आशी...

चार बरस, नहीं!!!
चार बरस, तीन महीने,
बीत गए, उससे मिले।
भूल गया, शायद!!!
नहीं, यकीनन।
हाँ यकीनन।
भूल गया था,
उसके बारे में।

कल अचानक ही,
किसी अपने ने,
यूँ ही कुरेद दिया,
दिल का कोई कोना।
परदे उड़ चले ,
यादों के झरोखों से।
वो याद पर गयी,
बरबस ही आज।

हरिणी सी मासूम आँखें,
बाल जो शायद,
कभी रेशमी रहे हों।
पैरों में चप्पल???
चप्पल नहीं बिवाइयां।
हाय!! नौ साल की,
उम्र में बिवाइयां।

ट्रेन के रुकते ही,
खिड़की के बाहर,
वो मिली, नहीं!!!
उसकी काली सूखी हथेली।
"भैया कुछ खाने,
को दो ना"

मैं नुमाइंदा नहीं,
कोई नेकी का।
पर भाई कहलाना,
बड़ा पसंद है मुझे।
"गुडिया तेरे घर,
कौन कौन है??"

वाह रे!! अभागन से,
उसका घर पूछता है।
" कोई नहीं भैया जी,
माँ मर गयी,
बाप का पता ही नहीं।"
वो मगन थी,
बिस्कुट में थैले में।

क्या कहता,
पूछा"तेरा नाम?"
"आशी भैया॥"
निशब्द मैं था,
के गाडी ने सिग्नल दिया।
"तुझे मतलब पता,
है तेरे नाम का ?"
"नहीं तो, क्या?"
ट्रेन चल पड़ी।

आज भी खुदा से,
एक ही दुआ है।
जब उसे देना,
तो सबसे आखिर में,
आशी का मतलब!!!

2 टिप्पणियाँ:

Unknown said...

this poem left tears in my eyes...and felt nothing else but irresistable pain and helplessness...name doesn't matter for that person who is lost in the misery of hunger...name matters only for the rich...who play with its significance...poor slums' people know only abusive words and hollow name....

Avinash Chandra said...

truth...but a helping hand is much better that our loud cries.u lend urs...i'll lend mine....the earth will become one day very divine