शब्द....
कलम लिखती ही,
तब तक है।
के जब तक,
शब्द जिन्दा हैं।
मौत इश्क की,
हुई है बस।
शब्द जरा,
शर्मिन्दा हैं।
वफा...
प्यार जब,
लगने लगा गुनाह सा।
हर लाल फूल,
दिखने लगा स्याह सा।
हमने फोड़ ली आँखें,
वफ़ा को न मरने दिया।
माँ...
पानी पीती हो वही,
रोटियाँ मुझसे एक,
कम ही खाती हो।
रहती हो वहीँ,
उसी गंगा में नहाती हो।
फिर इतना स्नेह कैसे???
इतना प्यार,
कैसे लुटाती हो???
खोखलापन.....
वादी का हर दरख्त,
मुझ सा हो चुका है।
जाने कश्मीर सरकार के,
दीमक रोकथाम अभियान,
को क्या हो गया?
ए बबूल....
आओ भाई,
सुख दुःख बांचें।
सुने तुम्हारी,
कुछ हम उवाचे।
गाँव के बाहर,
अकेले में ज़रा।
अदा....
हमारी हर तन्हाई,
अंजुमन का पता है।
आदत को आदत,
कहना भी तो,
अदा है।
सजदा...
किसी रोज मैं भी,
दवात में पिताजी के,
पैरों की धूल,
भर लाऊंगा।
उस दिन लिखेगी,
कलम महाग्रंथ कोई।
मैं भी वाल्मीकि,
बन जाऊँगा।
विक्रम-बेताल....
माँ बड़ी या बाबूजी??
विक्रम को बेताल ने,
जब फरमाया होगा।
निशब्द हुआ होगा विक्रम,
बेताल उसी रोज़,
पकड़ में आया होगा।
पाकीजापन मेरा....
वो मांगते हैं सुबूत,
मेरी नीयत के पाकीजापन का।
हम उन्हें तुलसी का,
चौरा दिखा पाते हैं बस।
फातिहा.....
मेरी मौत का ,
मातम मत मनाना।
रोना मत कब्र पर,
फूल ना चढाना।
मेरी मौत कोई क़यामत नहीं,
है नए एक जनम का,
फातिहा।
माँ फिर से....
सोचता हूँ प्रेम पर लिखूं,
या लिखूं किसी सुवर्णा पर।
या प्रकृति का गुणगान करूँ,
गीत लिखूं किसी केवट पर।
या दुनिया का हाहाकार लिखूं।
दारुण करूँ कोई पुकार लिखूं?
लेकिन ये कलम तो,
बस तुझसे बंधी है माँ..
कलम लिखती ही,
तब तक है।
के जब तक,
शब्द जिन्दा हैं।
मौत इश्क की,
हुई है बस।
शब्द जरा,
शर्मिन्दा हैं।
वफा...
प्यार जब,
लगने लगा गुनाह सा।
हर लाल फूल,
दिखने लगा स्याह सा।
हमने फोड़ ली आँखें,
वफ़ा को न मरने दिया।
माँ...
पानी पीती हो वही,
रोटियाँ मुझसे एक,
कम ही खाती हो।
रहती हो वहीँ,
उसी गंगा में नहाती हो।
फिर इतना स्नेह कैसे???
इतना प्यार,
कैसे लुटाती हो???
खोखलापन.....
वादी का हर दरख्त,
मुझ सा हो चुका है।
जाने कश्मीर सरकार के,
दीमक रोकथाम अभियान,
को क्या हो गया?
ए बबूल....
आओ भाई,
सुख दुःख बांचें।
सुने तुम्हारी,
कुछ हम उवाचे।
गाँव के बाहर,
अकेले में ज़रा।
अदा....
हमारी हर तन्हाई,
अंजुमन का पता है।
आदत को आदत,
कहना भी तो,
अदा है।
सजदा...
किसी रोज मैं भी,
दवात में पिताजी के,
पैरों की धूल,
भर लाऊंगा।
उस दिन लिखेगी,
कलम महाग्रंथ कोई।
मैं भी वाल्मीकि,
बन जाऊँगा।
विक्रम-बेताल....
माँ बड़ी या बाबूजी??
विक्रम को बेताल ने,
जब फरमाया होगा।
निशब्द हुआ होगा विक्रम,
बेताल उसी रोज़,
पकड़ में आया होगा।
पाकीजापन मेरा....
वो मांगते हैं सुबूत,
मेरी नीयत के पाकीजापन का।
हम उन्हें तुलसी का,
चौरा दिखा पाते हैं बस।
फातिहा.....
मेरी मौत का ,
मातम मत मनाना।
रोना मत कब्र पर,
फूल ना चढाना।
मेरी मौत कोई क़यामत नहीं,
है नए एक जनम का,
फातिहा।
माँ फिर से....
सोचता हूँ प्रेम पर लिखूं,
या लिखूं किसी सुवर्णा पर।
या प्रकृति का गुणगान करूँ,
गीत लिखूं किसी केवट पर।
या दुनिया का हाहाकार लिखूं।
दारुण करूँ कोई पुकार लिखूं?
लेकिन ये कलम तो,
बस तुझसे बंधी है माँ..
1 टिप्पणियाँ:
Awesome dude.......
bahoot hi achhi kavita likhi hai...
HATS OFF--To the Creator & the Creation!!!!!!!
Post a Comment