शुभकामनायें....

दीप जलें, चमके कंदीलें।
चमचम और लड्डू के टीले,
स्वयं गणेश और लक्ष्मी आयें,
सब तारे आँगन छितरायें,
सारी खुशियाँ अब ये बोलें,
आज तुम्हारे ही घर जी लें।


साईंस.....

आईंस्टीन साहब ने,
बड़ा परेशान किया।
प्रकाश का भार में,
बदलना बता कर।
अब बिजली का बिल,
यकीन दिलाता हैं।


उसकी आँखें..........

शोर में प्रपातों के,
ढूंढती न्यास मेरा है।
जहां छोडा था उसे,
मिलूँ वहीँ काश....


तुम्हारा यकीन......

पहाड़, नदी,
वृक्ष, मकान,
तुम, वह,
तुम्हारा आपसी,
प्रेम अनुराग।
सब काँप गया।
मेरे नदी में एक,
पत्थर मारने का,
यह प्रभाव।


दीपक......

अनकहा ही सही,
प्रेम दोनों तरफ पलता है।
पतंगे पर हम लिखते ग्रन्थ,
दीपक बिन कहे जलता है।

नर की लडाई...

आसान राह वो राही चुने,
जिसको चलना ना आता हो।
या फिर उसको भी भा जाए,
जो मृत्यु से घबराता हो।
मुझको तो देना राह वही,
जिस पर तू भी ना जाता हो,
तू भी तो देखे भाग्य नर का,
नर का नर स्वयं विधाता हो।


विजय.......

विजय दीप्ती की नहीं,
नहीं विजय सत्य की है,
विजय धर्म की नहीं,
नहीं विजय उस परम की है।
मृत्यु पर भी हँसे ठठा कर,
विजय उसी जीवन की है।


मेरा रक्त.....

जल जाऊं यूँ ही,
बंधा धमनियों में?
सूख जाऊं यूँ ही,
जमा शिराओं में?
या काम आऊं रंगने ,
किसी का कागज़?
या कपडा किसी,
गरीब रंगरेज का।
यूँ ही पूछ बैठा मुझसे,
एक दिन मेरा लहू।


खारा सागर, मीठी नदी.....
सागर: मैं तुम पर,
बहुत यकीन नहीं करता।
जितना ऊपर उठो,
गिरने की आशंका,
उतनी ज्यादा है।
नदी: मैं तुम पर,
बहुत यकीन करती हूँ।
जितना डूबो उतना कम है।
मुझे चाहत है और,
डूबने की, और समाने की।


अश्वमेघ का अश्व .....

शत्रुघ्न का धर्म,
राम का यश,
लव की वीरता,
वाल्मीकि का व्रत,
सीता का शील,
कुश का उदय,
इन सब में मैं,
कहाँ गुम हो गया?


जिनके दिल जले......

बचपन से ही लिखा,
"दिवाली अमावस को होती है"
लोग होते आहत,
"तुझसे ख़ुशी से शुरुआत नहीं होती?"
अब युधिस्ठिर से कितना ही कह लो,
वो तो यही कहेगा,
"अश्वत्थामा हत, नर नहीं हथ।"

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