वक़्त से आगे...

सुनता था बचपन से,
वक़्त नहीं ठहरता कभी.
तुम भी नहीं ठहरे.
सोचा तुम खुद भी,
वक़्त ही होगे.
तुम बुरे तो थे ही नहीं,
बहुत अच्छे थे.
और किताबों ने सिखाया था,
"अच्छा" वक़्त आएगा.
शंका के साथ रोते,
धीरज संग चुप होते.
अरहर की आँच जला,
बैठा रहा धीरज के साथ.

कहते हैं मेरे पास,
अब ज्यादा वक़्त नहीं.
कभी वक़्त मिले तो,
दोनों साथ में आ जाना.
एक नज़र देख लूँ,
शायद वक़्त ठहर जाए.
तुम तो तब भी,
नहीं ठहर पाओगे ना?

1 टिप्पणियाँ:

संजय भास्‍कर said...

बहुत बढ़िया,
बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....
पूरी कविता दिल को छू कर वही रहने की बात कह रही है ..........