mingle with their tears,
For all the sorrow sharing,
For all the bitter anguish bearing.
Let the sword pass me.
Forgive my fellow,
I love them hearing.
O mother fairy, love destine
Do love me, and do stand alone.
Beholding the pangs of your dying son.
I know your soul begotten,
Heart rust, you are highly blest.
But I wish you be one,
Who would not weep.
Just hold your tears,
Keep miseries buried deep.
With old scourges rent,
Let me face the torment.
For the sins they do,
Let me get hanged.
My spirit is yours’
I’ll come again.
Sustain your tears O dearer Mom,
To die for them I was born.
Let me live to my latest breath,
Let me be the son of thou.
Let my body bear the death,
Let be share the grief divine.
O virgin mother, hear this request,
Love me, leave me, don’t be blest.
Fire on the flames and let me burn.
Let my blood fill all their wounds.
Make me victorious in thee shrine
Make me stand their crude and divine.
Chop my body and send soul back,
Let me die for them again and again.
In mansions of glory and sparkling delight,
I never want heaven which is so bright.
Do I ever ask any crown?
Let them burn me again and frown,
Never had I wished a
What I loved was love to thee.
Don’t knot me a tie,
But don’t let me down.
I need thorns to wear,
And a deep black gown.
O my gracious redeemer,
Everyone’s savior art thou,
Fulfill my only dream
For their sinful,
Give them smile.
Do impart me everyone’s sin
Amen………………
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही से.
पिछले साल उसे एक,
नीली कलम दी थी.
मीठी मुस्कान के साथ,
कलम उसने ली थी.
पर अब ये क्या?
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही में.
दिखते नहीं शब्द मुझे,
पर आंसू के १३ धब्बे,
पढ़ लेता हूँ मैं.
तब भी पढ़ लेता था,
जब वो नहीं लिखती थी.
पर अब ये क्या?
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही में.
वही उसकी चाची की,
चिक चिक और चिरौरी.
देना उसको गुड की भेली,
खुद खाना गरम कचौडी.
तब भी दर्द समझता था,
समझता हूँ अब भी.
पर अब ये क्या?
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही में.
बाँध देती है वो,
मुर्गे को कमरे में.
ना उठे चाची बांग से,
चिट्ठी लिखने से पहले.
बैरंग आती है चिट्ठी,
तब भी आती थी.
पर अब ये क्या?
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही में.
आज यों ही दवात में,
खून गिरा तो जाना.
शहर ने भुला दिया,
नीले में लाल मिलाना.
काले रंग का यूँ बन जाना.
प्रेम वही है पर,
भाव कम से हो गए हैं.
मेरे , उसके नहीं....
अब समझा क्यूँ????
वो ख़त लिखती है,
काली स्याही में.
असली सुपरस्टार.....
"अम्मी, अम्मी
सुपरस्टार कैसा होता है."
"जा देख ले,
अपने अब्बू को."
तब नहीं समझा,
सच नहीं माना.
अब दस गुनी,
तनख्वाह में,
आधा घर नहीं चलता,
तब जाना.
तुम सच कहती हो अम्मी.
चिराग तले अँधेरा...
अपनी सूनी पलकों पे,
लेके यादों के दिए,
उनको दिखायी राह,
वो दूर चल दिए.
ना उनकी थी खता,
न उनको था पता.
उनकी यादों के दीयों ने,
नयन नम किये.
रिश्ता........
भैया !!! मेरा समोसा ??
टिंकू ने मेरा बैट,
तोड़ दिया.
आईला!!! तुम कितने,
दुबले हो गए हो.
पंजा लड़ाओगे,
मुझसे अब?
चिपट के कहता,
की भाभी पर गयी.
"वो घर में नहीं,
परसों आना, मिलेंगे."
हर उथले गहरे पल को,
जीता एक वर्ष हूँ.
अवसाद का परम शत्रु,
मैं हर्ष हूँ.
रोते हैं जो सन्नाटे में,
नींद नहीं आने से परेशान,
जीवन के कंटको से व्यथित ,
लोगो को मीठा परामर्श हूँ,
मैं हर्ष हूँ.
घंटो जिस पर सर फोडो,
मैं ऐसा कोई विचार नहीं,
मन के सारे अंगो को,
पंगु कर दे वो विकार नहीं.
चैन से सो सको जिस पर,
मैं वो आनंद फर्श हूँ,
मैं हर्ष हूँ.
ना बुझती वो प्यास नहीं,
यूँ तो कोई ख़ास नहीं.
हरे कस्ट जो ईश नहीं.
पर मैं ईश विमर्श हूँ,
मैं हर्ष हूँ.
अब शोर बहुत करता है,
चिल्लाता बहुत है.
तुम्हारे नहोने पर,
मौका क्यूँ गवांये,
ये सन्नाटा.....
मेरे कान फट जाते हैं,
हाथ लहुलुहान,
बदर पसीने से.
क्यूँ न अब जलाए,
ये सन्नाटा.....
प्लेटफार्म पर भी ,
बेफिक्र फिरता हूँ.
इंजन का हार्न,
क्यूँ अब सुनाये,
ये सन्नाटा....
लेटी तुम वहाँ हो,
और कोमा में मैं हूँ.
कोई क्यूँ पर सुने,
जलते मेरे दिल के,
जख्म क्यूँ दिखाए,
ये सन्नाटा......
तीन फर्लांग दूर,
मेरे घर से ,
बशीर चचा रहते हैं।
कसम से चची ,
गजब के पकौडे,
बनाती हैं।
पिछवाडे रेशमा,
आपा रहती हैं।
जब उनकी दवात,
को लाता हूँ स्याही।
झोली भर भर ,
बलाएं लेती हैं।
रहमत गली का,
सबसे अच्छा,
बल्लेबाज है।
और रिजवान ,
मेरे दिल के ,
बहुत पास है।
कसम माँ दुर्गा की,
बरकत से बढ़िया,
मुर्तिसाज़,
शहर में नही।
माँ की बीमारी में,
रोटियाँ सलीम के,
घर खाई हैं।
हर ईद मैंने भी,
टोपियाँ चिकन की,
सिलवाई हैं।
बस यही नही,
अविनाश गीत गाता है,
आशुतोष अव्वल है,
पढ़ाई में।
मरियम का कत्थक,
और हरी की ,
चित्रकला कमाल है.
सुखविंदर अगला,
भूटिया है।
विजय पंडित जी,
के बिना अधूरी है,
हर पूजा।
आपको कुछ,
अजीब लगता है क्या??
बताता चलूँ,
मेरे भारत में,
पड़ोसी हिंदू नही,
मुसलमान या,
सिख नही होता।
मेरे भारत में पड़ोसी,
भारतीय होता है,
बस भारतीय............................
माँ का प्रेम बड़ा निच्छल है,
पिता का प्रेम भी कम तो नही।
आँचल में है माँ के ममता,
पर नमी पिता की कम तो नही।
बेडी है पांवो की मैया,
हरदम जो बांध जाती है।
सांझ सवेरे हरदम मेरे,
बेध ह्रदय को जाती है।
पिता का प्रेम अजर सा है,
जो हरदम संबल देता है।
अग्रसर हो जीवन पथ पर,
हर क्षण ये ही कहता है।
माँ को मोह है के बेटा,
मेरी गोद निहाल रहे।
जी भर भर खाए निवाले,
आँखें सुख से मालामाल रहे।
उस माँ का पुण्य ,
है उच्च बड़ा।
दर्जा उसका है ,
पूज्य बड़ा।
पर प्रेम पिता का,
उच्चतम है।
सब श्रेष्ठों में,
श्रेष्ठतम है।
उसकी लाठी ना भले बने,
बरसों चेहरा न दिखे भला।
तू रहे जहाँ उन्नति करे,
परचम फैला खुशहाल रहे।
है मोह जो माँ का व्याकुल है,
मुझको पाने को आकुल है।
वो हहर सा मुझ बिन जाती है,
आंखों से नीर बहाती है।
पर अद्भुत धीर पिता का है,
वो देता है, बस देता है।
कभी प्यार मुझे, फटकार मुझे,
कभी दुआ और दवा मुझे ।
वो पलके नही झुकाता है,
जब देता है स्टेशन पे विदा।
के देख न लूँ सागर की सी,
गीली आंखों में प्रेम बसा.
इस जीवन का प्रिय,
एक दिन और बीता।
आज भी ना आये तुम,
मैं फिर से रह गयी रीता।
तुमने मेरी सुधि बिसारी,
मेरी सहचर याद तुम्हारी।
आँखों के मोती से सींची,
कुचले सपनो की ये क्यारी।
हर मजबूरी है तुमको ही,
मैं तो बस खुद से ही हारी।
पलक झपकना भूल गयी हैं,
देखते देखते राह तुम्हारी।
तुम आये ना आया सावन,
होली भी ना थी मनभावन।
बस महकी थोडी फुलवारी,
फिर आयी है याद तुम्हारी.
तुम्हारे खतों का आना,
मेरा पढ़ना,
रोना,चुपके से
और कभी कभी,
खिलखिला देना,
चांदनी बिखरा के।
जारी है,
सतत, अनवरत,
पाँच साल से।
पूछना तुम्हारा,
कैसे हो???
अच्छे होगे.......
खुश ही होगे,
मैं भी ठीक हूँ,
चिंटू के पापा भी।
खरीदी पिछले महीने,
नयी एक गाडी है।
सतत, अनवरत।
पाँच साल से।
कैसे लिखूं???
पाँच साल पहले,
तुमने दिल तोडा था।
अब धड़कन टूट रही है,
मुझे दिल की बीमारी है,
पाँच......................साल से........
ध्वनि...
भीड़ के शोर में,
तनहा फिरता हूँ।
तुम्हे याद करता,
सड़क पार करता हूँ।
टक्कर मार दे,
बस कोई,
मिल जाए यूँ ही,
कहीं मुझे शनि।
के अब सुनाई ना दे,
कोई ध्वनि....
वक़्त....
बेइन्तेहान मजबूर,
पिता कहते हैं।
घबरा मत,
तेरा वक़्त आएगा
"आपका कभी ,
आया क्या पापा?"
प्यार कम नहीं होता.....
पापा नाराज हैं आजकल,
बात नहीं करते मुझसे।
जाने माँ को हर घंटे,
फ़ोन लगा कर कौन देता है।
दूरी.....
तुमसे नौ सौ ,
संतानबे किलोमीटरकी दूरी,
रोज तय करता था।
ख़्वाबों में।
अब दो साल ,
हुए मिले हुए।
तुम ब्याह के,
बगल वाली गली ,
आ गयी हो ना??
कैसे लोग??
ऊँची अट्टालिकाएं,
छोटे लोग।
नोट खरे और,
खोते लोग।
बड़े शहर के ,
गजब के पत्थर,
बड़े गजब के,
होते लोग।
इकलौता वादा...
कब कहा,
मैं पानी पर चल जाऊँगा।
कब कहा,
मैं चाँद तोड़ कर लाऊंगा।
कब कहा,
मैं राह में फूल बिछाउंगा।
कोई वादा तो,
किया नहीं।
के हर ख़ुशी दिलाऊँगा।
पर कभी रोना मत,
दुखी तुम होगे,
अश्क मैं बहाउंगा।
हथेली उनकी...
चार अंगुलियाँ,
चार वेद हैं।
और अंगूठा ,
मेरा है।
मेरे हर छोटे,
पग पग भी।
पिता का साया,
घनेरा है।
सरकारी टीके....
जब कई दिन ,
घर से दूर होता हूँ।
जब मीठे दोस्तों से,
बात नहीं करने पर,
मजबूर होता हूँ।
जब नहीं खा पाता,
बर्फ के गोले।
चावल हाथों से,
अंगुलियाँ चाट के।
तब बचपन याद दिलाते हैं,
कन्धों पर जड़े तीन टीके।
जो हैं मेरे जन्म से,
सरकारी साथी......
Dangling down the fairy Dolphin Mountains,
I am there.
Crystallizing in the meandering Amazon,
I am there.
Under the deep vast Nile base,
I am there.
Beneath the snoopy, larky, creamy Greenland,
I am there.
From dip most Andes to the highest Rockies,
From thorny savannas to Bermuda triangle,
I am there.
Into the breeze passing your window,
Into the splashes of the first monsoon,
In the dropping sweat in a hot afternoon,
I am there.
Passing through the Chittgaon mangroves,
Blowing through the Malgudi streets,
In the damp of ran of Kucch,
I am there.
In the agony of your past,
Into the ferocity of your future,
Melancholy of your present,
I am there.
Burning in the gloomy sun,
Paining in the lonely night,
Whispering when you are so quite,
I am there.
Burnt into ashes,
I am there.
Buried into grove,
I am there.
Talking from coffin,
I am there.
Dissolved into Gangas,
I am there.
I don’t have a shrine.
Neither have a monument.
Open your eyes,
I am nowhere.
But feel it,
smell it,
inhale it,
Into every bit of oxygen you inhale,
Every smell u feel…..I am there………..there for ever.
आंधी आई धूल उडी,
और मैंने गढ़ ली एक कविता।
आँखों में किरचों से बन गए,
बह निकली आंसू की सरिता।
लौकी तरोई की पीली कलियाँ,
पोली मिटटी की सर्दी सा।
याद मुझे है फिर से आया,
खाना वो अधपका पपीता।
अम्मा की फटकारें मीठी,
चटनी की चटकारें तीखी।
गुझिया , घेवर और पकौडी,
सत्तू से वो भरी कचौडी।
मुह में रस सारे भर आये,
तुमने पढ़ ली एक कविता
मुकुट कभी जो था ही नहीं,
उसको क्या खोना क्या पाना।
जिस सत्ता की चाहत ही नहीं,
लोलुपता में क्या मर जाना।
छीन अगर कोई जाए तो,
क्यूँ मैं उस पर क्षोभ करूँ ?
कीचड़ भी उछला है गर तो,
क्या उसका संताप धरूँ ?
सूरज की आतिश को कोई,
कैसे भला बुझायेगा?
गंगाजल में डालो हलाहल,
वो अमृत हो जायेगा।
उज्जवल, पाक ध्वजा पर कोई,
धब्बे लगा नहीं करते।
छोटी, छोटी, छिटपुट, छिटपुट,
ऊष्मा में क्या जल जाना।
सरिता की धारा है कविता,
उसको दूर तलक जाना.