जब जब संकट ने जाल बुना,
नर ने पौरुष का वार चुना.
यूँ शय्या पर जी कर क्या हो?
उसने मृत्यु अधिकार चुना.
विद्युत सम तलवार लिए,
तडीतों को अपने तुरीन धरे.
लगा गाँठ जनेऊ में,
भरकर भीषण हुंकार चला.
कितने रत्नाकर लाँघ दिए,
अगणित सेतु भी बाँध दिए.
माँ के वचनों की रक्षा को,
अग्नि में कुंदन लाल जला.
ना विषधर की ही चिंता की,
न सिंहो का सिंहनाद सुना.
जब राह रुकी पर्वत कुचला,
वो वेग पवन का बाँध चला.
ले अक्षय आशीष पितरों का,
और साहस का अधिकार चला.
देखी संकट ने जब ऊष्मा,
हा हा करता चीत्कार जला.
1 टिप्पणियाँ:
आश्चर्य कि किसी ने न पढा इसको और यदि पढा तो मौन कैसे रह पाया…… शायद शब्द नहीं मिल पाये होंगे किसी को……। मेरे पास भी नहीं हैं शब्द !
बस एक सज़्दा है कलम के लिये !
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