जब जब शरद के चौथ की,
साँझ उतरती है।
हहर जाता हूँ मैं,
कचोटता है मन।
क्या इतना कठिन है,
इतना पीडादायी?
विगत अनंत वर्षों से,
तुम्हे भुलाना।
जब हलकी सर्दी छाती है,
और रजनी कोई,
चुस्कियां चाय की लगाती है।
हरी-फूशिया चादर में।
हद हो जाती है,
आकुलता की।
विस्मृत पसीना भी,
चुहचुहा जाता है।
क्या सही में,
इतना?
इतना तो नेह,
नहीं था अपना।
के मेरी पेशानी के बल,
बदल गए झुर्रियों में।
पर यह ह्रदय,
और किसी से।
नेह लगा भी तो,
नहीं पाता है।
उम्मीद है किसी,
सुबह मिलो तुम।
शरद से प्रेम है,
मुझे चौथ के अलावा.
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